घरेलू हिंसा और पुरूषों के अधिकार

घरेलू हिंसा के मामलों में यह आम धारणा है कि इसका शिकार महिलाएं ही होती हैं और इस संबंध में शिकायत भी आम तौर पर महिलाओं के द्वारा ही दर्ज की जाती है। किंतु यह गौरतलब है कि पुरूष भी घरेलू हिंसा का मामला दर्ज कर सकते हैं।

Apr 9, 2025 - 10:56
Apr 9, 2025 - 11:00
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घरेलू हिंसा और पुरूषों के अधिकार
Domestic violence and men's rights

  घरेलू हिंसा का उल्लेख आते ही हमारे दिमाग में महिलाओं की बात आती है किंतु यह कतई जरूरी नहीं कि इस तरह की घटनाएँ केवल और केवल महिलाओं तक ही सीमित हों इसके उलट ऐसे मामले भी अक्सर सामने आ जाते हैं जहाँ यह देखने को मिलता है कि पुरूष भी इसका शिकार होते हैं। समाज में यह आम धारणा बनी है कि पुरूष या पति कभी घरेलू हिंसा का शिकार नहीं हो सकता। यह भी आम धारणा है कि घरेलू हिंसा जैसे शब्द केवल महिलाओं के साथ जुड़े होते हैं। किंतु यह सही नहीं है और वर्तमान में इस धारणा से विचलन देखने को मिल रहा है। कम से कम आँकड़े तो इस बात पुष्टि करते ही हैं कि घरेलू हिंसा का शिकार केवल महिलाएँ ही नहीं बल्कि पुरूष भी हो सकते हैं, बल्कि हो रहे हैं। वे पत्नियों से खुद को बचाने के लिए महिला हेल्पलाइन पर कॉल कर गुहार लगा रहे हैं। इन आँकड़ों से यह स्पष्ट पता चल रहा है कि इस तरह के मामलों में निरंतर वृद्धि हो रही है। और इस सब कवायद के पीछे पुरूषों के लिए सबसे बड़ी समस्या यह है कि न तो उनकी शिकायतों का कहीं निपटारा हो रहा है और न ही समाज इसे स्वीकार ही कर रहा है। घरेलू हिंसा से परेशान होकर पुरूष कई बार आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए भी बाध्य हो जाते हैं। वहीं महिलाओं के पास कानून का सहारा है जिसका दुरूपयोग भी बढ़ रहा है। स्थिति छोटे शहरों में अधिक गंभीर है क्योंकि वहाँ पुरूषों को अपनी बात रखने के लिए कोई मौका तक नहीं मिलता है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने घरेलू हिंसा के मामलों में पुरूषों की स्थितियों को देखते हुए एक टिप्पणी की थी कि महिलाएँ दहेज विरोधी कानून का दुरूपयोग कर रही हैं और सरकार को इस कानून पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। न्यायलय ने आई पी सी की धारा 498ए के तहत दर्ज किए जाने वाले मामलों की बढ़ती संख्या के मद्देनज़र यह बात कही थी। साथ ही न्यायलय ने यह निदेश भी दिया था कि पुरूषों की प्राथमिकी भी दर्ज की जाए। इससे पहले धारणा यह थी कि घरेलू हिंसा केवल महिलाओं के साथ ही होती है और इसमें हिंसा करने वाला पुरूष होता है। किंतु अब यह समय आ गया है जब हमें यह मान लेना चाहिए कि लिंगवाद की शिकार केवल महिलाएँ हीं नहीं होती बल्कि पुरूष भी होते हैं।

