रिश्तों की संजीवनी कृतज्ञता

In today’s fast-paced digital world, children are learning knowledge and technology, but often miss the essence of gratitude and emotional sensitivity. This thoughtful essay explores how gratitude strengthens family bonds, revives communication, and nurtures emotional well-being. Gratitude is not just a word — it’s a way of living that turns families into sanctuaries of love and respect.परिवार ही वह पहली पाठशाला है, जहाँ बच्चा देखता है, सुनता है और फिर दोहराता है।यदि वह माता-पिता को एक-दूसरे के प्रति आभार प्रकट करते देखता है, यदि दादा-दादी के त्याग को सराहा जाता है,यदि रोज़मर्रा की चीज़ों-जैसे खाना, पानी, शिक्षा, सुरक्षा-के लिए ‘शुक्रिया’ कहा जाता है, देखता है तो वह उसी को दोहराता है । कई बार हम यह मान लेते हैं कि जो हमारे लिए किया गया, वह तो स्वाभाविक था और आभार प्रकट करने की सोचते भी नहीं लेकिन यही सोच रिश्तों को धीरे-धीरे खोखला कर देती है।

Oct 23, 2025 - 16:12
Oct 23, 2025 - 16:27
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रिश्तों की संजीवनी कृतज्ञता
Gratitude is the lifeblood of relationships

