आज़ादी के आंदोलन में संतो व फकीरों का योगदान

Nov 7, 2023 - 16:47
Nov 19, 2023 - 20:13
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आज़ादी के आंदोलन में संतो व फकीरों का योगदान
Contribution of Santo Ve Fakirs to Hitler's movement

स्वतंत्रता संग्राम में साधु-संतों के योगदान पर न के बराबर लिखा गया है। इसका कारण भी रहा है, क्योंकि जिन लोगों के हाथों में सत्ता गई थी उनमें से अधिकतर हिन्दू विरोधी थे।.
बंगाल में सबसे ज्यादा अत्याचार हिन्दुओं पर होता था। अंग्रेजों ने हिन्दुओं को उनके तीर्थ स्थानों पर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था जिसके चलते शांत रहने वाले संन्यासियों में असंतोष फैल गया। बंगाल में हिन्दुओं का धर्मांतरण चरम पर था। गरीब जनता की कोई सुनने वाला नहीं था।


सन्यासी आंदोलन

इतिहास में अंग्रेजों के विरुद्ध सन् 1763 से 1773 तक चला संन्यासी आंदोलन उस समय का सबसे प्रबल आंदोलन माना जाता रहा है।देश में बंगाल में हुए आंदोलन की कड़ी में संन्यासियों के आंदोलन की चर्चा भी प्रमुखता से की जाती रही है।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में न सिर्फ क्रांतिकारियों, महिलाओं और आम जनता ने भाग लिया बल्कि बड़े पैमाने पर साधु-संतों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था। उन्हीं में से एक सन्यासियों और फकीरों का विद्रोह जो भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता का भी उदाहरण हैं

रामनामी भिक्षु और मुस्लिम फकीरों ने जो कि इसी क्षेत्र में भिक्षा मांगकर जीवन जीते थे, उन्हें भी बड़ी परेशानी झेलनी पड़ी। अकाल पड़ने से लोगों के पास खाने तक का अनाज नहीं बचा तो भिक्षा देने में भी लोग कतराने लगे। वहीं दूसरी ओर ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी जबरन वसूली करते रहे। स्थानीय लोगों ने कंपनी अधिकारियों द्वारा  जबरन वसूली का विरोध शुरू कर दिया। तब सन्यासियों और फकीरों ने भी हथियार उठा लिए और विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ उठ रही आक्रोशित जनता के साथ हो गए। तब पूरे बंगाल और बिहार में खूनी संघर्ष शुरू हो गया। 

बंगाल में सन्यासियों और फकीरों के अलग-अलग संगठन थे। पहले तो इन दोनों संगठनों ने मिलकर अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया; लेकिन बाद में उन्होंने पृथक्-पृथक् रूप से विरोध किया। संन्यासियों में उल्लेखनीय नाम हैं—मोहन गिरि और भवानी पाठक तथा फकीरों के नेता के रूप में मजनूशाह का नाम प्रसिद्ध है। ये लोग पचास-पचास हजार सैनिकों के साथ अंग्रेजी सेना पर आक्रमण करते थे। अंग्रेजों की कई कोठियाँ इन लोगों ने छीन लीं और कई अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। अंततोगत्वा संन्यासी विद्रोह और फकीर विद्रोह—दोनों ही दबा दिए गए।

संन्यासी विद्रोह बंकिम चंद्र के उपन्यास “आनंदमठ” का मूल आधार है। यहाँ तक कि संन्यासी विद्रोह में अंग्रेजों के खिलाफ “वन्दहूँ माता भवानी” का जो नारा लगाया जाता था, वही आगे चलकर बंकिमचंद्र के “वन्देमातरम” का प्रेरणास्रोत बना। इस ब्राह्मण योद्धा महाराज को इतिहास की पुस्तकों से योजनाबद्ध तरीके से गायब किया गया। हालाँकि आनंद भट्टाचार्य, जैमिनी मोहन घोष. कुलदीप नारायण, जगदीश नारायण, मैनेजर पाण्डेय, भोलानाथ सिंह जैसे इतिहासकारों एवं लोक-गायकों ने महाराज फतेह बहादुर शाही की वीरता के किस्सों को अपनी रचनाओं में जीवित रखा है।

