Bhikhari Thakur | आधुनिक नवचेतना के अग्रदूत : भिखारी ठाकुर
राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें `अनगढ़ हीरा' कहा तो जगदीशचन्द्र माथुर ने `भरतमुनि की परंपरा का कलाकार' कहा। उनके नाटक ग्रामीण समाज के चारो ओर विकसित हुए और फिर जहाँ प्रवासी मजदूर और गरीब श्रमिक बड़ी संख्या में अपनी आजीविका की खोज में गए, वहाँ तक आयाम बढ़ता चला गया। उनकी कीर्ति कस्तूरी की गंध की तरह अपने देश के छोटे शहरों से होते हुए महानगरों और फिर विदेशों में फैल गयी।
`हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो,जीवन की सच्चाई का प्रकाश हो-जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं ,क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।'
`साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है-उसका दरजा इतना न गिराइए। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।'
प्रेमचंद के उपर्युक्त दोनों उद्धरणों में साहित्य के उद्देश्य और साहित्यकार की प्रतिबद्धता का उल्लेख है। भिखारी 'ाकुर ने अपनी रचनाओं में साहित्य के इसी उद्देश्य और अपनी प्रतिबद्धता को उजागर किया है।
एक प्रसिद्ध समालोचक के अनुसार- `उनकी रचनाओं में सामाजिक विषमताएँ, सामंती हिंसा,मनुष्य के छल-प्रपंच- ये सब भरे हुए हैं और वे अपनी कलम की नोंक से और प्रदर्शन की युक्तियों से इन फोड़ों में नश्तर चुभोते हैं। उनकी भाषा में चुहल है, व्यंग्य है,पर वे अपनी भाषा की जादूगरी से ऐसी तमाम गा'ों को खोलते हैं जिन्हें खोलते हुए मनुष्य डरता है। उनकी रचनाओं का ऊपरी स्वरूप जितना सरल दिखाई देता है,भीतर से उतना ही वह जटिल और हाहाकार से भरा हुआ है। उनकी रचनाओं के भीतर मनुष्य की चीख भरी हुई है। उनमें ऐसा दर्दहै,जो आजीवन आपको बेचैन करता है। इसके साथ साथ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गहन संकट के काल में वे आपको विश्वास देते हैं,अपने दुखों से,प्रपंचों से लड़ने की शक्ति देते हैं।'
एक अन्य प्रख्यात साहित्यकार लिखते हैं -
`उनका पूरा रचना संसार लोकोन्मुख है। वे दुःख का भी उत्सव मनाते हुए दीखते हैं। उनकी यह लोकोन्मुखता हमारी भाव-सम्पदा को और जीवन के संघर्ष और दुःख से उपजी पीड़ा को एक संतुलन के साथ प्रस्तुत करती है। वे साधारण कथानक में विशिष्ट कथ्य भर देते हैं। वे इतने सिद्धहस्त हैं कि अपने जीवन के अनुभवों के बल पर रची गई कविताओं से हमारे अंतर जगत में निरंतर संवाद की स्थिति बनाते हैं। उनक पूरा रचनात्मक संसार अंतर्द्वंद्वों से भरा हुआ है। आज भिखारी 'ाकुर हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि वे सिखाते हैं कि जीवन के अंतर्द्वंद्व ही रचनात्मकता को दीर्घजीवी बनाते हैं।'
भिखारी 'ाकुर भोजपुरी समाज में रचे-बसे लोकराग और लोकचेतना को व्यक्त ही नहीं करते बल्कि उद्दीप्त भी करते हैं। उनकी लोकरंजता भी गहरे मूल्य बोध से संबलित हैं और उनमें न सिर्फ उनकी बल्कि हमारे समाज और इतिहास की बहुविध विडम्बनाएं भी समाई हुई हैं। अपने तमाम तरह के शिखरारोहणों के बावजूद भिखारी 'ाकुर अगर अंत तक भिखारी ही बने रहते हैं तो यह यथार्थ आज भी हमारे सामने एक बड़े सवाल की तरह मौजूद हैं।
