ख़ामोशी ख़ुद अपनी सदा हो

We spend our entire lives seeking our reflection in others. This philosophical essay explores how true solitude and self-realization begin only when we stop searching outward and turn inward — where silence becomes our greatest teacher.

Oct 24, 2025 - 18:42
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ख़ामोशी ख़ुद अपनी सदा हो
May silence always be your own

हम सब अपनी सारी उम्र एकदम अजीब से पागलपन में बिता रहे हैं और वह पागलपन है - अपने प्रतिबिम्ब की खोज। जब कभी हम कोई नया रिश्ता बनाते हैं अथवा जो मौजूदा रिश्ते हैं, उनमें भी हम प्रतिबिम्बात्मक तरीक़ों से ही व्यवहृत करने या होने की कोशिश करते रहते हैं। हमारी सारी ऊर्जा केवल इसी में खर्च होती है कि सामने वाला हमसे वैसा ही व्यवहार करे, जैसा हम चाहते हैं, वही काम करे, जिसकी हम आशा लगाए बैठे हैं, ठीक उसी प्रकार का प्रेम करे, जैसे कि हमें उम्मीद है। उसके लिए भले ही बदले में हम स्वयं कुछ भी नहीं करना चाहते। वस्तुतः हम अपनी अपेक्षाओं की एक लिस्ट बना लेते हैं और फिर यह अपेक्षा करते हैं कि सामने वाला उस पर पूर्णत: खरा उतरे। इसका एक ही अर्थ है कि हम सामने वाले में उसको कभी तलाश नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि उसमें ख़ुद को आरोपित करने की लगातार कोशिश करते रहते हैं। यह आरोपण इतना सघन और तीव्र होता है कि हमें सामने वाले में एक समय के बाद केवल और केवल कमियॉं ही दिखाई देने लगती हैं। कारण स्‍पष्‍ट ही है, कि ‘वह', ‘हम’ नहीं है, ‘वह’, ‘हम’ कभी हो भी नहीं सकता।
जिन लोगों ने यथार्थ सत्‍य की खोज में अपना जीवन खपाया है, वे अक्‍सर यह कहते पाए जाते हैं कि आत्‍म-साक्षात्‍कार के बिना, जीवन के सत्‍य को जाना नहीं जा सकता। यह बात शास्‍त्रोक्‍त भी है। मगर हम लगातार अपने-आपसे भागते-फिरते रहते हैं। हमारे सारे उद्योग स्‍वयं को स्‍वयं से दूर करने के उपाय-भर हैं। हमारे सारे क्रियाकलाप केवल इसी की कोशिशों में व्‍यर्थ हो रहे हैं कि हम किस प्रकार अपने आप से दूर चले जाएं। हम स्‍वयं के साथ कोई समय नहीं बिताना चाहते। हम एकांत-रिपु बन चुके हैं। हम एकांत में किसी ‘अध्‍यात्मिकता’ का अनुभव नहीं करते, वरन् उसमें भी अपना ‘अकेलापन’ और ‘आत्‍मदैन्‍य’ ढूँढ लेते हैं। हम एकांत के कलरव, उसकी मौन-वाणी को सुनना ही नहीं चाहते। हमने मौन की नि:स्‍तब्‍धता पर भी शब्‍दों का आरोपण कर दिया है। हम मौन में भी मुखर होते हैं और कदाचित् मौन में ही हम सर्वाधिक वार्तालाप करते हैं, वह भी एकालाप नहीं होता, वहॉं पर भी किसी न किसी की उपस्थिति होती ही है।

ख़ामोशी ख़ुद अपनी सदा हो, ऐसा भी हो सकता है,
सन्‍नाटा ही गूँज रहा हो, ऐसा भी हो सकता है।

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-ज़का सिद्दीक़ी

एकांत आपके लिए तभी सहायक है, जब कि अंतर्मन से उपजा हो, जो भावपूर्ण हो और हमारे तो सारे के सारे उद्यम बाह्य और अभावपूर्णता की ओर ही अग्रसर हैं। हमारी सारी यात्राएं बाहर की हैं। हमारे अंदर क्‍या चल रहा है, इससे हमें अब कोई मतलब ही नहीं रह गया है। जब कभी हमारे पास थोड़ा समय होता भी है, तो उसे हम ‘सकारात्‍मक चिंतन’ के बजाय ‘नकारात्‍मक चिंता’ करने में लगा देते हैं, या फिर मोबाइल, टीवी, अख़बार, मैगजीन आदि लेकर मनोरंजन के नाम पर स्‍वयं से दूर होने का कोई उपाय ढूँढ लेते हैं।
जब हमें स्‍वयं को ही खोजना है, तो फिर उसके लिए किसी दूसरे का अवलम्‍बन हमें क्‍यों चाहिए। हम तो हमीं में ही प्राप्‍त हो सकते हैं और कहीं पर ढूँढना तो अज्ञानता होगी, मूढ़ता ही होगी। यह तो ठीक वैसा ही हुआ कि आप अपनी नज़र के चश्‍मे को अपने ही सिर पर लगा लें और फिर उसे घर-भर में ढूँढते फिरें। हम सब के सिरों पर यही चश्‍मा लगा हुआ है, तभी हम अपने आपको कभी किसी प्रेयसी में, कभी पत्‍नी में, कभी बच्‍चों में, तो कभी यार-दोस्‍तों में लगातार ढूँढते रहते हैं। जिस क्षण, आपकी नज़र, अपने ऊपर लगे हुए चश्‍मे पर जाएगी, उसी क्षण आपकी बाहरी यात्रा रुक जाएगी और संभवत: आंतरिक यात्रा प्रारंभ हो जाएगी।

दुर्गेश कुमार ‘शाद'
इन्‍दौर

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