लमही : एक यादगार साहित्यिक यात्रा

This heartfelt travel memoir describes a visit to Lamhi, the birthplace of Munshi Premchand — the pioneer of realism in Hindi literature. The article reflects on his timeless contributions, the neglected state of his ancestral home, and the urgent need to preserve his literary and cultural heritage. It’s not just a journey to a place, but a journey into the soul of Indian literature.प्रेमचंद ने अपनी साहित्यिक यात्रा में यथार्थवाद की नींव डाली और उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज के विभिन्न वर्गों के जीवन को दर्शाया। उन्होंने किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, और दलितों की समस्याओं पर प्रकाश डाला और उनके जीवन के संघर्षों को चित्रित किया। प्रेमचंद की कहानियाँ और उपन्यास हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और आज भी उनकी रचनाएँ लोकप्रिय हैं।

Oct 23, 2025 - 16:26
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लमही : एक यादगार साहित्यिक यात्रा
Munshi Premchand ji

हमारे भीतर एक दुनिया है- विचारों, भावनाओं, प्रकाश और सौंदर्य की शक्ति की दुनिया। हमारे भीतर की यह दुनिया मन से संचालित होती है। जीवन की जो अवधि मिली है उसमें संवेदनाओं और भावनाओं की गहरी भूमिका रही है। तभी तो जीवन रसपूर्ण और मोहक बन पाता है। ऐसे ही हमारे जीवन में कुछ चीजें बड़ी बेसब्री, तड़प और लंबी प्रतीक्षा के बाद प्राप्त होती हैं भले ही वो हमारे अत्यंत करीब ही क्यों न हों। लेकिन जब मिलती हैं तो उनसे अत्यंत सुखद अनुभूति प्राप्त होती है, जैसे मुझे वर्षों की चाहत के बाद महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद जी की पावन जन्मस्थली `लमही' जाकर प्राप्त हुई। दिनांक ०८ जून २५ को प्यारे व श्रेष्ठ साहित्यिक अभिरुचि से सम्पन्न कुछ व्यक्तित्वों के साथ `लमही' की सुखद साहित्यिक यात्रा का एक दुर्लभ संयोग प्राप्त हुआ। मैं मुंशी प्रेमचंद जी के बारे में इतना तो जानती ही थी कि उनको  हिन्दी साहित्य का युग प्रवर्तक माना जाता है, और उनकी रचनाएँ जनसाधारण की भावनाओं, परिस्थितियों, और समस्याओं का मार्मिक चित्रण करती हैं । प्रेमचंद जी को पढ़ना हमेशा सुखकारी होता है। 
एक साहित्यकार के लिए मुंशी प्रेमचंद जी के पवित्र आंगन में कुछ पल बिता पाना भी सौभाग्य से कम नहीं है। लेकिन एक तरफ हमें उनकी जन्म व कर्मस्थली में पहुंच कर गर्व व ख़ुशी महसूस हुई तो दूसरी तरफ हमारे इतने महान साहित्यकार के भवन और वहाँ प्रदर्शित उनके जीवन से जुड़ी सामग्री की दुर्दशा देखकर मन दुःखी भी हो रहा था।    
जिसने अपने सम्पूर्ण जीवन के अनमोल समय को साहित्य व समाज के लिए समर्पित कर दिया- मुंशी प्रेमचंद, जिनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, भारतीय साहित्य के सबसे महान लेखकों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है, विशेषकर अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से। उनका जन्म ३१ जुलाई १८८० को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के लमही गांव में हुआ था।   
प्रेमचंद ने अपनी साहित्यिक यात्रा में यथार्थवाद की नींव डाली और उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज के विभिन्न वर्गों के जीवन को दर्शाया। उन्होंने किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, और दलितों की समस्याओं पर प्रकाश डाला और उनके जीवन के संघर्षों को चित्रित किया। प्रेमचंद की कहानियाँ और उपन्यास हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और आज भी उनकी रचनाएँ लोकप्रिय हैं। 
उनकी प्रमुख रचनाओं में `ईदगाह',`गोदान', `कफ़न', `निर्मला', `गबन', `सेवासदन', `रेवती', `प्रेमाश्रम', `मंगलसूत्र', आदि शामिल हैं । प्रेमचंद का साहित्य हिंदी साहित्य में यथार्थवादी साहित्य की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।  
लमही में उनके भवन का अवलोकन करते हुए मेरी चेतना के जैसे एक एक कर पृष्ठ पलटते जा रहे थे। उन्होंने हमारे लिए साहित्य और जन चेतना की एक प्रबल विरासत छोड़ी है जो हमारे दौर में अब भी संगत है। आज के समय मे भी क्यों प्रेमचंद प्रासंगिक बने हुए हैं? कारण बहुत स्पष्ट हैं, उनके द्वारा रचित साहित्य में  हम उस युग के आम आदमी की सही तस्वीर देख सकते हैं। समाज के आगे जलने वाली मशाल के रूप में साहित्य की भूमिका की प्रेमचन्दीय  पहचान थी। समाज में साहित्य को चेतना का स्तर तब प्राप्त होता है, जब हम बातों को जीवन और जगत से जोड़कर देखें। अपने देश से जोड़कर जब हम साहित्य सृजन करते हैं, अपने देश और समाज मे जीकर जब रचनाएं लिखीं जाती हैं तब वह साहित्य बड़ा होता है। 
विचारों की तन्द्रा भंग हुई तो दिखाई दे रहा था- प्रेममचंद जी के जीवन के उपरांत उनके स्मारक व यादगार साहित्यिक वस्तुएं ऐसी अव्यवस्थित स्थिति में पड़ीं थीं- उनका पैतृक भवन पूर्णतः धूल मिट्टी से अटा पड़ा था व दिवारों के रंग व प्लास्टर भी छूट गये हैं, दरवाजे और खिड़कियों को दीमक खा चुके हैं। इतने महान साहित्यकार के यादगार भवन, जिसे सरकार ने साहित्यक हेरिटेज तक घोषित किया हुआ है उसकी ऐसी ऐसी दुर्दशा? देखकर ऐसा लगा कि ऐसी बेकद्री से तो धीरे-धीरे यह साहित्यिक धरोहर गर्त में मिल जाएगी।