महत्वपूर्ण बात यह है कि घरेलू हिंसा से संबंधित कानून महिलाओं पर होने वाली प्रताड़ना का उन्मूलन करने के उद्देश्य से ही अस्तित्व में आया और इसी के मद्देनजर उन्हें सुरक्षा प्रदान की गई थी जिसके तहत वे अपने खिलाफ होने वाली शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना के विरूद्ध थाने में अपनी शिकायत दर्ज करा सकती है। यह कानून पत्नी के ख़िलाफ़ क्रूरता और दहेज से जुड़े मामलों में सुरक्षा प्रदान करता है। उक्त धारा के तहत पत्नी को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करना, पत्नी को गंभीर शारीरिक या मानसिक क्षति पहुंचाना, पत्नी या उसके रिश्तेदारों से संपत्ति की अवैध मांग पूरी करने के लिए उत्पीड़न करना अपराध के दायरे में आता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए जैसा प्रावधान ही अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85 व 86 में किया गया है। बी एन एस, 2023 की धारा 85 और 86 को आई पी सी की धारा 498 ए और उसके स्पष्टीकरण के रूप में शामिल किया गया है। भारतीय न्याय संहिता की धारा 86 में क्रूरता की परिभाषा को विस्तारित किया गया है जिसमें ऐसे आचरण को शामिल किया गया है जो संभावित रूप से किसी महिला को आत्महत्या की ओर ले जा सकता है या गंभीर चोट पहुँचा सकता है। धारा 85 में ऐसी क्रूरता करने वालों के लिए सजा की रूपरेखा दी गई है जिसमें तीन साल तक की कैद और जुर्माना लगाया जाना शामिल है। उक्त धारा के तहत पुलिस बिना किसी वारंट के गिरफ्तारी कर सकती है और इसके साथ ही इसमें समझौते की अनुमति नहीं है। हालाँकि यह धारा महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने का एक साधन है किंतु कई बार इसके दुरूपयोग के मामले भी सामने आए हैं। हाल ही में अतुल सुभाष द्वारा की गई आत्महत्या ने इस बहस को फिर छेड़ दिया है कि महिलाओं द्वारा पुरूषों के खिलाफ इस धारा का दुरूपयोग कैसे रोका जाए। उच्चतम न्यायलय ने भी इस संबंध में यह निदेश दिया है कि जाँच और गिरफ्तारी के दौरान अतिरिक्त सतर्कता बरती जाए। न्यायालय पहले भी अलग अलग मामलों में इसके दुरूपयोग को लेकर चेतावनी दे चुके हैं। कानून के दुरूपयोग से वास्तविक पीड़ितों के लिए न्याय पाना कठिन हो जाता है साथ ही यह वैवाहिक विवादों को और जटिल बना देता है।

पुरूषों की स्थिति

उक्त धारा के तहत महिलाओं को तो पूरी सुरक्षा मिल जाती है किंतु पुरूषों के लिए अनन्य रूप से ऐसा कोई प्रावधान विधि में नहीं है जिसके तहत वे अपनी शिकायत दर्ज करा सकें या महिलाओं की ओर से अपने खिलाफ हो रहीं हिंसा की गुहार लगा सकें। एन सी आर बी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 90 प्रतिशत आँकड़े यह दर्शाते हैं कि विवाहिक जीवन के प्रथम तीन सालों में कम से कम एक बार पुरूष घरेलू हिंसा का शिकार हो रहे हैं। यह बात भी सच है कि पुरूषों के साथ शारीरिक प्रताड़ना की तुलना में मानसिक प्रताड़ना की घटनाएँ अधिक होती हैं। इस कानून के किसी महिला द्वारा दुरूपयोग किए जाने की स्थिति में, पुरूषों को जब इस प्रकार की स्थिति का सामना करना पड़ता है तो इसका प्रभाव उन पर मानसिक रूप से भी पड़ता है और यह उनके कार्यस्थल से लेकर उनके परिवार तक असर डालता है।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 14 भारत के प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार प्रदान करता है। भारत का संविधान व कानून लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा का अर्थ कदापि पुरूषों के अधिकारों का हनन नहीं है।

घरेलू हिंसा के मामलों में यह आम धारणा है कि इसका शिकार महिलाएं ही होती हैं और इस संबंध में शिकायत भी आम तौर पर महिलाओं के द्वारा ही दर्ज की जाती है। किंतु यह गौरतलब है कि पुरूष भी घरेलू हिंसा का मामला दर्ज कर सकते हैं।

जिस प्रकार कोई भी महिला थाने में जाकर घरेलू हिंसा के विरूद्ध अपनी शिकायत दर्ज करा सकती है उसी प्रकार पुरूषों को भी यह अधिकार प्राप्त है। पुरूषों के लिए अनन्य रूप से किसी प्रावधान की अनुपस्थिति के कारण इस संबंध में कानूनी रूप से वे पत्नी या उसके परिजनों के खिलाफ अनन्य रूप किसी विशिष्ट धारा के तहत तो कोई मुकदमा दायर नहीं कर सकते किंतु यदि वे इस प्रकार का दबाव महसूस करते हैं तो उनके लिए सहज यह होगा कि वे अति सक्रिय रवैया अपनाते हुए पहले अपनी प्राथमिकी नज़दीकी थाने में दर्ज कराएँ। इसका लाभ यह होगा कि यदि भविष्य में उनकी पत्नी या उसके परिवारजनों की ओर से घरेलू हिंसा से संबंधित कोई झूठा मुकदमा दायर किया जाता है तो यह प्राथमिकि पति की ओर से यह सिद्ध करने में उसकी मदद करेगी कि उस पर मानसिक दबाव बनाया जा रहा था। यह प्राथमिकी एक कवच का काम करेगी और उस प्राथमिकी के आधार पर वह तलाक की अर्जी भी लगा सकता है। यह प्राथमिकी अदालत के समक्ष पीड़ित व्यक्ति के पक्ष में साक्ष्य का काम भी करेगी।

