पतझड़

Sep 23, 2024 - 23:17
Oct 13, 2024 - 18:18
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पतझड़
पतझड़

 भाग १— 

पतझड़ का मौसम था । आसमान में लालिमा घिरी हुई थी । मैं धीरे धीरे धुंधले चित्रों की सीढियां चढ़ रही थी, बीते कल और आगामी कल को कोसती और मंथन करती मैं — लम्हों में , लब्जो में और यादों में एक व्यक्ति को खोज रही थी — जो पत्तो जैसे अपनी डाल छोड़ धरती का हो गया।

बात कुछ सालों पहले की है । सावन के दिनो मे कानपुर की सड़के गजब ढा रही थी।

बचपने का बहुत बड़ा हिस्सा — भारत के हर  कोने में  बिताने के बाद भी — भीतर एक खालीपन था , दोस्त थे नहीं । क्यों ? पापा  उन दिनों डिफेंस में कार्यरत थे,  अक्सर ट्रांसफर लगा रहता था ।

जितने दिनो में जान पहचान होती , किसी और शहर जाने का आदेश आ जाता

हम सबको इसकी आदत थी।

जब पिता जी सेवा निवृत हुए तो गांव और रिश्तेदारों के पास कानपुर में ही रहने का फैसला किया । बहुत समय पहले ही  घर बन के तैयार हो गया था , परंतु सौंदरीकरण रहते रहते हुआ । खैर , सिर्फ जगह नहीं तौर तरीके भी अलग थे ।

एक स्कूल में मेरा एडमिशन करवाया गया । सरकारी स्कूल था , लोग अनजान थे । कई सालो में कुछ दोस्त बने । 

पर अकेलापन मानो बढ़ता जा रहा था । आसपास जब दोस्तो को अपने प्रेमिका और प्रेमियों के साथ देखा तो हृदय बोल उठा की ये निजात है तेरे कष्ट का । कहते है है ना "विनाशकाय विपरीत बुद्धि" ।

तब तक इंस्टाग्राम इत्यादि का ट्रेंड था , फेसबुक बुड्ढों का अड्डा था । हमने इंस्टाग्राम आईडी बना ली नाम रखा " लॉजिकल लेडी" । कई मित्रो ने फॉलो किया। कुछ अजीब लोगो ने भी रिक्वेस्ट भेजी , उन्हें इग्नोर कर दिया। एक अनजान व्यक्ति की रिक्वेस्ट थी — प्रोफाइल देखने पे कुछ जाना पहचाना सा लगा तो मैंने उसे एक्सेप्ट कर लिया ।

दो दिन बाद एक मैसेज आया ।

" हाय  वान्या , थिस इस अगस्त्य . हाउ आर यू?"

उस मैसेज को एक बार देखा , दो बार देखा । सोचा कि रिप्लाई किया जाए की नहीं , एक समझदार इंसान की तरह हमने उनकी प्रोफ़ाइल फ़ोटो देखी। देखने में तो मस्त था। हल्की सी मुस्कान लिए हमे भी लिख दिया ।

" हेलो अगस्त्य , आई एम गुड । क्या मैं आपको पहले से जानती हू? "

शायद वो ऑनलाइन ही थे , उन्होंने तुरंत देखा और बोला " नहीं शायद , अभी तो नहीं। पर आपकी आवाज़ बड़ी सुरमई है — एकदम जानी पहचानी सी" 

थोड़ी देर तक तो मुझे समझ नहीं आया की उन्होंने आवाज़ सुनी कहां । बहुत ध्यान करने पर याद आया की कुछ समय पहले मित्रों संग गाना गाते स्टोरी लगाई थी  , शायद वो हाइलाइट्स पर देखा होगा ।

हमने एक स्माइलिंग इमोजी भेज दिया ।

धीरे धीरे और बातें हुई  , उस दिन हमे जाहिर है ज्यादा नहीं पता चला , वही सर्फेस लेवल चीज़ें । वो भी कानपुर के थे । हमसे उम्र में कुछ बड़े थे — दो या तीन वर्ष । 

अगले दिन फिर उनका मैसेज आया — रात में हमने कोई फिलोस्फिकल रील डाली थी , उसपे उन्होंने ने एक सवाल से शुरू किया । 

