Vishnu Prabhakar | साहित्यकार विष्णु प्रभाकर
जब यह शरदचंद्र की जीवनी प्रकाशित हुई तो साहित्य जगत में विष्णु जी की धूम मच गई. कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण और बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर मात्रा में साहित्य लेखन के बावजूद ‘आवारा मसीहा ‘उनकी पहचान का पर्याय बन गई. इसके बाद ‘अर्द्धनारीश्वर ‘पर उन्हे बेशक ‘साहित्य अकादमी पुरुस्कार ‘हिंदी प्राप्त हुआ परंतु आवारा मसीहा ने साहित्य में उनकी एक अलग पहचान पुख्ता कर दी.
Vishnu Prabhakar : इटावा हिंदी सेवानिधि के कार्यक्रम में मुझे विष्णु प्रभाकर जी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.सरल सौम्य, ओजस्वी लंबे कद के विष्णु प्रभाकर जी खादी का कुर्ता और पाजामा पहने हुये थे और सिर पर गाँधी टोपी, वह इटावा हिंदी सेवानिधि के आमंत्रण पर सम्मानित होने के लिये पधारे थे. उस समय मैं उनके विषय में ज्यादा कुछ जानती नहीं थी लेकिन उनका व्यक्तित्व घर के बुजुर्ग की तरह से लग रहा था. सन् तो याद नहीं है ... परंतु उनकी वृद्धावस्था थी. वृद्धावस्था की पीड़ा व्यक्त करते हुये उनके शब्द अक्षरशः याद हैं .... अब कम लिख पाता हूँ ... कभी कभी कोई चेक दरवाजे पर पड़ा मिल जाता है ....’
अपना पूरा जीवन लेखन को समर्पित करने के बाद वृद्धावस्था के दिनों में मनचाहा न लिख पाने की पीड़ा एक लेखक, चित्रकार या वही समझ सकता है जो शारीरिक रूप से अक्षम हो चुका हो.. वही दर्द शायद वह अनुभव कर रहे थे ...
विष्णु प्रभाकर जी हिंदी के यशस्वी साहित्यकार हैं. जिन्होंनें साहित्य के लिये अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया. सच पूछिये तो उनके जीवन की एक-एक साँस साहित्य के रंग में रंगी है. एक एक क्षण सृजन के आलोक से आलोकित है और लेखन से मिलने वाले अल्प पारिश्रमिक या आकाशवृत्ति के सहारे अपना जीवन गुजारने का संकल्प किया, उसे पूरा करके भी दिखाया. उनमें विष्णु जी का नाम बहुत ऊँचाई पर नजर आता है.
विष्णु प्रभाकर जी ने हिंदी की प्रायः सभी विधाओं कहानी, नाटक, उपन्यास ,यात्रावृत्त, रेखाचित्र, संस्मरण,निबंध, अनुवाद, बाल साहित्य, आदि में प्रचुर मात्रा में लेखन किया, परंतु फिर भी वह स्वयं को कहानीकार ही मानते थे. उनकी कृतियों में देश प्रेम,राष्ट्रवाद तथा सामाजिक विकास मुख्य भाव होता हैण्वह हिंदी के उन विरले साहित्यकारों में से एक थे, जिन्होंने कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, यात्रावृत्तांत लिखे.‘आवारा मसीहा’ जैसी कालजयी रचना लिखने वाले विष्णु प्रभाकर जी का जन्म २१ जून १९१२ को उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर स्थित ग्राम मीरापुर में हुआ था. उनके पिता का नाम दुर्गा प्रसाद और माता का नाम महादेवी था. उनकी माँ महादेवी पढी लिखी महिला थीं. उन्होंने अपने समय में पर्दा प्रथा का विरोध किया था. विष्णु प्रभाकर का असली नाम विष्णु दयाल था .
विष्णुप्रभाकर जी का विवाह ३० मई १९३८ को सुश्री सुशीला देवी से हुआ था. विवाह के समय विष्णु जी की आयु २६ वर्ष थी. जिन्होंने महादेवी जी से प्रभावित होकर समाज सेवा का कार्य किया था. उनके परिवार में दो बेटे और दो बेटियाँ हैं.वहीं कैंसर जैसी घातक बीमारी के कारण उनका ८ जनवरी १९९० को ६० वर्ष की आयु में देहांत हो गया.
प्रारम्भिक शिक्षा -विष्णु प्रभाकर की प्रारंभिक शिक्षा मीरापुर में ही हुई. इसके बाद वह अपनी नानी के घर हिसार आ गये. प्रभाकर जी के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसी वजह से उन्हें नानी के घर हिसार में आगे की शिक्षा के लिये जाना पड़ा था .
