सनातन संस्कृति का जयघोष करने वाले हमारे देश भारत में तीज -त्योहार का अपना महत्व है , भारत भूमि को उत्सवधर्मी कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। पर्व हमारी अनंत आस्था के सुदीर्घ आयाम हैं जो सद्भावना, स्नेह एवं संपन्नता का संदेश देते हैं, धर्मप्रेमी जनता अत्यंत हर्ष एवं उल्लास के वातावरण में सदियों से त्योहार मनाती आ रही है परन्तु वर्तमान परिवेश में लोक आस्था के प्रतीक हमारे पर्व, औपचारिकता एवं दिखावे के सूचक बनते जा रहे हैं जिसका प्रमुख कारण वैश्वीकरण से उपजी व्यवसायिक प्रवृत्ति है जिसने त्योहारों को भी धनी एवं निर्धन वर्ग में विभाजित कर दिया है, हमारी उत्सवधर्मिता अब हमारे आर्थिक पक्ष पर निर्भर करने लगी है जिसने बाज़ारों एवं उद्योगों को तो समृद्ध किया है परन्तु हमारे नैतिक मूल्यों एवं सांस्कृतिक वैभव पर कुठाराघात किया है रक्षाबंधन, दशहरे, दीपावली एवं ईद जैसे पर्व के पूर्व तरह तरह के आकर्षक विज्ञापन, महंगी एवं विलासिता वाली वस्तुओं का ऐसा गुणगान करते हैं कि धन कुबेरों की असीम अनुकम्पा बाज़ारों में, पांच सितारा होटलों में, इम्पोर्टेड कारों के शोरूम्स में हो जाती है, धनवान वर्ग त्योहारों पर महंगी वस्तुओं से अपने घरों को तो गुलज़ार कर लेते हैं लेकिन वो यह तनिक भी विचार नहीं करते कि सर्वहारा वर्ग की दीपावली कैसी होगी? क्या उनके बच्चों को नवीन परिधान एवं मिष्ठान्न नसीब हो सकेंगे? क्या श्रमिक एवं मध्यमवर्गीय अपनी आशानुरूप त्योहार मना सकेंगे? त्योहारों के व्यवसायीकरण ने उत्सवों को धनी -संपन्न लोगों की बपौती बना दिया है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने देश के आर्थिक पक्ष को तो सबल किया है परन्तु हमारी सभ्यता एवं मितव्ययी विचारधारा को भी आघात पहुँचाया है। हमारे पर्व, धनी -निर्धन की सीमाओं से परे हैं, त्योहार अपनी आर्थिक क्षमता एवं सामर्थ्य के अनुसार मनाना ही न्यायोचित है दिखावे की आँधी, सुकून के आशियाने से सुख, समृद्धि एवं सम्मान कब उड़ाकर ले जायेगी, यह पता भी नहीं चलेगा ।
त्योहारों के व्यवसायीकरण ने अरबों रूपये का व्यापार करने वाले बाज़ार को तो लाभ से फलित किया है परन्तु आधुनिकता के अंधानुकरण ने न जाने कितनों को उत्सव के उल्लास से दूर कर्ज़ के कीचड़ में धँसने पर विवश कर दिया है
कैसी विडंबना है कि अधिक धन खर्च करके ही उत्सव का अनंत आनंद लिया जा सकता है परन्तु सीमित खर्च में भी त्यौहार मनाया जा सकता है, सीमित संसाधनों के साथ अपनों के स्नेहसिक्त सहयोग से उत्सव की रंगत, महोत्सव में परिवर्तित हो सकती है। पूजन से पूर्व महंगे आभूषण, कारें ; आलीशान बंगलों की साज सज्जा ही माँ लक्ष्मी को रिझा सकती है, इनके बिना हमारे देवी देवता हमें अपनी कृपा से वंचित रखेंगे.... शायद इसका उत्तर है नहीं क्योंकि गरीब की कुटिया में आभूषण भले ही न हो, अगाध आस्था एवं असीम ईश्वरीय श्रद्धा होगी तो प्रभु कृपा का अमृत वहीं बरसेगा...
पाश्चात्य संस्कृति से उपजा वैश्वीकरण का दानव हमारी वास्तविकता, संस्कारशीलता एवं नैतिकता को असमय ही लील जायेगा । त्योहारों के दौरान तेज़ी से बढ़ती व्यवसायिक दौड़, हमारी नैतिकता का अवमूल्यन कर रही है। पहले त्योहारों में पारम्परिक मिठाई का उपयोग होता था आज विदेशी महंगे चॉकलेट एवं कुकिज़ रईसों की डाइनिंग की शोभा बढ़ाते हैं... त्योहारों में निरंतर बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमें एक नकली पहचान के साथ आभासी दुनिया में रहने पर विवश कर दिया है जहाँ हम पर्व भी दूसरों से स्वयं को श्रेष्ठ एवं अमीर सिद्ध करने के लिए मना रहे हैं,इस बात पर चिंतन की आवश्यकता है क्योंकि आस्था का एक सुरभित पुष्प भी मूल्यवान स्वर्णमाला से सौ गुना श्रेष्ठ होता है.....