प्रसिद्ध साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं- `कबीर की परम्परा के रचनाकार रहे भिखारी 'ाकुर मशहूर सांस्कृतिक योद्धा के रूप में याद किए जाते रहेगें। अपने जीवन काल में ही वे आधुनिक नव चेतना के अग्रदूत बन गए थे। उन्होंने सामाजिक विकृतियों के खिलाफ लगातार आवाज उ'ाई। खूब लिखा भी और नाटकों के माध्यम से अपने संदेशों कोआम लोगों तक पहुँचाया।'
कला गुरू रमेश 'ाकुर लिखते हैं- `भिखारी 'ाकुर ने लोक संस्कृति के क्षेत्र में जो कार्य किया, वह अपने आप में मिसाल है।' वे भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी, लोक जागरण के संदेश वाहक, लोकगीत तथा भजन-कीर्तन के अनन्य साधक थे। वे बहुआयामी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे।वे भोजपुरी गीतों और नाटकों की रचना एवं अपने सामाजिक कार्यों के लिए प्रसिद्ध हैं।वे एक महान लोक कलाकार थे. जिन्हें `भोजपुरी का शेक्सपीयर' कहा जाता है। वे एक ही साथ कवि, गीतकार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। उनकी मातृभाषा भोजपुरी थी और भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया।
उनका जन्म १८/१२/१८८७ में बिहार के सारण जिला के कुतुबपुर गाँव में हुआ। उनके पिताजी का नाम दल सिंगार 'ाकुर और माताजी का नाम शिवकली देवी था। वे जीविकोपार्जन के लिए गाँव छोड़कर खड़गपुर चले गए।उनका मन रामलीला में बस गया था। फिर अपने गाँव आकर उन्होंने अपनी एक नृत्य मंडली बनाई और रामलीला खेलने लगे।
प्रसिद्ध साहित्यकार राज आनन्द लिखते हैं- `मैं अक्सर सोचता था कि मारीशस बगैरह में भोजपुरी का इतना दखल कैसे है। भोजपुरी पहले से थी वहाँ मगर समृद्ध किसने किया। तब मुझे भिखारी 'ाकुर की साहित्यिक, सांस्कृतिक रंगों से भरपूर जीवन यात्रा, जो देश की सभी सीमाएं तोड़कर उन्होंने उसका दायरा फैलाया। उनकी मंडली मारीशस, केन्या, सिंगापुर, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना,सूरीनाम, युंगाडा, म्यांमार, मेडागास्कर, दक्षिण अप्रâीका, फिजी, त्रिनिदाद आदि जगहों तक गयी,जहाँ भोजपुरी संस्कृत के बीज थे। उन्हें फलने-फूलने में मदद की और इस आँगन में अब वह एक बड़ा दरख्त बनकर खड़ी है।'
राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें `अनगढ़ हीरा' कहा तो जगदीशचन्द्र माथुर ने `भरतमुनि की परंपरा का कलाकार' कहा। उनके नाटक ग्रामीण समाज के चारो ओर विकसित हुए और फिर जहाँ प्रवासी मजदूर और गरीब श्रमिक बड़ी संख्या में अपनी आजीविका की खोज में गए, वहाँ तक आयाम बढ़ता चला गया। उनकी कीर्ति कस्तूरी की गंध की तरह अपने देश के छोटे शहरों से होते हुए महानगरों और फिर विदेशों में फैल गयी। भिखारी 'ाकुर ने १९१७ में अपनी नाच मंडली की स्थापना कर भोजपुरी भाषा में कई नाटकों,सामाजिक-धार्मिक प्रसंग गाथा और गीतों की रचना की। उनके द्वारा सृजित नाटक `विदेसिया' में मुख्य विषय विस्थापन है। इस नाटक में रोजी-रोटी की तलाश में विस्थापन, घर में अकेली औरत का दर्द और शहर में पुरूष का पराई औरत के प्रति मोह दिखाया गया है। `भाई विरोध' नाटक में भाई-भाई के झगड़ा को दिखाया गया है। झगड़ा लगाने वाली एक महिला है।
