धुंआ धुंआ
धुंआ धुंआ जंगल जंगल, धुंआ धुंआ धरती अम्बर,
धुंआ धुंआ जंगल जंगल,
धुंआ धुंआ धरती अम्बर,
धुंआ धुंआ सब पेड़ पात,
है धुंआ धुंआ मंज़र मंज़र।
इस धुंवे का ज़िम्मेदार कौन?
इस धुंवे का ठेकेदार कौन?
बंटता सबमें क्यों इक समान?
इसका असली हक़दार कौन?
ये धुंआ वृक्ष की छाह का है।
ये धुंआ प्रकृति की आह का है।
पृथ्वी रुदन करती जिससे,
ये धुंआ उसी कराह का है।
ये धुंआ लील लेगा सब कुछ,
ये नहीं ढील देगा अब कुछ,
अब भले चढ़ा लो सौ परतें,
ये धुंआ छील लेगा सब कुछ।
ये धुंआ घोंट लेगा दम हाँ,
ये आँखें कर देगा नम हाँ,
जीवन पे लगा के प्रश्नचिन्ह,
ये सांसें कर देगा कम हाँ।
इस धुंवे से मुक्ति मिले कैसे?
विस्तृत अति, लुप्ति मिले कैसे?
इस धुंवे से पार लगा दे जो,
आखिर वो युक्ति मिले कैसे?
युक्तियों से सारे भिज्ञ यहाँ,
सब ही तो हैं नीतिज्ञ यहाँ,
पर सबका स्वार्थ जुड़ा इससे,
सबके अपने वाणिज्य यहाँ।
सब लालच स्वार्थ से ऊपर हो,
जागे ग़ैरत, भीतर गर हो,
निज स्वार्थ से पहले प्रकृति रहे,
है मुश्किल होना ये, पर हो।
मुकेश जोशी 'भारद्वाज'
What's Your Reaction?