भारत की गुलामी और किशोरक्रांति
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सबसे कम उम्र में फांसी पर चढ़ने वाले शहीद ''खुदी राम बोस” (जन्म 3 दिसंबर 1889) अभी 19 साल के भी नहीं हुए थे। इस बालपन में अपने मित्रों के साथ उम्र के हिसाब से पारम्परिक खेल खेलने के जगह वह देश के लिए अपनी जान से खेल रहे थे। वतन की आज़ादी के राग से सराबोर ये नौजवान जान हथेली पर रखकर चलते थे। एक तरफ जिंदगानी तो दूसरी ओर माँ भारती की आज़ादी, जिस उम्र में खुदी राम बोस को फांसी हुई थी कहते है वही उम्र एक नौजवान के बेहतर भविष्य की संकल्पना के लिए होती है। जवानी की रवानगी उमंग से सराबोर होती है। मन कल्पनाओं का समंदर होता है। लेकिन समंदर को भी जमीं चाहिए ये बहुत कम लोग सोच पाते है, आज़ादी के परवानों को इतनी छोटी उम्र में ये ज्ञान हो गया था की उनकी ज़मीन तो उनकी है ही नहीं, फिर कैसा और कौन सा समंदर ? बिना समंदर के जिंदगियों को पार करने वाली नौका की कल्पना करना उनके लिए बस अनायास मूर्खता थी। इस छोटी उम्र में ''खुदी राम बोस'' और अजीज साथी शहीद ''प्रफुल्ल कुमार चाकी'' ने कुछ ऐसा किया जो हमेशा के लिए इतिहास बन गया। हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता संग्राम का पहला बम धमाका, जो कलकत्ता के मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड के ऊपर किया गया था, पर पहचानने में थोड़ी सी भूल की वजह से किंग्जफोर्ड बच गया। ‘‘खुदी राम बोस’’ को जल्द ही गिरफ्तार कर लिया गया और मुजफ्फर नगर की जेल में 11 अगस्त 1908 को फांसी दे दी गयी जबकि साथी क्रन्तिकारी ‘‘प्रफुल्ल कुमार चाकी’’ ने स्वयं को अंग्रेजी सेना से घिरा हुआ पाकर खुद को गोली मारकर शहीद हो गए।
भारत को उपनिवेश बनाने की कहानी बड़ी दिलचस्प है, इसके लिए दुनिया के वे तीन लोग, पुर्तगाली, डच और अंग्रेज जिम्मेदार थे, जो कहने के लिए अलग अलग नामों से जाने गए, परन्तु उनके धार्मिकता का आधार एक ही था - इसाइयन। ऐसा माना जाता है कि भारत आने वाला पहला ईसाई "सैंट थॉमस" था, जो ईसा मसीह के बारह मूल धर्मदूतों में से एक था। इतिहासकारों के अनुसार, यह प्रारंभिक मध्यकालीन युग की शुरुआत थी और गुप्त वंश का पतन हो चूका था। गुप्त साम्राज्य का भारत एक विशाल भूभाग (भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यान्मार) था, जो फिर इतना बड़ा कभी ना हो सका।
भारत की सरजमीं पर व्यापार का जामा पहने सर्वप्रथम कदम रखने वाले पुर्तगाली थे और पहला व्यापारी "वास्कोडिगामा।" वह पंद्रहवीं शताब्दी (17 मई 1498 के आस पास) के अंत में भारत के केरल राज्य के पश्चिमी समुंद्री तट कालीकट पर पहुंचा था। व्यापार करने आई पुर्तगाली कंपनी का नाम "एस्तादो द इंडिया" था।
डच और पुर्तगाली व्यापारियों को भारत में अपनी वस्तुएं बेचने पर अत्यधिक लाभ होता देख अंग्रेजी ईसाई व्यापारी भी इधर आकर्षित हुए। लाभ से प्रभावित होकर 1599 ई. में अंग्रेज व्यापारियों के एक समूह – "मर्चेंट एडवेंचरर्स" के "जॉन वॉट्स" और "जार्ज व्हाइट" ने ब्रिटिश ज्वाइट स्टॉक कंपनी "ईस्ट इंडिया कंपनी" (जॉन कंपनी) की स्थापना की। 31 दिसम्बर 1600 ईस्वी को कंपनी ने ईस्ट के देशों में व्यापर को अधिकृत करने के लिए महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम से 21 साल की छूट का शाही चार्टर की स्वीकृति ले ली। बादशाह ज़हाँगीर को इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि 24 अगस्त 1608 इस्वी को इंग्लैंड के किंग "जेम्स प्रथम" का व्यापारिक सिलसिले में पत्र लेकर आने वाला यह राजदूत "कैप्टन हॉकिंग्स" उसकी मुगल सल्तनत और हिंदुस्तान की जड़ में लगने वाला पहला दीमक है। ज़हाँगीर से व्यापारिक अनुमति मिलने के बाद "हेक्टर" नामक ब्रिटिश व्यापारिक पोत भारत के प्रमुख बंदरगाह सूरत के तट पर