देश के विभिन्न कोनों के प्रमुख क्रांतिकारी संत

पूर्व में चैतन्य महाप्रभु और श्रीमंत शंकर देव ने समाज को दिशा दी और लोगों को अपने लक्ष्य के प्रति केन्द्रित किया। पश्चिम में मीराबाई, एकनाथ, तुकाराम, रामदास  और नरसी मेहता, उत्तर में संत रामानन्द, कबीरदास, गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, गुरु नानक देव, संत रैदास ने यह बीड़ा उठाया। इसी प्रकार से दक्षिण में माधवाचार्य, निम्बार्काचार्य, वल्लभाचार्य और रामानुजाचार्य ने किया। भक्ति काल में मलिक मोहम्मद जायसी, रसखान, सूरदास, केशवदास और विद्यापति जैसी विभूतियों ने समाज को अपनी कमियाँ सुधारने के लिए प्रेरित किया। इन विभूतियों के कारण  ही स्वतंत्रता के इस संघर्ष को अखिल भारतीय रूप मिल पाया। इन महान नायकों और नायिकाओं की जीवन गाथा को आम लोगों तक पहुंचाए जाने की आवश्यकता है।

जादी के आंदोलन में रामनगरी के संतों की भी अहम् भूमिका रही। पहला नाम बृजनंदन ब्रह्मचारी का है। उस समय वे मध्यमा के छात्र थे, जब देश सविनय अवज्ञा आंदोलन की हुंकार भर रहा था। नमक सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी के कारण उन्हें छह माह की सजा हुई। जेल से छूटने का बाद वे क्रांतिकारी आंदोलन की ओर उन्मुख हुए। 1932 में जिले के कई स्थानों पर डाक बक्से जलाने और रेलवे लाइन का तार काटने के जुर्म में वे पुन: गिरफ्तार हुए और दो भिन्न धाराओं में दो-दो वर्ष कैद एवं 50 रुपए जुर्माने की सजा पाई। 29 अप्रैल 1940 से पांच अप्रैल 1946 तक वे नजरबंद भी रहे। स्वाधीनता आंदोलन के फलक पर एक अन्य साधु ने भी छाप छोड़ी। यह थे मणिरामदास जी की छावनी के तत्कालीन महंत रामशोभादास के शिष्य वासुदेवाचार्य। लगानबंदी आंदोलन में शामिल होने के कारण 1932 में वासुदेवाचार्य को एक माह की सजा हुई। इसी वर्ष के अंत तक उन्हें पुन: छह माह की सजा मिली। क्रांतिकारियों से संपर्क रखने के कारण 1939-40 के बीच वासुदेवाचार्य तीन बार गिरफ्तार किए गए। भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने पर इन्हें नौ अगस्त 1942 को एक बार फिर गिरफ्तार किया गया। इस बार वासुदेवाचार्य 35 माह से कुछ अधिक समय तक जेल में रहे। रामवल्लभाकुंज के महंत रामपदारथदास के शिष्य अक्षय ब्रह्मचारी भी स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख किरदार रहे। सन् 1932 में सत्याग्रह के चलते इन्हें छह माह की सजा हुई और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक वर्ष की कैद के साथ दो माह तक नजरबंद रहने की सजा मिली। संतोषी अखाड़ा से जुड़े संत गंगादास ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया और छह माह कैद के साथ सौ रुपए जुर्माना की सजा भोगी। हनुमानगढ़ी के नागा साधु गो¨वददास के शिष्य प्रयागदास ने 1932 में छह माह कैद के साथ 25 रुपए जुर्माना की सजा भुगती। 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह में वे नौ माह तक जेल में रहे। 1942 में प्रयागदास को एक माह तक नजरबंद रखा गया। रामसमुझदास के शिष्य वासुदेवदास भी 1933 के दौरान ही स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े। 1942 तक उन्होंने 19 मास की कैद के साथ 20 रुपए जुर्माना की सजा भुक्ती। हनुमानगढ़ी के ही लालतादास को उग्र गतिविधियों में संलिप्तता के कारण 1941 में 15 माह की सजा मिली और 1942 से 45 तक नजरबंद रहना पड़ा।