आज की तेज़ ऱफ्तार और तकनीक प्रधान दुनिया में बच्चे हर चीज़ को तेज़ी से पकड़ रहे हैं- ज्ञान, सूचना, डिजिटल कौशल- लेकिन क्या वे आभार, संवेदना, और कृतज्ञता जैसे मूलभूत मानवीय गुणों को भी उतनी ही गंभीरता से आत्मसात कर पा रहे हैं?
उत्तर है नहीं क्योंकि भविष्य वही सीखेगा, जो आज बोया जाएगा।
जब किसान बीज बोता है, तो वह केवल अनाज नहीं उगाता- वह भविष्य की रोटी, आने वाली पीढ़ियों का जीवन और समाज की स्थिरता को धरती में रोपता है। उसी प्रकार, हम जो संस्कार, मूल्य और भावनाएँ आज अपने बच्चों के मन-मस्तिष्क में बोते हैं, वही कल उनके जीवन की दिशा और हमारे समाज की दशा तय करेंगे।
कृतज्ञता एक ऐसा बीज है जो जीवन बदल सकता है । यह एक ऐसा बीज है, जो यदि सही समय पर बोया जाए, तो वह जीवन के हर क्षेत्र में फल-फूल सकता है-
यह संबंधों को मधुर बनाता है, आत्मविश्वास को मजबूत करता है, मानसिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ करता है और व्यक्ति को एक संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिक बनाता है।
परंतु यह बीज अपने आप अंकुरित नहीं होता। इसे बोना पड़ता है -उदाहरणों से, संवादों से, छोटे-छोटे अनुभवों से और सबसे अधिक- परिवार के वातावरण से।
‘जिस घर में आभार की भाषा बोली जाती है, वहां संतोष की संस्कृति पनपती है।’
परिवार ही वह पहली पाठशाला है, जहाँ बच्चा देखता है, सुनता है और फिर दोहराता है।यदि वह माता-पिता को एक-दूसरे के प्रति आभार प्रकट करते देखता है, यदि दादा-दादी के त्याग को सराहा जाता है,यदि रोज़मर्रा की चीज़ों-जैसे खाना, पानी, शिक्षा, सुरक्षा-के लिए ‘शुक्रिया’ कहा जाता है, देखता है तो वह उसी को दोहराता है ।
कई बार हम यह मान लेते हैं कि जो हमारे लिए किया गया, वह तो स्वाभाविक था और आभार प्रकट करने की सोचते भी नहीं लेकिन यही सोच रिश्तों को धीरे-धीरे खोखला कर देती है।
परिवार एक ऐसा वृक्ष है जिसकी जड़ें आभार से सींची जाती हैं। यदि इन जड़ों को पानी नहीं मिला, तो ऊपर की हरी- भरी शाखाएं भी धीरे-धीरे सूख जाती हैं, चाहे हम उन्हें कितना भी रंगने की कोशिश करें।
रिश्तों में जब संवाद घटता है और अपेक्षाएं बढ़ती हैं, तब सबसे पहले जो भाव हमारे जीवन से गायब होता है, वह है - कृतज्ञता।
कृतज्ञता आखिर है क्या?
कृतज्ञता का मतलब सिर्फ `धन्यवाद' कहना नहीं है।
यह एक भीतर की स्वीकृति है - कि 'जो मुझे मिला है, वह उपहार है', न कि अधिकार। इसलिए उपहार के लिए आभार प्रकट करना तो बनता है ।
यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति समझता है, महसूस करता है और प्रकट करता है कि उसे जो मिला है वह कितना मूल्यवान है - चाहे वह एक कप चाय हो, माँ की इंतज़ार करती आँखें, या पिता का बिना कुछ कहे खर्च उठा लेना।
तैत्तिरीयोपनिषद् में इसे महत्त्व देते हुए कहा गया है- `कृतज्ञता वह स्मृति है जो आत्मा को झुकाती है।' 
आधुनिक मनोविज्ञान भी इसे स्वीकार करता है-डॉ. रॉबर्ट एमन्स (UC Davis) के शोधों के अनुसार, कृतज्ञ व्यक्ति अधिक खुश, संतुष्ट और मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं।
एक छोटा ‘धन्यवाद’ जीवन में बड़ा परिवर्तन लाता है 
मेरे एक परिचित का बेटा अनिरुद्ध जो आठ साल का है,को स्कूल की निबंध प्रतियोगिता में भाग लेना था जिसका विषय था ‘आपके पिता’ ।
पहली बार अनिरुद्ध ने अपने पिता की दिनचर्या को ध्यान से देखा - वे रोज़ सुबह ६ बजे उठकर काम पर चले जाते हैं ।रात में आठ बजे तक लौटते हैं ,थके होते हैं फिर भी वे कभी शिकायत नहीं करते ।हम सब भाई बहनों की शिकायतें सुनते और हँसकर हमारा समाधान करते । हमारी सभी मांगों को पूरी करने की कोशिश करते। हमारी पढ़ाई का हिसाब भी लेते और शंकाओं का समाधान भी करते।
अनिरुद्ध का ह्रदय अपने पापा के प्रति बहुत ही कृतज्ञ महसूस कर रहा था। उस रात उसने एक छोटी सी चिट्ठी  लिखी और पापा के कमरे में टेबल पर रख आया। 
'पापा, आप रोज़ हमारे लिए इतना कुछ करते हैं। हमारी परेशानियों पर गुस्सा नहीं करते  मुझे नहीं पता आप थकते भी हैं या नहीं , लेकिन अब मुझे समझ आया कि आप हमें खुश रखने के लिए सब कुछ करते हैं। खुद परेशान रहकर, थके रहकर भी उसे हमारे सामने नहीं आने देते हैं ।कितना हमसे आपको प्यार है पापा। थैंक यू पापा, वी लव यू।' अगले दिन अनिरुद्ध के पिता की आँखों में पहली बार आंसू थे- खुशी के, स्वीकार के, प्रेम के और संतोष के -।
यह एक छोटी सी चिट्ठी थी। पर इसने एक पिता को अपने बेटे के मन की गहराई में पहली बार झाँकने का अवसर दिया।
 कृतज्ञता की आवश्यकता तब पड़ती है जब रिश्ते चुप हो जाते हैं ,जब रिश्ते थकने लगते हैं...
परिवार में हर रिश्ता समय के साथ एक ऐसे दौर में प्रवेश करता है, जहाँ भावनाएं मुरझाने लगती हैं, संवाद कम हो जाते हैं और अपेक्षाएं बोझ बन जाती हैं। यही वह समय होता है जब रिश्ते 'थकने लगते हैं'। परिवार में अक्सर रिश्ते रोज़मर्रा की दौड़  में मशीन बन जाते हैं। लोग पास होते हैं लेकिन जुड़े नहीं होते।
यही वह समय है जब कृतज्ञता एक दीपक बनकर अंधेरे में प्रकाश लाती है।
जब घर में संवादहीनता बढ़ने लगे ,कोई सदस्य मानसिक रूप से थका हुआ लगे
बच्चे उदासीन हो जाएँ, माता-पिता स्वयं को उपेक्षित महसूस करें या 
जब जीवन में कोई बड़ा परिवर्तन आये जैसे नई नौकरी, रिटायरमेंट, बच्चे की शादी आदि।
ऐसी स्थिति में रिश्ते चुप होने लगते हैं लेकिन रिश्तों में चुप्पी या संवादहीनता या रिश्तों की थकान का अर्थ यह नहीं कि प्रेम समाप्त हो गया है, बल्कि यह संकेत है कि संबंधों को  देखभाल, पोषण और भावनात्मक उर्जा की आवश्यकता है और इसी समय कृतज्ञता (Gratitude) एक संजीवनी का काम करती है।
जब हम अपने प्रियजनों के अदृश्य योगदान, छोटी-छोटी बातों में छुपी सेवा, और निस्वार्थ त्याग को पहचानते हैं और उसका आभार व्यक्त करते हैं - तो थक चुके रिश्तों में भी नयी ऊर्जा का संचार होता है। कृतज्ञता एक भावनात्मक टॉनिक है जो पुराने रिश्तों को नयी चमक देती है।
वही समय होता है जब कृतज्ञता को ज़िंदा करना सबसे अधिक आवश्यक होता है।
स्वामी विवेकानंद ने ठीक ही कहा है  'जब शब्द चुप हो जाते हैं, वहाँ आभार बोलता है।' – 
कृतज्ञता और कृतघ्नता में बहुत सूक्ष्म अंतर गहरा प्रभाव
हम अक्सर सोचते हैं कि 'मैं तो किसी का बुरा नहीं करता, तो सब ठीक है।'
लेकिन क्या हम अच्छे को पहचानते हैं? क्या हम उसे व्यक्त करते हैं? कृतज्ञता  एक  क्रिया है - सोचने से अधिक, जीने का भाव। जबकि  कृतघ्नता  कोई आक्रोश नहीं, बल्कि एक चुप्पी है -एक ऐसा मौन जो सामने वाले को अनदेखा करता है। कृतघ्नता हमारे रिश्तों में दीवारें खड़ी करती है। कृतज्ञता उनमें दरवाज़े और खिड़कियाँ बनाती है।

