कबीर की विचार चेतना और प्रासंगिकता
कबीर अद्भुत मिजाज के थे एकदम निर्भीक और चौबीस घण्टे जगे रहने और दूसरों को जगाए रहने वाले फक्कड़। तभी वे ये कहने का साहस कर सके थे कि- तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखन की देखी । यानी काशी जैसी नगरी में रह कर सम्पूर्ण वेदों, शास्त्रों, पुराणों के ज्ञान के दम पर धर्म, दर्शन पर व्याख्यान देने वालों को इतनी साफगोई से धता बता दी कि जो यथार्थ है उसके आधार पर बात करो काल्पनिक, गोलमोल बातें करके भ्रम ना फैलाओ।
वैचारिक चेतना चाकू, तलवार की धार और सुई की नोक जैसी विपरीत परिस्थितियों में अपने होने का प्रमाण दिए बिना नहीं रह सकती है। इस लिहाज से ये सर्वकालिक, सार्वभौम हुआ करती है।
उसूलों पर अगर आंच आये टकराना जरूरी है।
जो जिंदा हो तो फिर जिंदा नजर आना जरूरी है।।
ये वसीम बरेलवी की लाइनें जरूर हैं मगर ये कबीर की आत्मा है जो तब से आज तक कभी किसी और कभी किसी की जुबान से अलख जैसा जगाती ही रहती है।
कबीर अद्भुत मिजाज के थे एकदम निर्भीक और चौबीस घण्टे जगे रहने और दूसरों को जगाए रहने वाले फक्कड़। तभी वे ये कहने का साहस कर सके थे कि-
तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखन की देखी ।
यानी काशी जैसी नगरी में रह कर सम्पूर्ण वेदों, शास्त्रों, पुराणों के ज्ञान के दम पर धर्म, दर्शन पर व्याख्यान देने वालों को इतनी साफगोई से धता बता दी कि जो यथार्थ है उसके आधार पर बात करो काल्पनिक, गोलमोल बातें करके भ्रम ना फैलाओ।
कबीर अपने समय के युगदृष्टा थे। ऐसा उनकी रचनाओं से पता चलता है। कबीर ने अपने समय की ही समस्याओं को नहीं बल्कि भविष्य की समस्याओं को भी पहचाना। उन्होंने देखा कि समाज जात-पात, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, धार्मिक आडंबरों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों और वैमनस्य से ग्रस्त है जिससे समाज पतन की ओर बढ़ता जा रहा है। कबीर ने समाज की इस समस्या को समझा और अपने वैचारिक आन्दोलन के द्वारा इसे दूर करने का प्रयास किया जिसमें वर्ण और जातिविहीन समाज की स्थापना, हिंदू-मुस्लिम के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण, बिना किसी रुढियों और आडम्बरों के भक्ति और द्वेषविहीन मानवता का निर्माण करना शामिल है।
आज भी कबीर के उपदेश, उनकी शिक्षाएं समाज को एकत्र करने का काम करती हैं। कबीर पढ़े लिखे नहीं थे फिर भी उनके पास ज्ञान का अथाह भंडार था। कबीर ने अपने द्वारा कहे गए दोहे के माध्यम से संदेश दिया कि-
मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही नहीं हाथ।
लिखा पढ़े की है नहीं, देखा देखी बात।
कहने का अर्थ है कि कागज कलम से उनकी कोई खास जान पहचान नहीं थी। उन्होंने सब कुछ देखकर सुनकर ही सीखा है और उसे जीवन में उतारा है। उन्होंने एक शब्द तक कभी नहीं लिखा बस वो जो अपनी वाणी के माध्यम से विचार व्यक्त करते गए उनके शिष्य उन्हें संकलित करते गए जो आज हम सब कबीर की दोहावलियों के रूप में सुनते और पढ़ते हैं।
कबीर ने अपने दोहों के माध्यम से एक जगह कहा कि-
कबीरा राह अगम्य की,कहन सुनन की नाएँ।
जो जानत सो चुप रहत, कहत सो जानत नाएँ।।
यानी ईश्वर तो अगम्य है उससे मिलने के अनन्त मार्ग बतलाने वाले हकीकत में नितान्त भ्रान्त हैं इसलिए कबीर ईश्वर और व्यक्ति के बीच में किसी भी मध्यस्थ को अस्वीकार किया। आज देश में हजारों आश्रम, लाखों बाबा देश को ईश्वर के नाम पर ठग रहे हैं और लोग भी ऐसे भोले हैं कि खुद को ठगवाने के लिए कतार बना कर खड़े हुए हैं।
