वो बचपन के झगड़े
हम अपनी कनिष्ठा उँगली (कानी उँगली) को दिखाकर कट्टी होते थे, और मेल होते समय तर्जनी उँगली को दिखाते थे। कनिष्ठा और तर्जनी उँगली ही हमारे बचपन के झगड़ों का संसार था। मैं पाँचवी या छठी क्लास में पढ़ती होऊँगी, उस समय मेरी एक प्रिय सहेली थी जिसका नाम था ललिता। ललिता दक्षिण भारत की थी इसलिए हम सभी उसे मद्रासी ललिता कहकर बुलाते थे। ललिता और हम में बहुत अच्छी दोस्ती थी। ललिता पतरातू के छोटका डेम के तरफ रहती थी। अक्सर मिडिल स्कूल से आते समय वह मेरे अठारह रोड नंबर पार कर अपने घर जाया करती थी।

बचपन के झगड़े दुनिया के सबसे निराले खेल होते हैं। बचपन के झगड़े ऐसे खेल हैं जिसके न ही कोई नियम हैं, न ही कानून है, न ही कोई रेफरी है और न ही इसमें कोई जीत हार होती है। बचपन के झगड़ों की मासूमियत से भरी अपनी दुनिया होती है। मेरा बचपन झारखंड के पतरातू नामक एक छोटे से कस्बे में बीता। आज भी मुझे पतरातू का वह मिडिल स्कूल के दिन याद है जहाँ मैं सहेलियों के साथ खेलती थी, हँसती और रोती थी, झगड़ती थी, कभी कट्टी होती थी तो कभी मेल हो जाती थी। हम अपनी कनिष्ठा उँगली (कानी उँगली) को दिखाकर कट्टी होते थे, और मेल होते समय तर्जनी उँगली को दिखाते थे। कनिष्ठा और तर्जनी उँगली ही हमारे बचपन के झगड़ों का संसार था।
मैं पाँचवी या छठी क्लास में पढ़ती होऊँगी, उस समय मेरी एक प्रिय सहेली थी जिसका नाम था ललिता। ललिता दक्षिण भारत की थी इसलिए हम सभी उसे मद्रासी ललिता कहकर बुलाते थे। ललिता और हम में बहुत अच्छी दोस्ती थी। ललिता पतरातू के छोटका डेम के तरफ रहती थी। अक्सर मिडिल स्कूल से आते समय वह मेरे अठारह रोड नंबर पार कर अपने घर जाया करती थी। हम दोनों गुड्डे गुड़िया बनाकर ब्याह रचाने का खेल खेला करते थे। ललिता बचपन से ही शास्त्रीय नृत्य सीखा करती थी। आज भी उसकी नृत्य करती हुई एक तस्वीर मेरे पास है। हम लोग बात-बात पर कट्टी होते थे और फिर अति शीघ्र मेल भी हो जाते थे। एक बार ऐसा हुआ कि किसी कारण पर जब हम कट्टी हो गए तो हमें मेल होने का मौका ही नहीं मिला। हुआ यह कि कट्टी होने के बाद हमारी बातचीत बिल्कुल बंद हो गई थी। एक दिन मैं एक छोटी सी चिट्ठी ललिता को लिखी, `ललिता, तुम मुझसे मेल कब होगी?' और इस चिट्ठी को मैं ललिता के ऊपर फेंकी। उस समय गणित के मिथिलेश सर क्लास ले रहे थे। मिथिलेश सर बहुत कड़क स्वभाव के थे और दंड भी खूब दिया करते थे।
उन्होंने मेरी चिट्ठी को पकड़ लिया। ललिता का तो इसमें कोई दोष नहीं था इसलिए उसे कुछ भी सजा नहीं मिली लेकिन सर ने मेरी तो अच्छी खासी मरम्मत की। उसके बाद मै ललिता से और गुस्सा हो गई, मुझे इस बात का दुख था कि ललिता आखिर मेरे लिए कुछ बोली क्यों नहीं। ललिता और मेरी दूरियाँ अब और बढ़ गई थी। इस तरह कब तीन-चार महीने निकल गए हमें पता ही नहीं चला। हम अलग-अलग सीट पर बैठते थे, अलग-अलग घर जाते थे, हममें बातचीत तो बिल्कुल बंद थी। मेरी एक और सहेली थी जिसका नाम था नीलम नाग। एक दिन नीलम नाग मुझसे बोली, `मनोरमा तुम ललिता से मेल हो जाओ, ललिता हमेशा के लिए मद्रास जा रही है।' मैं बोली, `ठीक है, सोमवार को ललिता से मैं मेल हो जाऊँगी।' ललिता सोमवार से बृहस्पतिवार तक विद्यालय नहीं आई। नीलम बोली, `ललिता शुक्रवार को सबसे मिलने के लिए आ रही है और वो भी तुमसे मेल होना चाहती है।' मैं बोली, `ठीक है, कल शुक्रवार को हम दोनों मेल हो जाएंगे।' लेकिन शुक्रवार के सुबह से ही मुझे तेज बुखार के कारण उल्टियाँ होने लगी। मैं शुक्रवार और शनिवार दोनों दिन विद्यालय नहीं जा पाई। उधर ललिता सोची कि मुझे मेल नहीं होना है इसलिए मैं विद्यालय नहीं आई। फोन का तो जमाना नहीं था। ललिता एक गलतफहमी के साथ सदा के लिए मुझसे दूर हो गई। वो अब कहाँ है, कैसी है, मुझे कुछ भी नहीं मालूम है। उसकी तस्वीर को जब भी एल्बम में देखती हूँ तो अपने झगड़े पर मुस्कुरा उठती हूँ और उससे एक बार मिलने की इच्छा भी होती है। पता नहीं अब कभी ललिता से मिल पाऊँगी कि नहीं, लेकिन ललिता से हुआ वो बचपन के झगड़े को मैं कभी नहीं भूल पाती हूँ। आज भी उस झगड़े का कारण मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं ललिता को कभी भूल नहीं पाती हूँ।
मनोरमा शर्मा मनु
हैदराबाद , तेलंगाना
What's Your Reaction?