व्यवसाय- प्रभाकर जी के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. यही कारण था कि उन्हें काफी कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना पड़ा था. वे अपनी शिक्षा भी भली प्रकार से नहीं प्राप्त कर पाये थे. अपने घर की परेशानियों और जिम्मेदारियों के बोझ के कारण उन्होंने अपने को मजबूत बना लिया था.
उन्होंने वर्ष १९२९ में हिसार के चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की. इसके बाद वह हिसार में ही सरकारी सेवा में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी की तरह से नौकरी करने लगे. जहाँ उन्हें प्रतिमाह १८ रुपये मिला करते थे. सरकारी नौकरी के समय भी वे साहित्य के अध्ययन और लेखन में संलग्न रहे.
विष्णु प्रभाकर जी ने डिग्रियाँ और उच्च शिक्षा प्राप्त की, परंतु साथ में अपने घर परिवार की जिम्मेदारियों को पूरी तरह से निभाया,यह उनके अथक प्रयासों का ही परिणाम था .
Vishnu Prabhakar : लेखन कार्य-
प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी महात्मा गाँधी जी के जीवन आदर्शों से प्रेम के कारण उनका रुझान काँग्रेस की तरफ हो गया. वे आजादी के दौर में बजते राजनैतिक बिगुल से प्रभावित हो गये थे. उनकी लेखनी भी आजादी के लिये संघर्षरत थी. अपने लेखन के दौर में वे प्रेमचंद्र, यशपाल और अज्ञेय जी जैसे महारथियों के सहयात्री भी रहे, किंतु रचना के क्षेत्र में उनकी अपनी अलग पहचान बन चुकी थी.
सन् १९३१ में हिंदी मिलाप में विष्णु प्रभाकर जी की पहली कहानी ‘दीवाली की रात’ लाहौर से निकलने वाले समाचार पत्र ‘मिलाप’ में प्रकाशित होने के साथ ही उनके लेखन का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह जीवन पर्यंत २००७ तक निर्बाध चलता ही रहा, यानी ७६ साल ....
कोई लेखक इतना, वह भी लगातार के साथ इतना स्तरीय कैसे लिख सकता है .... प्रभाकर जी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण थे. उनका लेखन विचार या विषय नारों की तरह शोरगुल में नहीं बदलता था. मनुष्य मन की जटिल व्यवस्था हो या अमानवीय असामाजिक परिस्थितियाँ, विष्णु प्रभाकर हमेशा अपने लेखन से उस मनुष्य की चिंता करते थे, जिसे सताया जा रहा होता ... इसीलिये उनकी कथावस्तु में प्रेम, मानवीय संवेदना पारिवारिक संबंध, अंधविश्वास जैसे विषय मौजूद हैं .
अपने शब्द साहित्य से वह भारतीय वाग्मिता और अस्मिता को व्यंजित करने के लिये प्रसिद्ध रहे विष्णु प्रभाकर के अनुभव उनकी रचनाओं का हिस्सा बने. उन्होंने मनुष्य जीवन के झूठ और पाखंड को काफी नजदीक से देखा, उसके छोटे से छोटे क्रियाकलाप को परखा, मनुष्य के अंतर में चल रहे द्वंद्व को समझा, अपने दीर्घ अनुभव के सांचे में ढाल कर उन्हें शब्द देते चले गये .
Vishnu Prabhakar प्रथम नाटक रचना –
१९३३ में वे हिसार नगर की शौकिया नाटक कंपनियों के संपर्क में आये. उनमें से एक कंपनी में अभिनेता से लेकर मंत्री तक का कार्य किया.१९३८ में हंस का एकांकी विशेषांक प्रकाशित हुआ. उसे पढने के उपरांत और कुछ मित्रों की प्रेरणा से सन् १९३८ में प्रथम एकांकी लिखा, जिसका शीर्षक था ...`हत्या के बाद' इसके पश्चात् प्रभाकर जी ने लेखन को ही अपनी जीविका बना लिया .
वे आकाशवाणी, दिल्ली के ड्रामा प्रोड्यूसर तथा बालभारती के संपादक भी रह चुके हैं. इसके साथ साथ उन्होंने पंजाब विश्विद्यालय से इंग्लिश में बी. ए. की डिग्री प्राप्त की. पंजाब विश्वविद्यालय से ही उन्होंने ‘हिंदी भूषण,’ ‘प्राज्ञ', ‘विशारद', ‘हिंदी प्रभाकर’ आदि की हिंदी संस्कृत परीक्षायें भी उत्तीर्ण किया. १९४४ में वे दिल्ली आ गये. कुछ समय तक अखिल भारतीय आयुर्वेद महामंडल और आकाशवाणी में काम किया. उनके जीवन पर आर्य समाज और महात्मा गाँधी के जीवन दर्शन का गहरा प्रभाव रहा है.
