भारतीय वाङ्मय में नाटक की लम्बी परंपरा रही है। नाटक एक दृश्य काव्य है, जिसका सीधा संबंध रंगमंच से है। हबीब तनवीर का पदार्पण जिस समय होता है उस समय भारतीय नाट्य रंगमंच पारसी थियेटर व पाश्चात्य रंगमंच के प्रभाव बहुत ज़्यादा ग्रसित था। हालात ये था कि पारसी कंपनियाँ उर्दू के अतिरिक्त हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषा में नाटकों का मंचन करने को तैयार ही नहीं हो रही थी। हबीब तनवीर ने न केवल भारतीय परंपरा के अनुरूप नाटक लिखे बल्कि पाश्चात्य रंगमंच के प्रशिक्षण का उपयोग कर उसका भारतीयकरण कर नाटकों के लिए एक नया रंगमंच भी तैयार किया।
साहित्य के किसी भी विधा में समाज, लोक, देश, काल, परिस्थिति आदि का विशेष महत्व है। नाटक जैसे विधा में हबीब तनवीर ने लोक समस्या, लोक कलाकारों, लोक कलाओं आदि का प्रयोग करके भारतीय रंगमंच को रूढ़िवाद से मुक्त करने का कार्य प्रमुख रूप से किया। इन्होंने भारतीय रंग परंपरा को एक नये आयाम तथा एक नये समझ से समृद्ध कर साहसिक कार्य किया। रंगमंच और नाट्य रचना दोनों पर वे हमेशा नये प्रयोग करते रहते थे। नेमिचंद्र जैन कहते हैं कि ‘जिन लोगों ने साहसपूर्वक और कल्पनाशीलता से, जोखिम उठाकर और अपनी जिद पर अड़े रहकर भारत की बीसवीं शताब्दी और उसकी आधुनिकता और सर्जनात्मकता को निर्णायक ढंग से रचा, दूसरों के लिए राह और दिशा खोली, जातीय परम्परा और आधुनिकता के द्वैत का सृजनधर्मी अतिक्रमण किया उनमें हबीब तनवीर का नाम बहुत ऊंचा वरेण्य और अविस्मरणीय है। उनका संघर्ष एक स्तर पर अपने समाज के भद्रलोक और मध्यवर्ग के नकलचीपन से था तो दूसरे स्तर पर उन समकालीनों से भी, जो पश्चिम से इस कदर आक्रांत थे कि जातीय रंग परम्पराओं का उनके लिए मानों अस्तित्व ही नहीं था। रंगमच पर पश्चिमी किस्म के यथार्थवाद का आतंक एक और समस्या थी। इन सभी चुनौतियों का सामना उन्होंने बहुत दम-खम से किया और अंततः स्वयं उनकी रंग-दृष्टि, रंग व्यवहार दूसरों के लिए चुनौती बनकर उभरे। हबीब नाटक प्रस्तुत या मंचित नहीं करते थेः वे नाटक खेलते थे। वे कलाओं में लीला और क्रीड़ा की जो लम्बी भारतीय परम्परा रही है उसका उन्होंने हमारे समय के लिए पुनर्वास और पुनराविष्कार किया। उन्होंने करके दिखाया और जताया कि आधुनिकता के टीम-टाम, शिक्षा और संस्कारों से कोसों दूर रहने वाले लोक कलाकार अपनी बोली में ऐसे नाटक खेल सकते हैं जो मानवीय स्थिति और संकट, नियति और संघर्ष के बारे में ऐसा कुछ चरितार्थ कर सकते हैं जो बहुत नकचढ़ी आधुनिकता का भी लक्ष्य रहा है।''१
हबीब तनवीर विविध प्रतिभाओं से परिपूर्ण व्यक्ति थे। उनकी व्यवहार कुशलता का परिचय हम इसी से पा सकते हैं कि उन्होंने जिस ड्रामा ग्रुप के साथ मंचन शुरू किया था उनके साथ आख़िर तक लगभग ५० वर्षों तक कार्य करके एक मिसाल स्थापित कर दिया। 'वह ऐसे विरल प्रगतिशील बुद्धिजीवी रंगकर्मी थे, जिसने अपनी एकात्म-निष्ठा से रंगमंच को व्यवस्था के प्रतिरोध एवं विरोध का सशक्त जन- माध्यम बनाया। संघर्षशीलता और रचनात्मक प्रयोगधर्मिता उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की प्राणशक्ति थी।’२
हबीब तनवीर के नाट्य लेखन के आधार पर इनके नाटकों को चार भागों में बाँटा जा सकता है-