वेदों की ओर लौटो

स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना का मूल उद्देश्य ही समाज सुधार और देश को गुलामी से मुक्त कराना था। उन्होंने धर्मांतरित हो गए हजारों लोगों को पुन: वैदिक धर्म में लौट आने के लिए प्रेरित किया और वेदों का सच्चा ज्ञान कराया। स्वामीजी जानते थे कि वेदों को छोड़ने के कारण ही भारत की यह दुर्दशा हो चली है इसीलिए उन्होंने वैदिक धर्म की पुन:स्थापना की। उन्होंने मुंबई की काकड़बाड़ी में 7 अप्रैल 1875 में आर्य समाज की स्थापना कर हिन्दुओं में जातिवाद, छुआछूत की समस्या मिटाने का भरपूर प्रयास किया। गांधीजी ने भी आर्य समाज का समर्थन किया था। उन्होंने कहा भी था कि मैं जहां-जहां से गुजरता हूं, वहां-वहां से आर्य समाज पहले ही गुजर चुका होता है। आर्य समाज ने लोगों में आजादी की अलख जगा दी थी। आर्य समाज के कारण ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर स्वदेशी आंदोलन का प्रारंभ हुआ था।

स्वामी श्रद्धानंद व  कांगड़ी गुरुकुल

स्वामी श्रद्धानंद ने देश को अंग्रेजों की दासता से छुटकारा दिलाने और दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए अनेक कार्य किए। पश्चिमी शिक्षा की जगह उन्होंने वैदिक शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया। इनके गुरु स्वामी दयानंद सरस्वती थे। उन्हीं से प्रेरणा लेकर स्वामीजी ने आजादी और वैदिक प्रचार का प्रचंड रूप में आंदोलन खड़ा कर दिया था जिसके चलते गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी।धर्म, देश, संस्कृति, शिक्षा और दलितों का उत्थान करने वाले युगधर्मी महापुरुष श्रद्धानंद के विचार आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं। उनके विचारों के अनुसार स्वदेश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, वेदोत्थान, धर्मोत्थान को महत्व दिए जाने की जरूरत है इसीलिए वर्ष 1901 में स्वामी श्रद्धानंद ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान 'गुरुकुल' की स्थापना की। हरिद्वार के कांगड़ी गांव में 'गुरुकुल विद्यालय' खोला गया जिसे आज 'गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय' नाम से जाना जाता है।

भारतीय क्रांति की जननी मैडम भीखा जी कामा

मैडम भीखा जी कामा जिन्हें भारतीय क्रांति की जननी कहा जाता है। एक समृद्ध परिवार में जन्म व शादी होने के बाद भी उन्हें देश प्रेम की बातें सुहाती थीं।
 वर्ष 1896 में मुंबई में ब्यूबोनिक प्लेग फैलने लगा। महामारी के चलते पूरे शहर में लाशें बिछने लगी थीं। ऐसे में मैडम कामा ने राहत कार्य में भाग लिया। और अंग्रेजों के अनदेखी के चलते अपने देशवासियों की पीड़ा देख, उनको साफ़ दिखने लगा था कि भारत का आज़ाद कितना ज़रूरी है।