वे भी किसी भी थाने में जाकर अपने या अपने परिवारजन के साथ हुई मारपीट की घटना के संबंध में थाने में शिकायत दर्ज करवा सकता है। किसी भी कानून के तहत उन्हें ऐसा करने की मनाही नहीं है। घ्यातव्य है कि इस प्रकार अर्थात् मारपीट के मामले में शिकायत दर्ज कराते समय यह सावधानी बरतने की विशेष आवश्यकता होती है कि शिकायत दर्ज कराते समय मेडिकल करवा कर बाकायदा एफ आई आर दर्ज कराई जाए। यदि पत्नी ने थाने में दहेज उत्पीड़न का अथवा घरेलू हिंसा का झूठा मामला दर्ज करवा दिया है तो पुरूषों को चाहिए कि वे मामले का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए न्यायालय को सच्चाई से अवगत कराने का प्रयास करे। ध्यान देने योग्य बात यह है कि न्यायालय भी समय समय पर इस संबंध में अपनी टिप्पणी करता रहा है। बलवीर सिंह बनाम दलजीत सिंह मामले में पंजाब और हरियाणा न्यायालय ने 1997 में एक ऐसे ही मामले में पति के पक्ष में अपना निर्णय सुनाया था। इस मामले में जब पति अपनी पत्नी को वापस लेने गया तो उसकी पत्नी सहित उसके पिता व भाई ने उसे अपशब्द कहे व उसके साथ मारपीट की। न्यायालय ने यह बात मानी की समाज में कोई भी पति अपनी पत्नी व उसके परिवारजनों का यह व्यवहार बर्दाश्त करने को बाध्य नहीं है। इसी क्रम में पत्नी द्वारा उसे अपने परिवार से अलग रहने के लिए भी बाध्य नहीं किया जा सकता। बल्कि अदालत ने इसे मानसिक प्रताड़ना की श्रेणी में डाला है।

बच्चों की कस्टडी के मामले में भी उन्हें समान अधिकार है। यहाँ तक की उसे फीमेल चाइल्ड की कस्टडी भी मिल सकती है। किसी किसी मामले में यह भी देखा जाता है कि महिला द्वारा पुरूष को उसके बच्चों से मिलने भी नहीं दिया जाता। ऐसे में वह गार्जियन वार्ड एक्ट के तहत अपनी याचिका डाल सकता है। जिसमें वह बच्चों की कस्टडी का भी दावा कर सकता है और उनसे मिलने के अधिकार (विज़िटिंग राइट्स) का भी दावा कर सकता है। किसी भी परिस्थिति में उसे बच्चों से मिलने के अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। हाल ही में न्यायालयों द्वारा भी अलग अलग मामलों में यह टिप्पणी की गई है कि यदि महिला द्वारा बच्चों के भरण पोषण का खर्चा लिया जा सकता है तो उन्हें बच्चों से मिलने से भी नहीं रोका जा सकता।

भरण पोषण के मामले में पुरूषों को भी यह अधिकार है कि यदि बच्चे उसके पास रह रहे हैं तो वह भी एक याचिका डालकर अपनी पत्नी से भी बच्चों के भरण पोषण का दावा कर सकता है। कई मामलों में महिला द्वारा अपने पति व बच्चों को छोड़कर चले जाने की स्थिति सामने आती है। और पति के बार बार सम्पर्क किए जाने के बावजूद भी उसके वापस न आने की स्थिति में पति हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत रेस्टिट्यूशन ऑफ कॉन्ज्यूगल राईट्स की याचिका डाल सकता है। इसी प्रकार हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 और 26 स्पाउस की बात करती है। केवल पति की नहीं इसलिए उक्त धाराओं के तहत केवल पत्नी ही नहीं बल्कि पति भी अपने अधिकार और भरण पोषण का दावा कर सकता है।

