होती रही रात-भर रिमझिम
असह्य इंतजार के बाद मेघ जब बरसे
मेरे मन के घर ऑंगन में, होती रही रात-भर रिमझिम।
खुशियों को मेरे तन-मन में, बोती रही रात-भर रिमझिम।
घोर निराशा का आलम था
छाया इस जीवन में गम था
पता नहीं क्या होगा आगे
मन के संशय से मातम था
सोच-सोच कर हार गए थे
सोच-समझ का डेरा कम था
आशाओं की चादर ओढ़े, सोती रही रात-भर रिमझिम।
खुशियों को मेरे तन-मन में, बोती रही रात-भर रिमझिम।
सूख रहे थे नदी किनारे
वट पादप जीवन से हारे
मुरझा कर धरती ऑंचल में
छुपे हुए थे चटख नज़ारे
निरख निरख मन त्रषित धरा को
नभ में रोने लगे सितारे
तन-मन की ढेरों आकांक्षा, ढो़ती रही रात-भर रिमझिम
खुशियों को मेरे तन-मन में, बोती रही रात-भर रिमझिम।
मेघों ने डाला है डेरा
पागल मन खोया है मेरा
टपक रही मधु की बूंदों का
बना हुआ है यह दिल चेरा
श्यामल छवि वाले काले घन
लगा रहे अंबर का फेरा
चंचल चपला के हिय लगकर, रोती रही रात-भर रिमझिम।
खुशियों को मेरे तन-मन में, बोती रही रात-भर रिमझिम।
वसुधा पर हरियाली छाई
विरहिन पिय से मिल हर्षाई
विरह वेदना भूल श्यामला
लेने लगी मृदुल ॲंगडाई
तन-मन की तड़़पन को भूली
तप्त हृदय की व्यथा भुलाई
यौवन के मधुरिम सपनों में, खोती रही रात-भर रिमझिम।
खुशियों को मेरे तन-मन में, बोती रही रात-भर रिमझिम।
महेश चंद्र शर्मा *राज*
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