`बेटी बेचवा' में मुख्य विषय समाज में व्याप्त बेमेल विवाह तथ अमीरों द्वारा बुढ़ापे में गरीब लड़कियों को खरीद कर शादी करने पर आधारित है। `विधवा-विलाप' में विधवा महिलाओं की समस्याओं को उजागर किया गया है। विधवा के साथ समाज का व्यवहार, उसके धन के प्रति लोगों की लालच दिखाया गया है।
`कलियुग- प्रेम (पिया निसइल) में समाज में फैली नशाखोरी की समस्या को उजागर किया गया है। `राधेश्याम-बहार' नाटक कृष्ण की लीलाओं पर आधारित है। `गंगा स्नान' नाटक में गंगा स्नान के माध्यम से परिवार में बुजुर्गों की उपेक्षा को दिखाया गया है। `गबरघिचोर' नाटक में विस्थापन की समस्या है। इसमें विस्थापित पति द्वारा पत्नी को भुला दिए जाने से उत्पन्न समस्या मुख्य है। परंतु यह नाटक स्त्री के अपने बेटे पर अधिकार की वकालत करता है भिखारी 'ाकुर की प्रसिद्ध कविताओं में `चलनी के चालल दुल्हा', `करके गवनवा, भवनमा में छोड़ि कर',`प्यार विलाप ', हमरा बलमु जी के बड़ी-बड़ी अँखिया से',`बेटी विलाप ' रूह को स्पर्श कर संवेदना जागृत करती हैं।
प्रसिद्ध रंगकर्मी जैनेन्द्र ने लिखा है- `उन्होंने उस्तरे से नाच के उस्ताद तक का सफर तय किया। भोजपुरी क्षेत्र में नाच और भिखारी 'ाकुर पर्यायवाची की तरह हैं। नाच के संदर्भ में भिखारी 'ाकुर की ये पंक्तियाँ ' नाच ह कांच,बात ह सांच' एह में लगे न आंच' नाच विधा की कई पहलुओं की ओर इंगित करता है। इसका तात्पर्य यह है कि नाच तो कच्ची क्षणभंगुर चीज है,पर यह सच्चाई की बात करता है जिसे किसी आंच यानी परीक्षा का डर नहीं है ।'
भिखारी 'ाकुर पर इनकी बनाई गई फिल्म `नाच भिखारी नाच' बहुत प्रसिद्ध हुई।
भिखारी 'ाकुर से लिए एक इंटरव्यू में प्रोफेसर रामसुहाग सिंह ने पूछा था कि नाच और कविता की ओर आपकी अभिरूचि कैसे हुई तो उन्होंने कहा था कि `मैं कुछ गाने जानता था। रामसेवक नामक एक हजाम ने मेरा एक गाना सुनकर तारीफ की और मात्रा की गणना बताया। बाबू हरिनंदन सिंह ने सबसे पहले रामगीत का पा' पढ़ाया। `भिखारी 'ाकुर ने रंगमंच के जरिए समाज सुधार की एक अलग अलख जगाई थी। इसके साथ ही'लौंडा नाच ' के वे जनक भी माने जाते हैं। जहाँ एक तरफ उनके नाटकों पर शोध हो रहे हैं,वहीं इनके लोकनृत्य `लौंडा नाच ' को भी अलग आयाम मिल रहा है।
भारत सरकार और संगीत नाटक अकादमी द्वारा नाच विधा और भिखारी 'ाकुर को मान्यता देते हुए इस विधा के वरिष्ठ कलाकार रामचन्द्र मांझी जी को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार २०१७ से नवाजा और फिर ६ फरवरी २०१८ को भारत के राष्ट्रपति महामहिम रामनाथ कोविद ने राष्ट्रपति भवन में रामचन्द्र मांजी को यह सम्मान दिया। इतना ही नहीं भिखारी 'ाकुर पर अकादमिक जगत में खूब लेखन हो रहा है। देश-विदेश के नामी गिरामी विश्व विद्यालयों में कई चर्चित विद्वानों ने उनपर अध्ययन किया है। आज भी लगातार उन पर शोध जारी है।' अपने फन के जरिए लोकप्रियता की बुलंदियों को छूने वाले भिखारी 'ाकुर ने १० जुलाई १९७१ को अंतिम साँस ली। उनका पार्थिव अस्तित्व हमारे बीच नहीं है पर यशः अस्तित्व को भला कौन नष्ट कर सकता है?
`जलने पर, यों अस्तित्व नहीं होते नष्ट परिवर्तित होते रूप
जैसे धुमैले बादलों के रीतने पर निकलती है दूधिया धूप....'
वायु की लहरों पर तैरती आवाज कानों से टकराती है बार-बार...
`मैं सृजन के द्वार पर नव भाव की वंशी बनूँगा।
What's Your Reaction?