कई मामले ऐसे भी सामने आए हैं जिनमें महिलाएँ खर्चे का दावा करते समय अपनी आय का विवरण न्यायलय के सामने नहीं रखतीं। किंतु अब न्यायलय में हलफनामें में विवरण देने का प्रावधान है जिसमें दोनों पक्षों के अपनी आमदनी, काम काज तथा खाते में मौजूद रकम तक की जानकारी देनी होती है और गलत जानकारी दिए जाने पर दूसरे पक्ष द्वारा गलत या झूठा हलफनामा दर्ज कराए जाने का मुकदमा दर्ज किया जा सकता है, साथ ही न्यायालय की अवमानना का तथा न्यायालय में गलत स्टेटमेंट देने का मामला भी दर्ज किया जा सकता है। जिसमें कि सात साल तक की सजा का प्रावधान है। यह सब महिलाओं तथा पुरूषों पर समान रूप से लागू होता है।

इसी प्रकार महिला यदि किसी और व्यक्ति के साथ लिव इन में रहती है तो ऐसे मामले में पुरूष द्वारा एडल्ट्री के आधार पर तलाक की माँग की जा सकती है। इस तरह के मामलों में महिला द्वारा अपने पति से भरण पोषण प्राप्त करने का दावा नहीं किया जा सकता। गौरतलब है कि लिव इन में रहना कानूनन अपराध नहीं है किंतु इसके लिए स्टेटस सिंगल होना अनिवार्य है। यदि किसी से विवाहित होने के बावजूद कोई व्यक्ति किसी और के साथ लिव इन में रहता है तो यह एडल्ट्री के दायरे में आता है।

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वर्तमान आधुनिक युग में महिलाओं के संरक्षण हेतु कई कानून उपलब्ध हैं किंतु पुरूषों के लिए अनन्य रूप से ऐसा कोई कानून उपलब्ध नहीं है। किंतु फिर भी न्यायालय द्वारा मामले के तथ्य के आधार पर पुरूषों को झूठे आरोपों से सुरक्षा प्रदान करते हुए उन्हें न्याय दिलाया जाता है। कई बार ऐसा देखा गया है कि यदि किसी महिला द्वारा पुरूष पर गलत या झूठे आरोप लगा कर न्यायालय से कुछ लाभ प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है तो उस पुरूष को अपना बचाव कर पाना कठिन हो जाता है। इसका मुख्य कारण जानकारी का आभाव है। अतः पुरूषों के लिए अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना से बचाव का मुख्य साधन हो सिद्ध हो सकता है।

निष्कर्ष

आधुनिक समाज में महिलाओं के अधिकारों की बात करना आधुनिकता की कसौटी माना जाने लगा है। कई मामलों में तो लोग महिलाओं के अधिकारों की बात इसलिए भी करते हैं कि वे समाज में आधुनिक व प्रगतिवादी सोच वाले व्यक्ति के रूप में जाने जाएँ और समाज में उनकी छवि सुलझे हुए व्यक्ति के रूप में उभरे। ऐसा भी नहीं है कि महिलाओं के हक की बात करना गलत है। क्योंकि सदियों से चली आ रही परिपाटियों से यह स्पष्ट हो ही जाता है कि महिलाएँ आनादि काल से ही किसी न किसी अन्याय को, उनके प्रति होने वाले पक्षपात आदि को झेलती चली आ रहीं है। आज भी समाज में कुछ महिलाएँ ऐसी हैं जो ऐसे वंचित वर्ग के रूप में जीवन व्यतीत कर रहीं हैं जिन्हें मुख्य धारा से जोड़ना परम आवश्यक है और कानून व सरकार द्वारा उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने, किसी भी प्रकार के अत्याचार से बचाने की कवायद कोई गलत कदम नहीं। किंतु इन सब परिस्थितियों में हम यह भूल जाते हैं कि इस प्रकार कार्रवाई किए जाने के पीछे मूल धारणा महिलाओं को किसी भी प्रकार के अत्याचार से बचाना है न कि पुरूषों पर अत्याचार करना। सम्मान पाना और मिलना परस्पर व्यवहार पर निर्भर है और यदि महिलाएँ सम्मान की हकदार हैं तो पुरूषों का भी इस पर उतना ही अधिकार है। समाज में बेहतर तालमेल हो, वह समावेशी रूप से आगे बढ़ सके इसके लिए आवश्यक है कि समाज के सभी वर्गों को लेकर एकसाथ आगे बढ़ा जाए और इस आदर्श परिस्थिति के लिए लिंग भेद से ऊपर उठकर सोचने की जरूरत है।

नेहा राठी 

 

 

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