आकर रुका, हालाँकि उसे भारत में व्यापारिक अनुमति हासिल न हो सकी, 1615 ईस्वी में ब्रिटिश सम्राट जेम्स ने "सर टॉमस रो" को अपना दूत बनाकर भेजा, ब्रिटिश शासक जेम्स का यह दूत जहाँगीर से व्यापारिक सनद पाने में सफल रहा। अंग्रेजों को 6 फरवरी सन् 1616 को बादशाह ज़हाँगीर के एक शाही फरमान से सूरत में कोठी बनाकर व्यापार करने की और राजदरबार में एक अंग्रेजी राजदूत को रहने की इजाजत दी गई। आगे अंग्रेजी डॉक्टर से जहांगीर की बेटी जहाँआरा के इलाज के बदले कंपनी को व्यापार की खुली छूट मिल गई और हुगली बन्दरगाह पर लगने वाला शुल्क भी माफ़ करवा लिया गया।
औरंगजेब के शासन में पुर्तगाली व्यापार मजबूत हुआ और बम्बई टापू उनके कब्जे में था, पर 31 मई 1662 को ब्रिटेन के “चार्ल्स द्वितीय” और पुर्तगाल की राजकुमारी "कैथरीन डी ब्रिगांजा" की शादी में यह टापू राजघराने को दहेज़ में मिला। जिसे 27 मार्च 1668 को चार्ल्स ने 10 पौंड सालाना किराये की राशि पर ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया। कंपनी का संचालन ब्रिटिश राजदूत "सर थॉमस रो" कर रहा था। जल्द ही विजय नगर राज्य से आदेश जारी कराकर ब्रिटिश कंपनी "ईस्ट इंडिया" ने मद्रास में भी अपना एक व्यापारिक केंद्र शुरू कर दिया। अंग्रेज व्यापारी मुख्य रूप से रेशम, नील, कपास, चाय और अफीम का व्यापार करते थे।
1741 में नवाब की उपाधि प्राप्त सेनापति "दुमास" की जगह "डुप्ले" अंग्रेज नियुक्त हुआ। माना जाता है भारतीय कमजोरियों का आकलन कर डूप्ले को यहाँ अंग्रेजी साम्राज्य स्थापित करने का विचार सर्वप्रथम आया। उसके अनुसार - भारतीय साम्राज्य की अंदुरुनी कलह उसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। कर्नल स्मिथ ने अपने एक पत्र में भारत की अनंत दौलत का अनुमान पेरू और ब्राजील में सोने की खानों से भी ज्यादा बताया था। 10 अप्रैल 1956 में नवाब "अलवर्दी खान" की मृत्यु के बाद उसका नाती "सिराज-उज़-दौला” 24 साल की उम्र में बंगाल सल्तनत का नवाब बना। "लार्ड राबर्ट क्लाइव, मीर जाफर, अमिचंद सेठ, जगतसेठ" आदि की अंदुरुनी साजिश के चलते 23 जून 1757 को नादिया जिले में (गंगा नदी के किनारे) ईस्ट इंडिया कंपनी और नवाब "सिराज-उज़-दौला" के बीच "प्लासी का युद्ध" हुआ। अपने तीन सेनानायक, कुछ राजदरबारी और सेना के विश्वासघात की वजह से नवाब "सिराज-उज़-दौला" यह युद्ध हार गया। "मीर जाफर" के बेटे "मीरन" ने नवाब की धोखे से हत्या कर दी। कंपनी "मीर जाफर" को कठपुतली नवाब बनाकर शासन करने लगी। आड़ में दरबारी उसे "क्लाइव का गधा" भी कहते थे।
ब्रिटिश कंपनी को मिले एकाधिकार व्यापार और 24 परगना से वसूली में मिलने वाली अकूत धन से उस दौरान इंग्लैंड में आद्योगिक क्रांति और उसका चीन से व्यापार की शुरुआत हुई। नाकारा नवाब मीर जाफर के बेटे मीरन की अकस्मात मृत्यु के बाद उसका दामाद "मीर कासिम" नवाब बना। इसके बदले "मीर कासिम" ने अंग्रेजों को 5 लाख रुपये के साथ बर्दवान, मिदनापुर और चटगांव जिले एक संधि में अंग्रेजो को दिए। "मीर कासिम" ने चतुराई से अंग्रेजो के सारे कर्ज माफ़ कर उनसे अलग हो अपनी राजधानी को मुंगेर जिले में बना ली। अंग्रेजों ने इसे अपनी अवमानना मान 1763 में उस पर चढ़ाई कर दी। इस परिस्थिति में मीर कासिम ने जनवरी 1764 में धन और विहार प्रान्त के कुछ जिले देकर अवध के नवाब "सुजाउद्दौला" से मदद मांगी। बाद में मुग़ल बादशाह शाह आलम भी उनके साथ आ गया। तीनो नवाबों की संयुक्त सेना ने 23 अक्टूबर 1764 को "बक्सर के युद्ध" (बक्सर शहर के करीब) में मिलकर लड़ने के बाद भी "सेनापति हेक्टर" की अगुआई वाली ब्रिटिश सेना से हार गये। अब अंग्रेजो के पास पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और बांग्लादेश का शासन था। 16 अगस्त 1765 में शाह आलम के साथ इलाहबाद की संधि के बाद इन प्रदेशों के अलावां दिल्ली भी अंग्रेजों के प्रभाव अधिकार में आ गया।