पहले रूप में बाल नाटक आते हैं, हबीब तनवीर ने सन् १९५४ ई० में दिल्ली प्रवास के दौरान अपने रंग जीवन के प्रारंभिक चरण में बाल नाटकों का लेखन व निर्देशन का कार्य किया था। बाल नाटकों के संदर्भ में नाट्य आलोचक जयदेव तनेजा ने लिखा है ‘भारी बस्तों के बोझ तले दब रहे मासूम बच्चों की मौलिक कल्पनाशीलता को मारकर उन्हें रट्टतोतों की फौज में बदल रही आज की शिक्षा पद्धति के लिए भी ये नाटक एक नया और बड़ा रास्ता दिखाते हैं।'३ इनके प्रमुख बाल नाटक ‘पचरंगी’ नामक पुस्तक में ‘कारतूस’, ‘चाँदी का चमचा’, ‘आग की गेंद’, ‘परंपरा’, ‘दूध की गिलास’ शामिल है।
दूसरे रूप में मौलिक नाटक आते हैं, हबीब तनवीर ने ज़्यादातर मौलिक नाट्य लेखन किया था। पाश्चात्य नाटकों का भी वे मूल रूप में प्रयोग न करकर अपने अनुरूप प्रयोग करते थे।इनके मौलिक नाटकों में ‘शांतिदूत कामगार’, ‘आगरा बाज़ार’, ‘मेरे बाद’, ‘इंद्र लोकसभा’, ‘राजा चम्बा और चार भाई’, ‘मंगलू दीदी’, और ‘डैडी का घर’ आदि प्रमुख है। इनके नाटकों में संवाद नाटक भी घटना प्रधान नाटक के रूप में होने कारण रोचक हो जाते थे। जब इप्टा की बागडोर इनके हाथों में थी उस समय ‘शांतिदूत कामगार’ नाटक लिखा, जिसमें शांति का प्रचार और मज़दूरों के हड़ताल के ऊपर प्रकाश डाला है। मौलिक नाटकों में सबसे महत्वपूर्ण नाटक ‘आगरा बाज़ार’ में इन्होंने आगरा के सन् १८१० ई० में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वातावरण का चित्रण तथा तात्कालिन शायर ‘नज़ीर अकबराबादी’ के रचनाओं को स्थापित किया है। इसमें मुग़ल सत्ता की निरंकुशता, आम जीवन की समस्याओं, भ्रष्टाचार आदि को रोचक ढंग से दिखाया गया है। आगरा बाज़ार नाटक का मंचन खुले बाज़ार में हुआ था जिसमें कलाकारों की भूमिका में ओखला गाँव के स्थानीय लोक कलाकार व ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ के छात्र शामिल थे। इस नाटक में ककड़ीवाला केंद्र में है , जिसकी ककड़ी कोई नहीं ख़रीदता है ।नज़ीर के द्वारा एक शायरी लिखने पर जब उसे वह गा कर बेचता है तो सब बिक जाती है । इसे देखते हुए अन्य पात्र भी ऐसा करते हैं। ककड़ी पर नज़ीर का ये नज़्म उल्लेखनीय है-
‘क्या प्यारी-प्यारी मीठी और पतली-पतलियाँ हैं
गन्ने की पोरियाँ हैं, रेशम की तकलियाँ हैं
फरहाद की निगाहें, शीरीकी हँसलियाँ हैं
मजनूँ की सर्द आहें, लैला की उँगलियाँ हैं
क्या, खूब नौ-नाजक इस आगरे की ककड़ी
और जिसमें ख़स काफिर इस कंदरे की ककड़ी।’५
‘आगरा बाज़ार’ में अनेक विविधताएँ हैं, इसमें होली के रंग, गुरुनानक देव, गणेश, महादेव, क़िसन कन्हैया, बलदेव और नज़ीर आदि का चित्रण बहुत बारीकी से करते हुए प्रेम का संदेश दिया गया है। इसमें आपसी भाईचारे के साथ गाली-गलौज को, ग़रीबी के साथ अमीरी को और विविध जीवन संघर्षों को दिखाया गया हैं। इक़बाल नियाज़ी इस नाटक का मूल्यांकन करते हुए लिखतें हैं, ‘आगरा बाज़ार जैसे नाटक की प्रस्तुति ने हिन्दुस्तानी नाटककारों के सामने ये मिसाल पेश की, कि किस तरह यथार्थवादी ढांचों को पसंद करके पश्चिमी और पूर्वी ड्रामा रिवायतों से जुड़कर एक नए तरह की तर्ज पर ड्रामों को प्रस्तुत किया जा सकता है। जिसमें लोक नाटक के फॉर्म को और उसके असर को जान-बूझकर दूँसा नहीं गया, फिर भी नाटक के डायलाग से लोक नाटक की अदायगी व कारीगरी के रंग फूटते हुए महसूस होते हैं।’६