बिन जाने वा देश की, बात करे सो कूर।
आपै खारी खात है,
बेचत फिरत कपूर।।
यह कबीर ने तब कहा था जब देश में ना के बराबर लोग शिक्षित हुआ करते थे और बड़ी जल्दी ठगों के जाल में फंस जाते थे। आज भी तो यही हो रहा है। अध्यात्म के क्षेत्र में बड़े बड़े नामधारी आध्यात्मिक क्षेत्र के विषय के बारे में गहराई से नहीं जानते हैं फिर भी वे टीवी पर, पंडालों में, पार्कों में, मंदिरों में, आश्रमों में देश के धर्मभीरु सरल लोगों को मूर्ख बनाते रहते हैं। खुद तो कपड़ा साफ करने वाली खारी मिट्टी लिए हैं और आवाज लगाते हैं... कपूर ले लो कपूर।
आज के समय में सभी धर्मों में दिखावा और आडंबर बढ़ता जा रहा है। लोग भक्ति मन से नहीं बल्कि दिखावे के तौर पर ज्यादा कर रहे हैं। ख़ुद को सबसे बड़ा धार्मिक दिखाने की होड़ सी लगी हुई है। इस पर कबीर ने अपने समय में कहा था-
कांकर पाथर जोरि कै, मस्ज़िद लई चुनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दै, क्या बहिरा हुआ खुदाय।
कबीर का मानना था कि कंकड़ पत्थर जोड़ कर मस्ज़िद बनाई और उस पर चढ़कर मुल्ला जोर जोर से ख़ुदा को पुकारने लगा। क्या ख़ुदा बहरा हो गया है? जो उसे इस तरह जोर जोर से पुकारने की जरूरत पड़ती है। ईश्वर हमारे हृदय में वास करते हैं उन्हें अन्यत्र कहीं ढूंढने की जरूरत नहीं।
कबीर का लालन पालन एक मुस्लिम जुलाहा दंपत्ति ने किया जबकि इनके गुरु रामानंद थे जो कि हिंदू थे। सिख धर्म में गुरुवाणी में इनके दोहों का प्रभाव अधिक दिखता है।
हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुर्क कहे रहमाना।
आपस में दोनों लड़ी लड़ी मुए।
मरन न कोउ जाना।
साखी के इस दोहे के माध्यम से कबीर कहते हैं कि हिंदू को राम प्यारे हैं और मुस्लिम को रहमान। दोनों अपने अपने धर्म को एक दूसरे से ख़तरा बताकर लड़ लड़कर मर जाते हैं लेकिन मृत्यु के विषय में कुछ जान ही नहीं पाते हैं। यही कारण है कि कबीर की मृत्यु पर भी उनके शव पर हिंदू और मुस्लिम धर्मावलंबियों ने दावा किया लेकिन मगहर में बना कबीर का स्मारक जिसमें दरगाह और समाधि स्थल दोनों ही हैं वक़्त बीतने के बाद धार्मिक समन्वय की एक मिसाल बन गए।
यूँ तो कबीर का पूरा जीवन काशी में बीता था लेकिन जीवन के अंतिम समय में वे मगहर आ गए थे और यहीं पर अपनी देह का त्याग किया। ऐसा उन्होंने उस अंधविश्वास को मिटाने का संदेश देने के लिए किया था जिसमें लोग कहते थे कि जिसकी मृत्यु मगहर में होती है वो व्यक्ति अगले जन्म में गधा बनता है। असल मायने में कबीर का पूरा जीवन ही उनका संदेश है ।
कबीर अपने समय के ऐसे समाज सुधारक थे जो कर्मकांड के विरोधी थे। अवतारवाद, रोज़ा, व्रत, मंदिर, मस्ज़िद आदि धार्मिक कर्मकाण्डों को नहीं मानते थे। उन्होंने लोगों को समझाया कि ईश्वर एक है, उसका कोई रूप नहीं है, वो निराकार है। कबीर ने हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धर्मों को खोखलापन बताया है। वे किसी भी तरह की मूर्ति पूजा के विरोधी थे।
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजो पहार।
बातै तो चाकी भली, पीस खाय संसार।
कबीर कहते थे कि पत्थर पूजने से यदि ईश्वर मिलते तो मैं पहाड़ की पूजा करूँ। इससे तो अपने घर की चक्की ही अच्छी है जिससे सारा से संसार आटा पीसकर तो खाता है।