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‘कृतज्ञता को कहने की ज़रूरत नहीं - उसे जीने की ज़रूरत है।'
कृतज्ञता कोई भाषण नहीं है - यह व्यवहार में प्रकट होती है।
हमारे शब्द, लहजा, आंखों की कोमलता, हाथों की मदद, और मौन समर्थन-
ये सब कृतज्ञता के रूप होते हैं।
जब बेटा माँ के थके चेहरे को देख बिना कहे पानी का गिलास बढ़ा दे - वह कृतज्ञता है।
जब पत्नी पति के संघर्ष को देखकर चुपचाप उसका पसंदीदा खाना बना दे -वह कृतज्ञता है।
जब पिता बेटे की असफलता पर भी कहे -‘कोशिश देखी मैंने, गर्व है,’तो वह कृतज्ञता का गहनतम स्वरूप है।
भारतीय संस्कृति में कृतज्ञता एक संस्कार है -
हमारे नमस्कार, चरण स्पर्श, और 'धन्यवाद' कहने की आदत हमारे पारिवारिक मूल्यों का प्रतिबिंब हैं।
 'जो संस्कृति धन्यवाद देना सिखाती है, वही रिश्तों को जोड़ती है - तोड़ती नहीं।'
पारिवारिक संस्कार जहाँ कृतज्ञता रचती है:भोजन से पहले ‘प्रसाद’ भावना-
भोजन को आभारपूर्वक ग्रहण करना। त्योहारों में बड़ों को याद करना - पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना। बच्चों को 'कृपया', 'धन्यवाद', 'माफ कीजिए' जैसे शब्दों का अभ्यास देना।
संस्कार वह बीज हैं, जिनमें कृतज्ञता फल बनकर उगती है।
हमारी दिनचर्या में कृतज्ञता छिपी होती है ।कृतज्ञता सिर्फ खास मौकों के लिए नहीं होती -वह रोज़ाना के छोटे-छोटे कामों में नजर आती है।
अपने बच्चों को एक ऐसा संस्कार सिखाइए जिसमें कृतज्ञता हो-जैसे खाना खाते समय ‘प्रार्थना’ या किसी की मदद करना।
अपने माता पिता या बड़े भाई बहनों द्वारा उसके लिए किए गए कार्य के लिए धन्यवाद बोलकर आभार प्रकट करना ।
कृतज्ञता एक क्रिया नहीं है यह जीने का तरीका है । विवेकानंद ने ठीक ही कहा था   ‘कृतज्ञता तब सुंदर बनती है, जब वह शब्दों से निकलकर कर्मों में उतरती है।’ 
कृतज्ञता दिखाने के लिए मंच नहीं चाहिए -बस मन चाहिए।
यदि हमारे दैनिक जीवन में यह भावना गहराई से उतर जाए, तो परिवार केवल रिश्ता नहीं, जीवन का तीर्थ बन जाता है। यह रिश्तों के लिए संजीवनी का काम करती है ।
कृतज्ञता जब आदत बन जाती है ,तो परिवार में सिर्फ लोग नहीं - प्रेम जीता है।'

 रेणु प्रसाद
बोकारो, झारखण्ड

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