स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय - वह स्वतंत्रता आंदोलन में १९४० और १९४२ में गिरफ्तार भी किये गये और शासनिक आदेश के अनुसार उन्हें पंजाब छोड़ना पड़ा. उन्हीं दिनों उन्होंने खादी पहनने का संकल्प लिया और उसे जीवन पर्यंत निभाया. अनेक विधाओं में लिखने के बाद भी वह स्वयं को कहानीकार ही कहते थे. यह उनकी महानता का द्योतक है. वह अपने प्रारंभिक जीवन में रंगमंच से भी संबद्ध रहे. उन्होंने अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया है.
कालजयी रचना आवारा मसीहा से मिली विशेष प्रसिद्धि-
बांग्ला भाषा सीख कर शरदचंद्र के समय में सैकड़ों लोगों से बातचीत की – नाथूराम शर्मा प्रेम के कहने से शरद चंद्र की जीवनी ‘आवारा मसीहा ‘लिखने के लिये प्रेरित हुये. यह उनकी कालजयी चर्चित रचना है. इसके लिये उन्होंने अपने जीवन के १४ वर्ष लगाये . उन्होंने बाँग्ला भाषा सीख कर शरद चंद्र के सैकड़ों समकालीन लोगों से संपर्क करके उनसे बातचीत की , उनके विचारों को जाना . बिहार, बंगाल और बर्मा (म्यांमार) का व्यापक भ्रमण किया. इसके पूर्व शरद चंद्र की कोई प्रामाणिक जीवनी नहीं थी.
जब यह शरदचंद्र की जीवनी प्रकाशित हुई तो साहित्य जगत में विष्णु जी की धूम मच गई. कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण और बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर मात्रा में साहित्य लेखन के बावजूद ‘आवारा मसीहा ‘उनकी पहचान का पर्याय बन गई. इसके बाद ‘अर्द्धनारीश्वर ‘पर उन्हे बेशक ‘साहित्य अकादमी पुरुस्कार ‘हिंदी प्राप्त हुआ परंतु आवारा मसीहा ने साहित्य में उनकी एक अलग पहचान पुख्ता कर दी.
विस्तृत रहा कार्य क्षेत्र- विष्णु प्रभाकर ने हिसार में अपनी नौकरी के दौरान नाटक मंडली में भी काम किया. वहीं दिल्ली आने के बाद उन्होंने लगभग दो वर्षों तक अखिल भारतीय आयुर्वेद महामंडल में लेखाकार के रूप में भी कार्य किया. किंतु यहाँ से त्यागपत्र देने के बाद स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य करने लगे.
आजादी के बाद भारत सरकार के आमंत्रण पर सितंबर १९५५ में आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र के नाट्यनिर्देशक नियुक्त हो गये. जहाँ उन्होंने १९५७ तक अपनी सेवायें प्रदान की. इसके बाद वे तब सुर्खियों में आये, जब राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार के विरोधस्वरूप उन्होंने पद्मभूषण की उपाधि वापस करने की घोषणा कर दी. विष्णु प्रभाकर जी आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र पत्रिकाओं तथा प्रकाशन संबंधी मीडिया के विविध क्षेत्रों में लोकप्रिय रहे. देश विदेश की अनेक यात्रायें करने वाले विष्णु जी जीवनपर्यंत पूर्णकालिक मसिजीवी रचनाकार के रूप में साहित्य की साधना में लिप्त रहे .
प्रभाकर जी की पहली कहानी १९३१ में जब वह मात्र १९ वर्ष के थे तब प्रकाशित हुई थी.
प्रभाकर जी की कृतियाँ-
विष्णु प्रभाकर जी की मुख्य कृतियाँ निम्नलिखित हैं...
१. कहानी संग्रह- `संघर्ष के बाद', ‘धरती अब भी घूम रही है', `मेरा वतन', ‘खिलौने’, ‘आदि और अंत'‘, ‘एक आसमान के नीचे' ‘अधूरी कहानी,`कौन जीता कौन हारा’, ‘तपोवन की कहानियाँ,‘पाप का घड़ा’, ‘मोती किसके .’
२. बाल कथा संग्रह- `क्षमादान', ‘गजनंदन लाल के कारनामें’, ‘घमंड का फल’, ‘दो मित्र', ‘सुनो कहानी', ‘हीरे की पहचान’, इसके अतिरिक्त ‘मोटेलाल’, ‘कुंती के बेटे’, ‘रामू की होली'‘,`दादा की कचहरी', ‘जब दीदी भूत बनी,’ ‘जीवन पराग', ‘बंकिमचंद्र’, ‘जादू की गाय', ‘घमंड का फल’, ‘हड़ताल', ‘हीरे की पहचान’, ‘मोतियों की खेती’, ‘गुड़िया खो गई', ‘मन के जीते जीत’, ‘खोया हुआ रतन’, ‘कुम्हार की बेटी,’ ‘मैं अछूत हूँ’,आदि प्रमुख बाल कहानियाँ हैं.
