मूर्धन्य व्यंग्यकार- हरिशंकर परसाई

Harishankar Parsai — the pioneer of Hindi satire, who transformed humor into a weapon of social awareness. Discover his life journey, struggles, literary works, and fearless writings that exposed hypocrisy, corruption, and moral decay in modern society.

Oct 24, 2025 - 17:39
 0  2
मूर्धन्य व्यंग्यकार- हरिशंकर परसाई
Hari Shankar Parsai

    हरिशंकर परसाई का जन्म २२ अगस्त १९२४ को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के ‘जमानी’ नामक गाँव में हुआ था। परसाई जी के माता-पिता के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनके पिता कोयले की ठेकेदारी का काम करते थे,जिसके कारण इनका परिवार इधर-उधर घूमता रहता था। इनकी माताजी बीमार रहती थीं। परसाई जी की उम्र १२-१५ वर्ष की थी तभी उनकी माता का देहांत हो गया था। अपने पाँच भाई- बहनों में परसाईजी सबसे बड़े थे। पिता की मृत्यु के बाद उनके कंधों पर ही पारिवारिक जिम्मेदारी आ गई थी। उनके ऊपर दो छोटी बहनों एवं एक भाई का बोझ किशोरावस्था में ही आ गया था। परसाई जी के ही शब्दों में-‘ मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी। समझने लगा कि पिताजी भी अब जाते ही हैं। बीमारी की हालत में उन्होंने एक बहिन की शादी कर दी थी, बहुत मनहूस उत्सव था वह। मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है, पर अभी दो छोटी बहनें और एक भाई थे ।’ 

परसाईजी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे नागपुर चले आए। नागपुर विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी विषय लेकर एम.ए.की परीक्षा उत्तीर्ण की। मैट्रिक पास करने के बाद१८ वर्ष की आयु में परसाई जी ने वन-विभाग में नौकरी की। वहाँ के सरकारी टपरे में रहकर उन्होंने अपने को मजबूत किया। कठिनाइयों का सामना करना उन्हें आ गया था। उन्होंने एक बात सीख ली थी कि उन्हें बिना टिकट ही सफर करना है। परसाई जी लिखते हैं- ‘जबलपुर से इटारसी, टिमरनी, खंडवा, देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं। मैं बिना टिकट बेखटके गाड़ी में बैठ जाता।तरकीब बहुत-सी आ गई थी।’ उन्होंने १९४१ से १९४३ के दरम्यान जबलपुर में ‘स्पेस ट्रेनिंग कॉलेज’ में शिक्षण-कार्य का अध्ययन भी किया। सन १९४३ में परसाईजी वहीं के ‘मॉडल हाई स्कूल’ में अध्यापक हो गए। १९५२ में उन्होंने यहाँ से नौकरी छोड़ दी। उन्होंने १९५३ से १९५७ के दरम्यान प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की।

हरिशंकर परसाई जी हिंदी के पहले रचनाकार थे,जिन्होंने व्यंग्य को ‘विधा’ का दर्जा दिलाया। उन्होंने व्यंग्य को मनोरंजन की परंपरागत लीक से हटाकर समाज के साथ जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ उन तमाम सामाजिक वास्तविकताओं के समक्ष खड़ा करती हैं, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग हो पाना असंभव है।हमारी सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की वास्तविकता को परसाई जी ने काफी निकट से अनुभव किया। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन-मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने हमेशा विवेक और विज्ञान सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में व्यक्त किया। नौकरी छोड़ने के उपरांत परसाईजी ने स्वतंत्रलेखन शुरू किया। उनकी पहली रचना ‘स्वर्ग से नरक  जहाँ तक है’ मई १९४८ में ‘प्रहरी’ में प्रकाशित हुई। इसमें उन्होंने धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास के खिलाफ पहली बार जमकर लिखा था।परसाईजी कार्लमार्क्स से काफी प्रभावित थे । ’सदाचार का ताबीजपर परसाईजी की प्रमुख रचनाओं में से एक है, जिसमें रिश्वत लेने-देने के मनोविज्ञान को बड़ी प्रमुखता से उजागर किया है। परसाई जी के बारे में जाने-माने व्यंग्यकार रवींद्र त्यागी ने कहा था-‘आजादी से पहले के हिंदुस्तान को जानने के लिए जैसे सिर्फ  प्रेमचंद को पढ़ना ही काफी है उसी तरह आजादी के बाद का पूरा दस्तावेज परसाई की रचनाओं में सुरक्षित है।’

परसाई जी ने कबीर की तरह दुनिया को देखा। वे हर आडंबर और कुंठा के साये में जिए। कबीर ने उन्हें मिथ्या तत्वों पर प्रहार करने की ताकत दी। परसाई जी ने अनेक रचनाकारों की कृतियों को पढ़ा और नए जीवन का संघर्ष देखा। परसाई जी ने अपने व्यक्तित्व की रक्षा के लिए एक लक्ष्य बनाया। वे लिखते हैं-‘ मैंने तय किया परसाई डरो किसी से मत।डरे कि मरे। सीने को ऊपर-ऊपर कड़ा कर लो। भीतर तुम जो भी हो, जिम्मेदारी और गैर जिम्मेदारी के साथ निभाओ। जिम्मेदारी को अगर जिम्मेदारी के साथ निभाओगे तो वह नष्ट हो जाएगी।इसी निर्भीक प्रवृत्ति के कारण वे किसी भी नौकरी में स्थाई रूप से टिक न सके। परसाई जी को जीवन में बड़ी त्रासदी और गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा।

