एक पिता की आवाज़
Ek Pita ki awaz
मेरे काँधे पर रखी है तुम्हारी कई रातों की नींदें और ख़वाहिशों के कई बस्ते
झुक कर जो मैंने थामीं उँगलियाँ तुम्हारी
उस प्रेम की गठरी भी है रखी हुई मेरी कमर पर
कभी उठा कर हवा में मैंने,तुम्हारे ख़्वाबों को जो मैंने उड़ान दी
उसका विस्तार भी है मेरे काँधे पर
सब तो मुझ पर ही रहा
तुम्हारी जमीं भी, तुम्हारा आसमान भी
इसलिए उसे सम्भालते हुए
अब ज़रा सा झुक गया हूँ मैं
नही,मैं बूढ़ा नही हुआ हूँ !
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