तीसरे रूप में लोक कथाओं आदि से संबंधित नाटक है, हबीब तनवीर के नाटकों के केंद्र में लोक है। चाहें भाषा हो, नृत्य हो, शैली हो, लोक कथाएँ हो,गीत-संगीत हो या लोक परंपरा हो आदि का प्रयोग करने में इन्होंने कोई संकोच नहीं किया है। ‘हिंदी रंगमंच में लोक शैली, परम्पराशील नाट्य का आधुनिक मुहावरा उन्होंने सृजित किया। इस नवाचारी रंग उपक्रम से हिंदी रंगमंच को नई शैली, नया आकार, नया विस्तार मिला।’ लोक कथाओं आदि संबंधी नाटकों में ‘गाँव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद’, ‘अर्जुन का सारथी’, ‘चरणदास चोर’, ‘शाही लकड़हारा’, ‘पोंगा पंडित’, ‘हिरमा की अमर कहानी’ आदि प्रमुख है।
चौथे रूप में अनुदित/रूपांतरित नाटक है, हबीब तनवीर ने पाश्चात्य नाटकों का अनुवाद मूल रूप में नहीं किया बल्कि भारतीय रूपांतरण कर दिया। रूसी नाटक 'दी फेमिनिन टच' का भारतीय रूपांतर 'जालीदार पर्दे' उनका पहला रूपांतर है, जो सन १९५२ में बंबई में खेला था। एक अंग्रेजी एकांकी पर आधारित 'फांसी', मोरियर के `बुर्जुआ जेंटलमैन' पर आधारित 'मिर्जा शोहरत बेग' (१९५९) जो बाद में `लाला शोहरत राय' के नाम से छत्तीसगढ़ी बोली में रूपांतरित किया गया। बर्तोल्ट ब्रेख्त के 'दी गुड परसन ऑफ सेतजुआन' का रूपान्तर `शाजापुर की शांतिबाई' (१९७८) और गोगोल के `दी गवर्नमेंट इंसपेक्टर' का रूपांतर `शाह बादशाह' (१९८०) आदि उल्लेखनीय है। यद्यपि ये सभी रचनाएँ नाटक थीं पर हबीब ने अनुवाद न करके उनका भारतीय रूपान्तर किया। 'ये रूपान्तर अनुवाद के निकट होते हुए भी अनुवाद नहीं हैं, क्योंकि इनमें थोडा हेर-फेर किया गया, ऐसा करने में ही हबीब का मौलिक योगदान था।’७
निष्कर्षः हबीब तनवीर की नाट्य यात्रा का प्रारंभ भले ही बाल नाटकों से हुआ हों पर उनको सबसे ज़्यादा सफलता मौलिक व लोक कथाओं से संबंधित नाटकों के मंचन में मिली है। ऐसे विरले ही होते हैं जिन्होंने इस लगन, शिद्दत व परिश्रम से नाट्य लेखन, निर्देशन व मंचन का कार्य किया हों।अपनी परंपरा से जुड़कर उसे रूढ़ियों से मुक्त करने का प्रयास करते हुए पूरे पवित्रता के साथ सिंचकर, रचनात्मकता और संघर्षशीलता से कार्य करने वालों में हबीब तनवीर का नाम अग्रणी है। हबीब तनवीर ने भारतीय रंगमंच को एक नयी पहचान ही नहीं दी बल्कि उसे पारसी थियेटर व पाश्चात्य रंगमंच के प्रभाव से मुक्त करने में भी सफलता प्राप्त किया ।
संदर्भ
१.जैन नेमिचन्द्र. नटरंग. सम्पादकीय. नयी दिल्ली, अंक ८६-८७ जुलाई- दिसम्बर २०१०
२. तनेजा, जयदेव; नाट्य प्रसंग; तक्षशिला प्रकाशन, नयी दिल्ली; संस्करण २०१७; पृ. ११९
३. तनेजा, जयदेव; नाट्य प्रसंग; तक्षशिला प्रकाशन, नयी दिल्ली; संस्करण २०१७; पृ. १२७
४. तनवीर, हबीब; 'ए लाइफ इन थियेटर'; कमला प्रसाद (सं.); कलावार्ता; अंक १०३, २००३; पृ. १७
५. तनवीर, हबीब; आगरा बाज़ार; वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली; संस्करण २०१०; पृ. १०६
६. वाजपेयी, अशोक (सं.); नटरंग; अंक ८६-८७, जुलाई-दिसम्बर, २०१०, पृ. ५८
७. अग्रवाल, प्रतिभा; हबीब तनवीर एक रंग व्यक्तित्व; नाट्य शोध संस्थान, कोलकत्ता; संस्करण १९९७; पृ. १०५
बृजेश यादव