कई घंटों तक तर्क वितर्क किया। कोई छोर न मिलने पर बात बदल कर — एक दूसरे के बारे में जानने की कोशिश की ।

ऐसे ही कुछ महीनों में वो अच्छे दोस्त बन गए , रोज बातें करते — हर एक बात शेयर करते । 

अब तक नंबर एक्सचेंज हो चुके थे।

कभी कभी कॉल हो जाती थी ।

अगस्त्य भी डिफेंस बैकग्राऊं की फैमिली से आता था । दोनो कई चीजों पे बॉन्ड करते थे ।

एक दिन दोनों से मिलने का प्लान बनाया

मिलना शाम को था , कारगिल पार्क पास था , वही जाना था । 

वान्या अपने अलमीरा से सबसे बढ़िया कुर्ता निकाल कर उसे दुरुस्त कर लेती है, क्यों न करती आखिर बात अगस्त्य की थी।

गुलाबी कुर्ते में वो बहुत झच रही थी , शहर में हो रहे कौतूहल में निगाहें उसे मुड़ मुड़ के निहार रही थी ।

ठीक  छह बजे अगस्त्य भी उसे एंट्री गेट के सामने मिला । 

दोनो ने एक प्यारी सी मुस्कान दी और उसी ऊर्जा से एक दूसरे को एक पीट पर थपथपाते हुए गले लगाया , एक अज़ीज़ मित्र के भाती। 

उसने वान्या को एक फूलों का गुलदस्ता दिया । उसमे वान्या के सारे पसंदीदा फूल थे । 

उसे याद था — कभी शायद बातों बातों में उसने अगस्त्य से अपनी पसंद का जिक्र किया था ।

लगभग ऐसे ही  कुछ बातें और सैर करने के बाद — धीरे से वान्या ने बोल 

" सुनो अगस्त्य , आई वॉट टू तेल यू समथिंग, असल मैं जानती हूं की तुम मेरे बहुत अच्छे मित्र हो , और उसकी में प्रशंसा करती हूं । पर कुछ दिनों से — आई एम फीलिंग फॉर यू।  आई लव यू ।" 

ये बोलते ही मानो वान्या के  भीतर एक अजीब सी शांति छा गई , परंतु उस शांति के साथ एक बहुत अजीब सी बेचैनी थी — बेचैनी की अगस्त्य क्या बोलेगा । क्या वो दोस्ती भी तोड़ देगा ? क्या सब खत्म हो जाएगा।

वो अपने ख्यालों में इतना खो गई थी की उसे आस पास की सूद बुध नही रह गई थी ।

अगस्त्य ने एक हल्की सी आवाज में उसके ध्यान को तोड़ते हुए बोला — " वान्या ... यार .. आई वांटेड टू टेल यू थिस सींस लॉन्ग, आई लव यू टू" 

ये सुनते ही दोनों हस पड़े । हसीं ने उनके बीच की सारी झिझक , सारे फसलों को ख़त्म कर दिया। 

दोनों अच्छे मित्र तो थे ही , अब दोनो हमसफर भी बन गए थे ।

उस मुलाकात के बाद वो कई बार मिले , कई जगहें घूमी , कई यादें बनाई । 

बातों का सिलसिला तेज हो चला — कभी वान्या बड़ा बनके उसे अपना ध्यान न रखने पे डांटती कभी बच्ची बन के अजीब हरकते करती ।

आज उन्हें साथ आए एक साल हो गया था ।

हर गुजरते दिन के साथ , प्रेम बढ़ता जा रहा था ।

 अगस्त्य का स्कूल खत्म हो चुका था और आगे के पढ़ाई के लिए उसने शहर की चौखट छोड़ी — वो दिल्ली शिफ्ट हो गया ।

वहा के प्रसिद्ध दिल्ली यूनिवर्सिटी के दीन दयाल उपाध्याय कॉलेज में उसे फिजिक्स ऑनर्स में दाखिला मिला था ।

वान्या उसे आखिरी बार छोड़ने स्टेशन गई , दोनो से घरवालों से छुप कर आखिरी बार एक दूसरे को गले से लगाया ।