सामाजिक क्षेत्र में तो कबीर शोषणकर्ताओं पर बिल्कुल निर्मम हो कर प्रहार करते मिलेंगे। वे किसी जाति या वर्ण में जन्म के आधार पर किसी को उच्च मानने की बजाय कर्म और विचारों के द्वारा किसी को उच्च मानने पर जोर देते थे। वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्कशील विचारों को ही असल शिक्षा मानते थे। इस पर कबीर लिखते हैं-
जो तू बाम्हन बम्हनी का जाया।
आन बाट काहे नहीं आया।
जो तू तुर्क तुरकनी जाया।
पेटै खतना क्यों ना कराया।
ये कबीर की वैचारिक चेतना का दमदार प्रकटीकरण है। ऐसे कौन फटकार लगा सकता पाखंड को? सिर्फ वही जो जानता हो कि अन्याय क्या है? शोषण और पाखंड क्या है? ऐसा कबीर तब ही कर पा रहे थे जब वे दुःखी मानव की पीड़ा को स्वयं भोग रहे थे और विचारों के माध्यम से उसे प्रचारित कर रहे थे।
धूर्त कैसे चोला बदल कर लोगों को गुमराह कर सकते हैं यह भी कबीर ने खूब समझा और उस पर खूब लिखा। वे कहते है कि-
चली कुलबोरनी गंगा नहाए।
औंठा पहनिन बिछुआ पहनिन।
लात खसम का मारिन धाय।
पांच पचीस का धक्का खाइन।
घरहु की पूंजी आई गवाए।
अब ये कुलबोरनी आज भी देश में हर धर्म, हर जाति में मिल जाएंगी। किसी वर्ग, किसी बड़े विचार से जुड़े लोग अक्सर पथभ्रष्ट हो कर सिर्फ पवित्रता का ढोंग करते हैं। राजनैतिक गलियारों में तो यह बीमारी इतनी जटिल हो चुकी है कि सिद्धांतविहीन दल और नेता भारतीय लोकतंत्र के लिए गम्भीर चुनौती बन चुके हैं। आज कबीर की जरूरत है देश को ताकि ऐसे लोगों को पग पग पर बेनकाब किया जा सके,उन्हें राजनीति से खारिज किया जा सके और भारत की राजनीति में शुचिता पुनर्स्थापित हो सके।
कबीर की वैचारिक चेतना का ही प्रभाव है कि उनकी रचनाएँ कबीरवाणी के नाम से आज भी प्रासंगिक हैं जो शोषक सामंत वर्ग का पुरजोर विरोध करती हैं। इनकी वाणी में सरलता और सादगी है जिससे ये आम जन के मानस पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है जो अंधेरे में भटके हुए को भी प्रकाश के मार्ग पर चलने का काम करती हैं।
वैचारिक चेतना मनुष्य को उच्चतर स्तरों पर ले जाती है, वह विशुद्ध मानवतावादी, समतावादी मनुष्य का निर्माण करती है। कबीर वैसे ही तो थे। कबीर आज भी अपने दोहों, साखी, शबद, रमैनी के माध्यम से हर पंथ, मजहब और जाति के लोगों को शक्ति देते हैं।
आज का संत समाज ऐसा है जिसमें अधिकतर मनुष्य ऐसे हैं जो अपने गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर उसका परित्याग कर देते हैं और गेरुआ वस्त्र धारण कर खुद को संत कहलाने लगते हैं जबकि कबीर ने गृहस्थ जीवन से पलायन न कर उसके बीच रहकर ही संत बनकर समाज को आईना दिखाने का काम किया इसलिए संत समाज में कबीर का एक महत्वपूर्ण स्थान है जो अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराईयों को झाड़ने बुहारने का काम करती हैं।
आज 21वीं शताब्दी में जहाँ भारत दुनियाभर में अपनी एक पहचान स्थापित करना चाहता है वहीं देश के अंदर जातिवाद, वर्ण व्यवस्था, सम्प्रदायवाद का ज़हर समाज में इस कदर फैल गया है जिसकी वजह से देश का विकास रुकता है। देश की अखंडता टूटती है। देश में अशांति फैलती है। यही सत्य है कि जो कुछ आज देश दुनिया में दिखाई दे रहा है वही सत्य है वही यथार्थ है और उसी के सापेक्ष परिस्थितियों, समस्याओं का विश्लेषण और उनका निराकरण करने से ही बात बनेगी।
प्रतिमा चक
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