कहानी को प्रारंभ करने से पहले मैं आपको बता दूं कि ये कहानी दो समुदाय, जाति, धर्म के बीच रंगों को लेकर हर दिन देश में हो रही नफरत को बयां करती है। जो हर इंसान को ये शिक्षा देगी कि भला रंगों से नफरत कैसे हो सकती हैं? रंगों से नफ़रत करने वाला इंसान नहीं अपितु इंसान के रूप में एक खोखला पिंड है।
प्रभात का समय था, चारों ओर हरियाली ने रंगत जमाई हुई थी और विद्यार्थी अपनी-अपनी मंज़िल विद्यालय के लिए घर से निकले ही थे। मैं भी अपनी मंज़िल की ओर घर से कॉलेज के लिए निकला था। यह कॉलेज मेरे घर से लगभग 30 किलोमीटर की दुरी पर स्थित था जहां मैं टीचर ट्रेनिंग कर रहा था। जैसे ही मैं घर से स्टेशन पर आया, मुझे तुंरत गाड़ी मिल गई और मैं उसमें बैठकर कॉलेज की ओर निकल पड़ा। रास्ते में चलते वक्त मैंने देखा कि मेरे गांव से थोड़ी दुर एक प्रसिद्ध हनुमानजी का मंदिर पड़ता है, वहां पर पंछियों के लिए एक बहुत सुंदर चबूतरे का निर्माण हो रहा था, जिसे देख कर मुझे खुशी की अनुभूति महसूस हुई। ये देख कर फिर मैं आगे निकल गया। जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, चबूतरे का निर्माण कार्य पूर्ण होता गया। मैं जब भी उस रास्ते से गुजरता तो विजय स्तंभ रूपी चबूतरे को देखा करता, जिसका निर्माण लगभग पूर्ण होने के कगार पर था। एक दिन उसी राह से निकल रहा था, तभी मैंने देखा कि चबूतरे का निर्माण कार्य पूर्ण हो चुका था और उसको आसमानी और कबूतरों के रंग जैसा नीला रंग दे दिया गया है। इस जहां में नीले आसमान के नीचे नीले चबूतरे का भव्य रूप देखते ही बन रहा था मानो गगन को छू रहा हो।
कुछ समय तक मेरा उस राह से गुजरना नहीं हुआ, पर बहुत दिनों बाद फिर उसी राह से गुजरा तो मैंने देखा कि उस सुन्दर चबूतरे का दृश्य बदला-बदला सा लग रहा था। जिस चबूतरे को पूर्व में नीले रंग में रंगा गया था, उसको अब केसरिया(भगवा) रंग में रंगा जा चुका था। ये देख कर कोई ओर हैरान हो ना हो पर मैं हैरान जरूर था कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो इसे इस तरह बदल दिया गया। जब मैंने मन में उठ रहे इन सवालों का उत्तर ढूंढ़ते हुए इस बारे में थोड़ी खोजबीन की तो मुझे पता लगा कि जिस व्यक्ति ने उस चबूतरे का निर्माण किया था, वह व्यक्ति दलित समुदाय से आता था और उस चबूतरे का खर्च अदा करके निर्माण कार्य करवाने वाला व्यक्ति सवर्ण (उच्च जाति) समुदाय से संबंधित था। इस कारण निर्माण कार्य करवाने वाले सवर्ण व्यक्त को लगा कि जो रंग कारीगर के द्वारा किया गया है वो नीला इसलिए किया गया है, क्योंकि वह दलित है और दलितों के लिए नीला रंग लंबे समय से प्रतीकात्मक रंग रहा है। नीला रंग बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर जी तथा उनके संघर्ष और बलिदान से जुड़ा हुआ है, ये रंग हमेशा से ही बहुजन चेतना और क्रांति का प्रतीक बना हुआ है। पता नहीं क्यों पर हमेशा से जातिवाद और पाखंड को बढ़ावा देने वाले लोग बाबा साहेब और नीले झंडे के घोर विरोधी रहे हैं। इसी रंग की नफरत के चलते निर्माण करवाने वाले ने फिर से चबूतरा रंगे जाने पर होने वाले खर्च ओर समय की बर्बादी को ना देखते हुए, पूर्व में रंगे गए रंग को मिटा कर उसके ऊपर केसरिया(भगवा) रंग रंगवा दिया था।
दुबारा रंगे जाने पर भी चबूतरे की सुंदरता वैसी ही थी, उसकी सुंदरता पर कुछ ज्यादा फर्क नहीं पड़ा था। लेकिन इस प्रकार रंगों से नफरत करना कहाँ तक उचित है, ये हम लोगों को सोचने की जरूरत है। इस प्रकार मानव का रंगों से नफरत करना मुझे बहुत दुखी कर गया। अगर आप मैं भी मानवता नाम की कोई चीज है, तो ये घटना आपको सोचने पर मजबूर कर देगी। एक दिन जाने-अनजाने में राह पर मेरी मुलाक़ात चबूतरे का निर्माण कार्य करने वाले कारीगर से हो गई। मैंने उनसे पूछा कि भाई आपने क्या सोच कर पूर्व में चबूतरे का रंग नीला किया था? तब उसने जो जवाब दिया वो सच में मानवता को शर्मसार करने वाला था, क्योंकि उस व्यक्ति ने कहा कि मैंने ये रंग किसी जाति विशेष को ध्यान में रखकर नहीं किया था, परन्तु नीला रंग आसमान और कबूतरों के रंग से समानता रखता है और यह कार्य इसी को ध्यान में रखते हुए किया गया था, लेकिन जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने इसे गलत समझ लिया और मेरी मेहनत को नकारते हुए फिर से उसको रंगा गया, जो बहुत ही निंदनीय है। आज पूरे देश में एक ओर रंगों का त्यौहार मनाया जा रहा है और ये बताने की कोशिश की जा रही है कि हम सब एक हैं लेकिन देश की आजादी के कईं सालों बाद भी इस देश में जातिवाद नाम की बीमारी रंगों तक को लग गई है। वो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है।
इस कहानी में ये सच दिख रहा है कि जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त इंसान रंगों से भी किस तरह नफरत करते हैं। ये जातिवाद कल तक तो दो समुदाय के बीच नजर आ रहा था, लेकिन अब ये नीले, केसरी, हरे और लाल रंग में रंगा नजर आता है। हम होली पर लगे रंगों को तो मिटा सकते हैं, लेकिन समाज में जो ये रंगों के नाम पर नफरत फैला रखी है उसे कैसे मिटाएंगे। इस पर हमें सोचने की जरूरत है। हमें इस प्रकार की बीमारी को फैलने से रोकना होगा तभी देश और मानवता की रक्षा संभव हो सकती है।
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में लुट लिया भगवान को,
जाति धर्म के बंटवारे में यहाँ बांट दिया इंसान को।
प्रकृति के सब रंगों पर सबका अधिकार समान है,
क्यों बाँटा है इनको तुमने,क्यों बेच दिया ईमान को।
यह रचना मौलिक और अप्रकाशित है
प्रकाशराज बौद्ध (सीलू)
पता- गांव सीलू
तहसील- सांचौर
जिला- जालौर (राजस्थान)
शिक्षा - B.Ed,MA