यह भी पढ़े:-भारतीय संस्कृति के व्याख्याता : मैथिलीशरण गुप्त

जबलपुर,रायपुर से निकलने वाले अखबार ‘देशबंधु’ में ‘पूछिये परसाई से’ स्तंभ के माध्यम से परसाई जी पाठकों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर देते थे। पहले इस स्तंभ में हल्के इश्किया और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाई जी ने लोगों को गंभीर सामाजिक, राजनीतिक प्रश्न पूछने के लिए भी प्रेरित किया । कुछ समय बाद इसका दायरा अंतरराष्ट्रीय हो गया। पाठक उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिए अखबार का बड़ी उत्सुकता से इंतजार करते थे। परसाई जी के बारे में कमलेश्वर ने लिखा है- ‘जब भी ‘सारिका’ में परसाई का स्तंभ शुरू होता था,`सारिका’ का प्रिंटआर्ट बढ़ जाता था। परसाई जी हिंदी साहित्य के दिलीप कुमार थे।
       परसाई जी की भाषा में व्यंग्य की प्रधानता है। उनके एक-एक शब्द में व्यंग्य के तीखेपन को बखूबी देखा जा सकता है। लोक प्रचलित हिंदी के साथ उर्दू,अंग्रेजी शब्दों का भी उन्होंने खुलकर प्रयोग किया है। पाखंड,बेईमानी आदि पर परसाईजी ने अपने व्यंग्यों से गहरी चोट की है। वे बोलचाल की सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं। चुटीले व्यंग्य करने में कोई परसाई जी का सानी नहीं है।

       परसाई जी ने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाली, नई दुनिया में-‘सुनो भाई साधो’,नयी कहानियों में-‘पाँचवाँ कालम’ और ‘उलझी-उलझी’ तथा कल्पना में- ‘और अन्त में’ इत्यादि कहानी, उपन्यास एवं निबंध लेखन के बावजूद मुख्यतः व्यंग्यकार के रूप में विख्यात हुए। परसाई जी ने अपने व्यंग्य के द्वारा बार-बार पाठकों का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियों की ओर आकर्षित किया है जो हमारे जीवन को खोकला एवं कमजोर बना रही हैं। उन्होंने सामाजिक,राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं शोषण पर करारा व्यंग्य किया है जो हिंदी व्यंग्य-साहित्य में अनूठा है। परसाई जी अपने लेखन को एक सामाजिक कर्म के रूप में देखते हैं, उनका मानना है कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविक साहित्य लिखा ही नहीं जा सकता।
परसाई जी की व्यंग्य रचनाओं में- विकलांग श्रद्धा का दौर,दो नाक वाले लोग, अध्यात्मिक पागलों का मिशन, क्रांतिकारी की कथा, पवित्रता का दौरा, पुलिस मंत्री का पुतला, वह जो आदमी है न, नया साल, घायल बसंत, बारात की वापसी, ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड, उखड़े खंबे, शर्म की बात पर ताली पीटना, बदचलन, एक अशुद्ध बेवकूफ, भगत की गत, मुंडन, इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर, एक मध्यमवर्गीय कुत्ता, सुदामा के चावल, अकाल उत्सव, भेंड़े और भेड़िए, बस की यात्रा, आदि प्रमुख हैं। निबंधों में से- ‘अपनी-अपनी बीमारी’,माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा, प्रेमचंद के जूते, हम एक उम्र से वाकिफ़ हैं, तब की बात और थी, पगडंडियों का जमाना,जैसे उनके दिन फिरे, सदाचार का ताबीज, शिकायत मुझे भी है, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, वैष्णो की फिसलन, भूत के पांव पीछे, बेईमानी की परत, सुनो भाई साधो,तुलसीदास चंदन घिसें, कहत कबीर, हंसते हैं रोते हैं, ऐसा भी सोचा जाता है, पाखंड का अध्यात्म, आवारा भीड़ के खतरे आदि प्रमुख हैं।
हिंदी साहित्य के प्रख्यात लेखक व्यंग्य को नई धार देने वाले साहित्यकार परसाई जी को मध्य प्रदेश शासन, जबलपुर विश्वविद्यालय ने डी.लिट्. की मानद उपाधि से सम्मानित किया। ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए १९८२ में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ द्वारा नवाजा गया।

प्रो. डॉ. दिनेशकुमार
कांदीवली, मुंबई

What's Your Reaction?

Like Like 0
Dislike Dislike 0
Love Love 0
Funny Funny 0
Angry Angry 0
Sad Sad 0
Wow Wow 0