संत साहित्य और मानव कल्याण

'संत ' शब्द का प्रयोग भारतीय साहित्य में प्राचीनकाल से प्रयुक्त होता आया है। इस शब्द का प्रयोग सज्जन, सदाचारी, बुद्धिमान, पवित्र व्यक्ति के लिए किया जाता है। व्यापक अर्थ में 'ईश्वरोन्मुख सज्जन' को संत कहते हैं। आज धर्म - साधना एवं अध्यात्म के क्षेत्र में इतनी गिरावट देखी जा रही है कि संतों, महात्माओं, साधुओं, बाबाओं के प्रति जनमानस में वितृष्णा का भाव उत्पन्न होता है। देश के कई नामी-गिरामी बाबाओं पर आपराधिक मामले दर्ज होकर वे सलाखों के पीछे गए।

Jun 21, 2024 - 16:33
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संत साहित्य और मानव कल्याण
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भारत के भक्ति आंदोलन को स्वर्णिम काल कहा जाता है। संतों के द्वारा रचित साहित्य में उनके अनुभव और ज्ञान का समावेश होता है। उन्होंने अपनी स्थानीय भाषा में 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' के मंत्र दिए हैं। मानव में काम, क्रोध, मोह आदि विकारों को दूर करके मन में ज्ञान, वैराग्य, प्रेम, सद्व्यवहार, समभाव आदि संस्कारों को जगाना ही संत साहित्य का लक्ष्य है। संतों के विचारों के अनुसार व्यक्ति को अशुभ की अस्वीकृति और शुभ की स्वीकृति पर आधारित पवित्र जीवन जीना चाहिए। तभी मनुष्य - जीवन की सार्थकता है। यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यदि संतों की 'बानी' नहीं होती, तो हमारा जीवन कितना विद्रूप - कुरूप होता, कितना मलिन - कुत्सित होता। इसका अनुमान लगाना सरल नहीं है। ये संत चाहे उत्तर प्रदेश के हों या महाराष्ट्र के, गुजरात के हों या राजस्थान के, चाहे हरियाणा के हों या तमिलनाडु के, सभी ने मानव - जीवन एवं समाज का नियमन और उन्नयन किया है।ऐसे संतों में नामदेव, कबीर, सेन, पीपा, धन्ना, रविदास, नानकदेव, धर्मदास,गोरखनाथ, दादूदयाल,तुलसीदास, रज्जब, सुंदरदास, मलूकदास, भीखा,तुकाराम, धरनीदास, जैतराम, नितानंद, हरिदास,रहीम, पलटूदास, जगजीवनदास, उदादास, निश्चलदास, बनवारीदास, रामदास, इन्द्राज, गुलाबदास, जम्भेश्वर, ताराचंद, संतोख सिंह, गरीबदास, नागरीदास, चरणदास, सहजोबाई, दयाबाई, नाभादास, घीसादास, फरीद, रामसिंह अरमान, वील्हो जी आदि प्रमुख हैं। 
संतों के हृदय में मानव कल्याण की कितनी उदात्त और उत्कट भावना थी, यह संत प्रवर तुलसीदास के एक काव्यांश से समझा जा सकता है। 
संत तुलसीदास संपूर्ण प्राणिमात्र में ईश्वर के दर्शन  'सीताराम' स्वरूप में ही करते हैं, जिसको वे सादर नमन करते हैं। उन्होंने जनमन - रंजक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को आदर्श नायक के रूप में स्वीकार किया है, क्योंकि वे आदर्श शासन - सत्ता की 'रामराज्य' के रूप में अवधारणा उन्ही के पुरुषार्थ में पाते हैं। 
सीयराममय सब जग जानी। 
करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी। 
संत तुलसीदास की साहित्य रचना स्वान्तः सुखाय होते हुए भी लोकमंगल की रचना है। वे कहते हैं - 
कीरति, भनति, भूति भल सोई। 
सुरसरि सम सब कहँ हित होई ।
ऐसे ही हिंदी साहित्य में भक्तिकाल से लेकर आजतक जितने भी संत कवि हुए हैं, वे सभी अभी भी हमारे जीवन में प्रासंगिक बने हुए हैं। उन्होंने अपने काव्य में सदैव मानव कल्याण की कामना की है। यह चिंतनीय विषय है कि जिन संवेदनशील प्रेरक प्रसंगों को लेकर ये संत हमारे सामाजिक जीवन में प्रविष्ट हुए थे, उनकी हमारे दैनिक जीवन में स्थापना तो आजतक भी नहीं हो पाई। न जातिवाद समाप्त हुआ, न रूढ़ियाँ, न वैमनस्य, न हिंसा और न कलुषता, अपितु संत कवियों की बातें अनसुनी करके भ्रष्टाचार, व्यभिचार, अत्याचार, छल - कपट जैसे अवगुणों में कई गुणा वृद्धि दिखाई दे रही है। इन सबके बाद भी संत - कवियों की वाणी को नकार नहीं सकते। चाहे कबीर - वाणी हो, या रामचरितमानस की चौपाई हो या सूर, मीरा, रहीम के पद, हमारे जीवन में पूर्णतः रचे-बसे हैं। जन्म, मरण, सामाजिक व्यवहार, आचार - विचार, सब जगह इनका उल्लेख, जीने की अनिवार्य शर्त - सा बन गया है। मानव कल्याण ही संत कवियों का मूल स्वर एवं अभीष्ट है।