३.उपन्यास- `ढलती रात’ ,`स्वप्नमयी’ , ‘अर्द्धनारीश्वर', ‘धरती अब भी घूम रही है’ ,'पाप का घड़ा',‘होरी', ‘कोई तो',`निशिकांत', ‘तट के बंधन', ‘स्वराज्य की कहानी'.
४. आत्मकथा- `क्षमादान', ‘पंखहीन',नाम से उनकी आत्मकथा ३ भागों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी है. ‘और पंछी उड़ गया', ‘मुक्त गगन में'.
५.नाटक- ‘सत्ता के आर पार ,’ ‘हत्या के बाद ‘, ‘नवप्रभात डॉक्टर ‘, ‘प्रकाश और परछाइयाँ ‘,’बारह एकांकी ‘, ‘अब और नहीं ,’ ‘ टूटते परिवेश’ , ‘गांधार की भिक्षुणी’ और ‘अशोक'
६.जीवनी- `आवारा मसीहा', ‘अमर शहीद भगत सिंह'
७.यात्रा वृत्तांत- ‘ज्योतिपुंज हिमालय’, ‘जमुना गंगा के नैहर में', ‘हँसते निर्झर’ ‘दहकती भट्टी'
८. संस्मरण- `हमसफर मिलते रहे'
९. कविता संग्रह- `चलता चला जाऊँगा' ( एकमात्र कविता संग्रह )
पुरस्कार व सम्मान-
विष्णु प्रभाकर जी की प्रमुख रचना आवारा मसीहा सर्वधिक चर्चित जीवनी है. इस जीवनी की रचना के लिये उन्हें ‘ पाब्लो नेरुदा सम्मान',`सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ जैसे कई विदेशी पुरुस्कार प्राप्त हुये.
इनका लिखा प्रसिद्ध नाटक ‘सत्ता के आर पार' पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ‘मूर्ति देवी पुरुस्कार ‘प्रदान किया गया. हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रभाकर जी को ‘शलाका सम्मान' भी मिल चुका है, ‘पद्मभूषण पुरुस्कार' भी मिला परंतु राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार के विरोधस्वरूप पद्मभूषण की उपाधि वापस करने की घोषणा कर दी .
निधन-
विष्णु प्रभाकर जी का निधन ९६ वर्ष की उम्र में ११ अप्रैल २००९ को नई दिल्ली में हुआ था. उनकी इच्छानुसार मृत्यु के बाद उनके शरीर को चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों के उपयोग के लिये अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स ) को दान कर दिया गया.
हिंदी साहित्य के इस अमूल्य मोती के अवसान से साहित्य जगत के एक जगमगाता सितारा साहित्य के आकाश से विलीन हो गया.
इसमें संदेह नहीं कि विष्णु प्रभाकर हिंदी साहित्य ते महान् ध्वजवाहक और महारथी हैं. उनकी लेखनी को जैसे अमरत्व का वरदान हासिल हो चुका है. साहित्य की हर विधा में उनकी कलम चली है और उसे एक नया गौरव दिया है इस योगदान परंतु उनके रागात्मक संस्मरणों का तो जवाब ही नहीं ... क्यों कि इसमें उनकी सहज . सरल और तरल स्मृतियाँ नदी की मुक्त धारा की भाँति बहती हैं और अपने कल-कल निनाद से हर पाठक के मन और आत्मा में बस जाती हैं. विष्णु जी के संस्मरण हिंदी साहित्य का जीवंत इतिहास भी है, जिसके पन्ने पलटते हुए बीसवीं सदी के साहित्य की अमर विभूतियाँ एक-एक करके हमारी आँखों के समक्ष अपने व्यक्तित्व की सहज प्रभा और पारदर्शिता से हमें भीतर बाहर से भर देती हैं. इन कालजयी स्मृतियों को सहेजकर बड़े करीने से हिंदी के सहृदय पाठकों एवं साहित्य रसिकों के आगे प्रस्तुत करने के लिये हम सभी को विष्णु जी का कृतज्ञ होना चाहिये. उन्होंने अपनी सुमधुर स्मृतियों के डरिये हिंदी साहित्य की अनेक महान् हस्तियों से हम सबको रुबरू करवाया. उनके इस योगदान को हम सब कभी नहीं भूल सकते.
विष्णु प्रभाकर जी की साहित्यिक कृतियाँ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विषयों की खोज के लिये जानी जाती हैं एवं साहित्य जगत में इन विषयों की जानकारी लेने के लिये प्रसिद्ध हैं. हिंदी साहित्य पर उनका प्रभाव महत्वपूर्ण रहा है. भारतीय साहित्य के संदर्भ में उनके लेखन का अध्ययन एवं प्रशंसा निर्बाध जारी है .
पद्मा अग्रवाल
What's Your Reaction?