वान्या ने खुद से वादा किया की वो भी मेहनत करके दिल्ली जाएगी।

पहले कुछ महीने मुश्किल थे , दोनों दूर नहीं रह पा रहे थे । रोज़ वीडियो कॉलिंग करते कभी कभी तो वो कॉल पे ही रो देते ।

वक्त बीतता गया, दोनों को आदत हो गई । 

अब तो बातें भी कम हो गई। वान्या जानती थी की कॉलेज में बिजी होने के कारण वो उसे इतना समय नहीं दे पा रहा था । बात सही भी थी — अगस्त्य के ऊपर एसिगमेंट का पहाड़ था , प्रैक्टिकल और दिल्ली यूनिवर्सिटी की जान उसके फेस्ट ।

इन सब के बावजूद दोनों में प्रेम बना हुआ था , जब वो कानपुर आता तो उससे ज़रूर मिलता । उसे पता था कि वान्या को पायल और अंगोठिया पसंद थी — सरोजनी नगर की बाजार से वो उसके लिए रंग बिरंगी रिंग्स लाना कभी नहीं भूलता ।

एक साल और बीत गया । यूं तो दोनो में दो से तीन साल का फर्क था पर दोनो स्कूल में सिर्फ एक दर्जे के अंतर में थे ।

 बारहवीं खत्म हुई, वान्या ने कॉलेज के एंट्रेंस दिए । प्रेम की दीवानगी उसपे यूं सवार थी की एक एवरेज स्टूडेंट होने के बावजूद उसने परिक्षा बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की । 

अब तो दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडमिशन पक्का था ।

उसके फूले न समाए — खुशी इस कदर थी की — दोस्तो में दुखी आत्मा नाम से जाने जानी वाली लड़की के चेहरे से मुस्कान जा ही नहीं रही थी । मानो वसंत की बहार आई हो — हवा के झोको से फूल लहरा रहे हो — और वातावरण में एक अजीब सी खुशनुमा गंध हो ।

दिल्ली जाने का दिन आया , उसने अगस्त्य को अगले दिन एक कैफे में मिलने को बुलाया । अगस्त्य ने प्रैक्टिकल एग्जाम का बहाना बना के उसे टाल दिया। एक समझदार व्यक्ति जैसे वान्या मान गई ।

पर अगले एक महीने तक कई बार बोलने पर भी , वो कोई न कोई बहाना बना देता — " समझो यार दोस्तो के साथ जाना है " और वो समझ जाती , एक बार भी सवाल नही करती । 

 उनके वक्तय में भी कुछ रूखा पन दिखने लगा था ।

वान्या समझती थी की कॉलेज का प्रेशर और जीवन की दौड़ में फसा होगा ।

वान्या को दिल्ली में आए काफी समय हो चला था । हॉस्टल मेट्स से अच्छी जान पहचान हो चली थी । सबने मिलकर दिल्ली की बाज़ार घूमने का तय किया । 

तय दिन सब सरोजनी से कनॉट गए । 

सरोजनी अपने में एक रहस्य है — दुनिया की हर छोटी बड़ी वस्तु वहा मिलती है। लड़कियों का दिल मलचलना लाजमी था । 

हजारों की गिनती में पैसे उड़ा के सबने एक कैफे में जाने का सोचा ( जवानी का ख़ून कहां पैसे की कीमत समझता है) 

वो जगह बहुत फैंसी थी । दोस्तो के ग्रुप्स, कपल्स सब थे वहा । 

ये लोग भी जगह देख कर बैठ गए और मेनू देखने लगे , तभी वान्या को नजर एक जाने पहचाने चेहरे पर गई ।

उनसे दो चेयर आगे अगस्त्य बैठा था , किसी लड़की के साथ, दोनो बात कर रहे थे , फिर आहिस्ता से उसने उस लड़की के बालों को बड़ी नज़ाकत से उसके कानो को पीछे फसाया । वान्या को कुछ समझ नही आ रहा था की वो करे क्या — उसके भीतर गुस्सा था , दर्द था जो भी था असहनीय था।

उसने अगस्त्य को कॉल किया और उससे पूछा वो कहां है — " अरे यार मैं अभी कॉलेज में हूं"