कुछ दिनों में महामारी ने उन्हें भी जकड़ लिया, और वर्षों तक तबियत के ठीक ना होने पर उन्हें यूरोप जाने की सलाह मिली। वर्ष 1902 में वे इंग्लैंड पहुँचीं और अपने इलाज के दौरान उन्होंने पहली बार श्री दादाभाई नौरोजी का एक भाषण सुना। कुछ समय बाद वे वहाँ रह रहे अन्य क्रांतिकारियों से भी मिलीं और जगह-जगह पर अंग्रेज़ी शासन के अंतर्गत भारत की दुर्दशा पर जागरूकता फैलाने लगीं। उन्हें भारत आने पर बैन लगा दिया गया तो पेरिस में उन्होंने शरण ली व तीस साल तक वही से स्वतंत्रता आंदोलन के लिए काम किया।


विश्व मे सनातन धर्म का परचम
भारत में हिन्दुत्व के पुनरुद्धार के बिना कोई राष्ट्रीय आंदोलन संभव नहीं था। स्वामी विवेकानंद ने ठीक यही किया, उन्होंने हिन्दुत्व का पुनरुद्धार किया। उन्होंने कहा, 'प्रत्येक राष्ट्र के जीवन की एक मुख्य धारा होती है, भारत में धर्म ही वह धारा है। इसे शक्तिशाली बनाइए और दोनों ओर का जल स्वत: ही इसके साथ प्रवाहित होने लगेगा। इनके द्वारा 1893 का शिकागो में दिए गए भाषण के बाद विश्व में भारतीयों के प्रति बनी हुई गलत धारणा बदलने लगी थी।

किसानों के अधिकरो हेतु स्वामी सहजानंद का संघर्ष

स्वामी सहजानंद को मूल रूप से किसान आंदोलन और जमींदारी प्रथा के खिलाफ किए गए उनके कार्यों के लिए जाना जाता है। महात्मा गांधी ने चंपारण के किसानों को अंग्रेजी शोषण से बचाने के लिए आंदोलन छेड़ा था, लेकिन किसानों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित कर प्रभावी आंदोलन खड़ा करने का काम स्वामी सहजानंद ने ही किया। इस आंदोलन के माध्यम से वे भी भारतमाता को गुलामी से मुक्त कराने के संघर्ष में कूद पड़े।

महर्षि अरविंद का योगदान

 महर्षि अरविंद ने गीता और अवतारवाद के विज्ञान को समझाया। क्रांतिकारी महर्षि अरविंद का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता में हुआ था। उनके पिता केडी घोष एक डॉक्टर तथा अंग्रेजों के प्रशंसक थे। पिता अंग्रेजों के प्रशंसक लेकिन उनके चारों बेटे अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गए थे।

कलकत्ता में उनके भाई बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेन्द्रनाथ टैगोर जैसे क्रांतिकारियों से मिलवाया। उन्होंने 1902 में उनशीलन समिति ऑफ कलकत्ता की स्थापना में मदद की। उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस के गरमपंथी धड़े की विचारधारा को बढ़ावा दिया।
सन् 1906 में जब बंग-भंग का आंदोलन चल रहा था तो उन्होंने बड़ौदा से कलकत्ता की ओर प्रस्थान कर दिया। जनता को जागृत करने के लिए अरविंद ने उत्तेजक भाषण दिए। उन्होंने अपने भाषणों तथा 'वंदे मातरम्' में प्रकाशित लेखों द्वारा अंग्रेज सरकार की दमन नीति की कड़ी निंदा की थी।

 अरविंद का नाम 1905 के बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा और 1908-09 में उन पर अलीपुर बमकांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला जिसके फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल की सजा सुना दी। जब सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया तो जेल में अरविंद का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठरी में ज्यादा से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। वे गीता पढ़ा करते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना किया करते। ऐसा कहा जाता है कि अरविंद जब अलीपुर जेल में थे, तब उन्हें साधना के दौरान भगवान कृष्ण के दर्शन हुए। कृष्ण की प्रेरणा से वे क्रांतिकारी आंदोलन छोड़कर योग और अध्यात्म में रम गए।ऐसे रहे हैं हमारे सन्यासी व फकीर जिन्होंने देश को अंग्रेजों की दासता के साथ साथ अन्य बेड़ियों से भी मुक्त कराने  में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

कुसुम पारीक

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