'संत ' शब्द का प्रयोग भारतीय साहित्य में प्राचीनकाल से प्रयुक्त होता आया है। इस शब्द का प्रयोग सज्जन, सदाचारी, बुद्धिमान, पवित्र व्यक्ति के लिए किया जाता है। व्यापक अर्थ में 'ईश्वरोन्मुख सज्जन' को संत कहते हैं। आज धर्म - साधना एवं अध्यात्म के क्षेत्र में इतनी गिरावट देखी जा रही है कि संतों, महात्माओं, साधुओं, बाबाओं के प्रति जनमानस में वितृष्णा का भाव उत्पन्न होता है। देश के कई नामी-गिरामी बाबाओं पर आपराधिक मामले दर्ज होकर वे सलाखों के पीछे गए। यह उनकी कुत्सित महत्वाकांक्षा और दुराचरण का प्रमाण है। इस संदर्भ में संत कुंभनदास का प्रसंग उल्लेखनीय है जिन्होंने मुगल बादशाह अकबर के मिलने के लिए आदरपूर्वक अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी में आमंत्रित किए जाने पर, लौटने पर पश्चात्ताप हुआ और तब कहा था -
संतन को कहा सीकरी को काम,
आवत - जात पनहियाँ टूटी,
बिसरि गयो हरिनाम। 
वे समाज को यह संदेश देना चाहते थे कि राजधानी से संतों का भला क्या लेना-देना?
वर्तमान युग में तो अनेक संत, राजनेता बन कर सुख - सुविधाएँ भोग रहे हैं या उनका ध्यान
'सीकरियों' में लगा रहता है।
भारतीय संस्कृति के चिर स्थापित शाश्वत तत्वों को महत्व देते हुए संतों ने मानव कल्याण के लिए पारस्परिक सद्भाव, समभाव, अद्वेष, उदारता, सहिष्णुता, संयम, संतोष अपनाने पर जोर दिया। 
गुरु नानक देव जी ने मानव को पवित्र आचरण रखने हेतु जप, तप, संयम, शील, संतोष रखने की सीख दी -
जपु तपु संजमु कमावै करमु। 
सील संतोष का रखै धरमु।
बंधन तोड़ै होवै मुकुतु। 
सोई ब्रहमणु पूजन जगत। 
संत कबीरदास ने संतोष - वृत्ति धारण करने की नेक सलाह दी है - 
रूखी-सूखी खाय कै ठंडा पानी पीव। 
देखि पराई चूपड़ी मत ललचावै जीव ।
वे यह भी कहते हैं कि जब संतोष - धन की प्राप्ति हो जाती है, तो सभी धन धूल के समान हो जाते हैं। यह कथन उन धन - पशुओं के गाल पर करारा तमाचा है, जो जनता की गाढ़ी कमाई से अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं। 
गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान। 
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान। 
संतों ने निर्लिप्त भाव से कर्म करते हुए गृहस्थ - धर्म का परिपालन करने की प्रेरणा दी। संत रज्जब कहते हैं - 
सब जोग मैं भोग है, एक भोग मैं जोग। 
एक बूड़हि बैराग में, एक तिरहिं गिरहि लोग। 
समाज को विकृत करने वाले तमाम अंधविश्वासों, कर्मकाण्डों, बाह्याडंबरों, कुरीतियों, कुप्रथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। संत दादूदयाल कहते हैं - 
दादू कोई दौड़े द्वारिका, कोई काशी जाहि। 
कोई मथुरा को चले, साहिब घट ही मांहि। 
संत रविदास जी सदैव कर्म करते रहने का उपदेश देते हुए कहते हैं कि कर्म करना हमारा धर्म है और फल हमारा सौभाग्य है - 
करम बंधन में बँध रहियो, 
फल की ना तज्जियो आस। 
करम मानुष का धरम है, 
सत भाखै रैदास। 
यदि हम ऊँच-नीच का भेदभाव करेंगे, तो हमारा पतन निश्चित है। संत सुंदरदास इस बारे में कहते हैं -
कतहु भूली नीच ह्वै, कतहूँ ऊँची जाति। 
सुंदर या अभिमान करि, दोनों ही कै राति। 
संत नामदेव ने पाखण्डी भक्तों की निंदा करते हुए कहा है कि उन्हें तो नरक ही मिलेगा - 
अभि अंतर काला रहै, बाहरि करै उजास। 