वान्या वहां से बिना एक शब्द बोले उठ के चली गई , उसकी सारी सेहलियां उसे निहारती रही

लोगों से खचाखच भरे रास्ते भी अब उसे सुनसान लग रहे थे । एक अजीब सा कालापन था माहौल में ।

रूम में पहुंच कर वो बिस्तर पे गिर गई । 

शाम तक आंसू बेला बहती रही। 

मानो कोई यादों का पिटारा सा खुल गया हो । वो खत , वो प्रेम भरी बातें , वो खट्टी मीठी लड़ाईयां , देर शाम की चाय और वो छुअन ।

सब भीतर गम से सुर ताल मिलाते हुए नाच रही थी।

फिर एक घंटी बजी । एक और । तीसरी बार में वान्या को होश आया , उसकी आंखें नेत्र गंगा की धारा से धुंधली हो चुकी थी , तो उसने बिना नाम देखे फोन उठा लिया ।

सामने से आवाज़ आई ।

" हाय यार — कैसी हो तुम ? सारी मैं कॉलेज में बिजी था । कैन वी मीट नाउ? "

सेहन शक्ति का बांध टूट चुका था , आक्रोश में वान्या बोली — " बहुत हो गया अगस्त्य , मैं सब जानती हूं , मैं जानती हूं तुम कहा थे " 

अगस्त्य को इसका अंदाजा न था , तो किसी भी सकपकाए व्यक्ति की तरह उसने खुद को बचाना जरूरी समझा ।

" देख लिया तो क्या , वैसे भी मैं तुम्हे बताने वाला था , वी आर नॉट कंपेटिबल। तुम अजीब हो , हमेशा किताब में रहती हूं , मेरे लिए समय ही नहीं देती ! दिन भर कही न कहीं घूमती रहती हो । तुम्हे क्या लगता है मुझे समझ नहीं आता की तुम्हारा किसी के साथ चक्कर चल रहा है ? 

मैं जानता हूं तुम्हे , मैंने भी दुनिया देखी है ।

तुम क्या चाहती हो की में गधों की तरह तुमसे प्यार करता रहूं और एक दिन तुम किसी और के साथ चली जाओ ? हा बोलो? 

मैंने बस वही किया जो तुमने किया ।" 

" बाय, हैव अ नाइस लाइफ " 

बस इतना बोले वान्या ने फोन काट दिया और उसका नंबर ब्लॉक कर दिया। दोनो जानते थे की ये अंत है ।  

उसने नहीं सोचा था की कभी इस प्रकार सब खत्म हो जाएगा और उसके ऊपर ही सारा दोष डाल दिया जाएगा ।

उसका रोम रोम नफ़रत से भरा था — बस फर्क ये था की अगस्त्य और वो दोनो एक ही व्यक्ति से नफरत करते थे — जो वान्या थी ।

अजीब से असमंजस में था दिमाग — सच और झूठ में फर्क समझ नहीं आ रहा था ।

बीते कल में जो हुआ वो सच था जो आज हुआ वो ? 

प्रेम था भी या इतने सालो तक सिर्फ ढोंग ।

वान्या के नेत्रों ने उस दिन न जाने कितनी नमकीन धाराओं में अपने ख्वाबों की आहुति दी । सब खत्म था । सवाल थे, पर जवाब नहीं, शायद इन सवालों के साथ उसे अपनी पूरी जिंदगी जीनी थी।

................

 समय का पाहिया घुमा, कई सालो बाद — वान्या को फेसबुक पर किसी फ्रेंड के पोस्ट में, अगस्त्य के विवाह की तस्वीरें दिखती है । वो एक हल्की सी मुस्कान के साथ उसे लाइक करके , फोन मेज़ पर रख देती है । सामने पड़ी डायरी उठती है और छत पे जा कर उसमे आग लगा देती है । जैसे जैसे वो डायरी जलती है , मानो उसके ऊपर से सारा बोझ कम होता जाता है , उसे आज़ादी महसूस होती है । 

तभी हवा के झोेके से एक पत्ता उसके गुलाबी कुर्ते कढ़ाई से आ कर चिपक जाता है । मालूम होता है, फिर से पतझड़ आ गया है ।

~ कृतिका सिंह ।✨

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