जिक्र जब सबसे कम उम्र के शहीद का हो तो ''कूकाओं'' की फ़ौज को कैसे भुलाया जा सकता है। कूका एक सिक्ख संप्रदाय है जिसे ''नामधारी'' भी कहा जाता है। जिसकी स्थापना संत राम सिंह नाम के एक लुहार ने की थी। कूकाओं ने गौ हत्या का जमकर विरोध किया और गौ हत्या को ख़तम करने के लिए कई बार लड़ाइयां भी लड़ी। 1864 में संत राम सिंह ने महाराष्ट्र के संत श्री रामदास से प्रेरित होकर अपने संप्रदाय के लोगो को भी स्वतंत्र रहने का आदेश दिया और अंग्रेजी शासन को किसी भी प्रकार से सहयोग ना देने का प्रण लिया। संत राम सिंह ने पुरे पंजाब को बाईस भागों में बाँट दिया और अंग्रेजी सरकार के समानांतर अपनी स्वतंत्र शासन प्रणाली बना ली। कूका संप्रदाय की कुल संख्या लगभग सात लाख के आस-पास थी। अंग्रेजों के खिलाफ यह विद्रोह आसमयिक और अधूरी तैयारी में किया गया था। इसलिए इस विद्रोह को दबा दिया गया। 15 जनवरी 1872 को मालेरकोटला की मुठभेड़ ने इस संप्रदाय को बहुत कमजोर कर दिया। जिसमे नामधारी सिक्खो को हराकर पकड़ लिया गया। 66 सिक्खों को बारी-बारी तोप के सामने खड़ा करके टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया। इस सिक्ख टुकड़ी में 13 साल का बच्चा “बिशन सिंह” भी शामिल था। जब उसे तोप से उड़ाने के लिए ले जाया जा रहा था। तो वह अचानक हरकत में आया और उसने सामने खड़े अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर कावन की लम्बी दाढ़ी को पकड़ लिया। अंग्रेज सैनिको ने उसे छुड़ाने की बड़ी कोशिश की लेकिन उस 13 साल के बच्चे बिशन सिंह ने अंग्रेज कमिश्नर कावन की दाढ़ी तब तक नहीं छोड़ी जब तक की उसके हाथ को कन्धों से अलग नहीं कर दिया गया और फिर बाद में उस मासूम बालक के सिर को धड़ से अलग कर दिया गया। ये था भारत का सबसे कम उम्र का स्वतंत्रता सेनानी। ऐसी जाने कितनी घटनाओं ने भारतीयों के स्वाभिमान को झकझोर दिया। सोये जग गए दिवास्वप्न टूटने लगा।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सबसे कम उम्र में फांसी पर चढ़ने वाले शहीद ''खुदी राम बोस” (जन्म 3 दिसंबर 1889) अभी 19 साल के भी नहीं हुए थे। इस बालपन में अपने मित्रों के साथ उम्र के हिसाब से पारम्परिक खेल खेलने के जगह वह देश के लिए अपनी जान से खेल रहे थे। वतन की आज़ादी के राग से सराबोर ये नौजवान जान हथेली पर रखकर चलते थे। एक तरफ जिंदगानी तो दूसरी ओर माँ भारती की आज़ादी, जिस उम्र में खुदी राम बोस को फांसी हुई थी कहते है वही उम्र एक नौजवान के बेहतर भविष्य की संकल्पना के लिए होती है। जवानी की रवानगी उमंग से सराबोर होती है। मन कल्पनाओं का समंदर होता है। लेकिन समंदर को भी जमीं चाहिए ये बहुत कम लोग सोच पाते है, आज़ादी के परवानों को इतनी छोटी उम्र में ये ज्ञान हो गया था की उनकी ज़मीन तो उनकी है ही नहीं, फिर कैसा और कौन सा समंदर ? बिना समंदर के जिंदगियों को पार करने वाली नौका की कल्पना करना उनके लिए बस अनायास मूर्खता थी। इस छोटी उम्र में ''खुदी राम बोस'' और अजीज साथी शहीद ''प्रफुल्ल कुमार चाकी'' ने कुछ ऐसा किया जो हमेशा के लिए इतिहास बन गया। हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता संग्राम का पहला बम धमाका, जो कलकत्ता के मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड के ऊपर किया गया था, पर पहचानने में थोड़ी सी भूल की वजह से किंग्जफोर्ड बच गया। ‘‘खुदी राम बोस’’ को जल्द ही गिरफ्तार कर लिया गया और मुजफ्फर नगर की जेल में 11 अगस्त 1908 को फांसी दे दी गयी जबकि साथी क्रन्तिकारी ‘‘प्रफुल्ल कुमार चाकी’’ ने स्वयं को अंग्रेजी सेना से घिरा हुआ पाकर खुद को गोली मारकर शहीद हो गए।
-आर सी यादव "चेतनअंस"
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