नानम कहै हरिनाम बिन, निहचै नरक निवास। 
संत रहीम कहते हैं कि यदि छोटा व्यक्ति(अपात्र) अचानक बड़ा पद पा जाता है, तो वह प्रभुता में चूर हो जाता है, अतः पात्रता के अनुरूप ही पद मिलना चाहिए - 
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय। 
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय। 
जो व्यक्ति सचमुच में ऊँचे पद पर होता है, वह अत्यंत विनम्र होता है। उसके मन में दया - धर्म का वास होता है और मृदुभाषी होता है। ऐसा संत मलूकदास जी का कथन है - 
दया-धर्म हिरदै बसे, बोले अमरत बैन। 
तेई ऊँचे जानिए, जिनके नीचे नैन। 
संत हरिदास हमें बुराई का त्याग करके, भलाई करने का उपदेश देते हैं, क्योंकि नश्वर जीवन की सार्थकता इसी में है - 
नेकी करिए,  बीर बदी किस काम की। 
मरणा बिस्वै बीस, दुहाई राम की। 
संतों ने जातिवाद, शास्त्रवाद, पुरोहितवाद, कठमुल्लावाद और यहाँ तक कि पाखण्डी योगियों तक को नहीं छोड़ा। ये सारी विसंगतियाँ आज भी समाज में ज्यों की त्यों व्याप्त हैं। हमें इनका निदान खोजना होगा, तभी मानव जाति का कल्याण संभव है। 
 संत कबीर हिंदू और मुसलमान, दोनों से, डंके की चोट पर कहते हैं 
जो तू बामन बमनी जाया, तो आन बाँट ह्वै काहे न आया। 
जो तू तुरक तुरकनी जाया, तो भीतरि खतना क्यूँ न कराया। 
भारतीय समाज में जातिप्रथा प्राचीनकाल से प्रचलित है, समाज चाहे मुस्लिम हो, चाहे हिंदू। संत गरीबदास ने मुस्लिम समाज के शेख, तुर्क, मुल्ला आदि जाति का वर्णन करते हुए, उनकी विशेषताएँ बताई हैं - 
तुरक सोई जो पाँचों तरके, 
अलह नूर में पाँचों गरके। 
तथा 
शेख सोई जो सुख ना सोवे। 
औघट घाटी चश्में पोवे। 
मुल्ला सोई जो मूल मिलावे। 
आगम निगम का भेद बतावे। 
संत जैतराम बताते हैं कि ऐसा भोजन (अन्न) तथा जल ग्रहण करना चाहिए,जो मनुष्य को इंद्रियों और तृष्णाओं को वश में रख सके। स्पष्टतः वे शुद्ध, सात्विक और सादा भोजन करने की सलाह देते हैं - 
प्रथम भोजन थोड़ा लेवै, अन्न जल करै विचारा। 
काया को अपने बस राखै, भरमै नहिं संसारा। 
संत रामसिंह अरमान ने जीवन और धन - वैभव जैसी क्षणभंगुर चीजों पर घमण्ड करने वाले को नादान कहा है - 
जीवन का अरमान भारी, धन का गुमान है। 
कुटुंब का गुरूर करै, भारी ही नादान है। 
निष्कर्षतः सत्य यह है कि मनुष्य समाज की इकाई है और समाज में रहकर ही मनुष्य का विकास संभव है। समाज सदैव विकास पथ पर अग्रसर रहता है, परंतु विकास मार्ग में  कुछ बाधाएँ एवं विकृतियाँ आती रहती हैं। इन विकृतियों को दूर करने हेतु कुछ समाज सुधारक अथवा संत महात्मा जन्म लेते हैं, जो अपने उपदेशों और नैतिक आचरण से समाज का पथ - प्रदर्शन करते हैं। 
आज समाचारपत्र एवं दूरदर्शन हिंसक घटनाओं, मारकाट, लूटपाट, हत्याओं, ठगी आदि अपराधों से भरे रहते हैं।मनुष्य में धैर्य, शांति, सहयोग, सद्भावना, सहनशक्ति, प्रेम जैसे सद्गुणों की कमी हो गई है। संतों की वाणी नकारात्मक तत्वों और कुप्रथाओं का निषेध करती है। उनकी वाणी में  विश्व - चेतना या विश्व - मैत्री एवं विश्व मानवता का स्वर स्पष्टतः ध्वनित होता है। 
आज कलिकाल अपने पाँव पसार रहा है।समाज अपने परंपरागत जीवन - मूल्यों को भूल रहा है, ऐसे में मानव कल्याण के लिए  समाज को संत और उनके लिखित साहित्य के प्रचार-प्रसार की अत्यंत आवश्यकता है। संत साहित्य 'नर से नारायण' और 'नारायण से नर' तक की व्यापक एवं विस्तृत यात्रा है। आवश्यकता है, मानव द्वारा संतों की अनमोल वाणी को मनसा-वाचा-कर्मणा धारण करने की, तभी भारतीय संविधान में वर्णित लोक कल्याणकारी रामराज्य का सपना साकार हो सकेगा और विश्व में शांति स्थापित होगी। 
गौरीशंकर वैश्य विनम्र 

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