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हमारी कोशिश व पूछताछ के फलस्वरूप उपलब्ध जानकारियों से पता चला कि मुंशी प्रेमचंद जी की अधिकांश रचनाएं हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं `जमाना', `सरस्वती', `माधुरी', `मर्यादा', `चाँद', `सुधा' आदि में लिखा। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र `जागरण' तथा साहित्यिक पत्रिका 'हंस' का संपादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा जो बाद में घाटे में रहा और बन्द करना पड़ा। प्रेमचंद फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई भी गए और लगभग तीन वर्ष तक रहे। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। `महाजनी सभ्यता' उनका अंतिम निबन्ध, `साहित्य का उद्देश्य' अन्तिम व्याख्यान, `कफन' अन्तिम कहानी, `गोदान' अन्तिम पूर्ण उपन्यास तथा 'मंगलसूत्र' अन्तिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है। लमही के पैतृक भवन व इनके नाम पर बने हुए इस साहित्यिक शोधशाला में उनकी पुस्तकों व पत्रिकाओं को सहेजने का असफल प्रयास हुआ है। धूल-मिट्टी से सने पॉलीथिन बेग में इन पुस्तकों तथा पत्रिकाओं के अंक व पांडुलिपियां देख कर हमें आश्चर्य मिश्रित रोमांच भी अनुभव हो रहा था तो इस अमूल्य धरोहर के उचित रख-रखाव हेतु सरकार ने लगभग ८ करोड़ रूपए उपलब्ध कराये हैं तो आखिर कहां गई इतनी मोटी इतनी रकम, यह प्रश्न भी हमे साल रहा था? क्यों इतनी अच्छी रकम प्राप्त होने के बाद भी इनके पैतृक भवन व शोधशाला के आंगन में बिजली, पानी व वृक्षारोपण की उचित व्यवस्था नहीं हो पाई? शोध केंद्र की कुर्सियां बेतरतीब पड़ी थी जिन पर मिट्टी की परत जमा हो गई थी, जैसे महीनों से इनकी सुध ही नही ली गई थी।
जिस पवित्र व प्रसिद्ध साहित्यिक स्थल के दर्शन व अध्ययन हेतु देश-विदेश के साहित्यकार आते रहते हैं उसकी इतनी दुर्दशा क्यों? क्या हम हमारे देश के प्राचीन दिव्य साहित्यिक विभूतियों की स्मृतियों को सिर्फ उनकी पुण्य तिथि पर आयोजन करने एवं सोशल मीडिया पर शेयर करने तक ही सीमित रहेंगे? इन विचारों से मन सच में बहुत आहत हुआ। विकास की सीढ़ियां चढ़ता मनुष्य आज भी इस शाश्वत प्रश्न से टकरा रहा है कि महान साहित्यकार प्रेमचंद की विरासत की यह दुर्दशा व अनदेखी क्यों? आज हमारी साहित्यिक संस्कृति इसी तरह के एक नए संकट का सामना कर रही है। साहित्य आगे बढ़ रहा है, जो कि होना भी चाहिए, लेकिन मानव जीवन को दिशा निर्देशित करने वाले महान कालजयी साहित्यकार की विरासत की उपेक्षा हो रही है, यह उपेक्षा आत्मघाती हो सकती है। इस सांस्कृतिक संकट को समझने- समझाने और उससे जूझने के लिए नए सहित्यकोरों को तैयार होना होगा।
लमही की उस पावन,अभिवन्दनीय भूमि पर हमारी मुलाकात आदरणीय श्री सुरेश जी से हुई जो मुंशी प्रेमचंद जी के स्मारक के रख-रखाव में और वहां पहुंचने वाले दर्शकों को उनके जीवनकाल से जुड़ी जानकारीयां देने में नि:स्वार्थ भाव से वर्षों से सेवा में लगे हैं। उनसे `साहित्यिक यात्रा' टीम की हम सभी बहनें मिलीं और उनसे बात कर के हमें उनके इस अनवरत निःस्वार्थ साहित्यिक सेवा पर अत्यंत गर्व महसूस हुआ और साथ ही हमें उनसे बहुत प्रेरणा भी मिली।  
हम कोशिश करेंगे कि इस साहित्यिक पुण्यात्मा के नाम और आवास के संरक्षण हेतु हमने जो भी संकल्प लिया है वह सिर्फ एक उत्सुकता व क्षणिक उत्साह बन कर न रह जाए बल्कि एक ठोस परिवर्तन लाने का कार्य करे। खैर, यह हमारी प्रथम साहित्यिक यात्रा थी जिसमें हमारी आदरणीय बहन डॉ. अलका दूबे जी, मशहूर कवियत्री चेतना तिवारी जी, सहृदय प्यारी रितु जी आदि का बहुत सहयोग रहा जिन्होंने मिलकर इस तरफ सुधार हेतु अपनी बात 'हिंदुस्तान' समाचार पत्र तक पहुंचाने में एकजुटता दिखाई जो अत्यंत सराहनीय है।  
         भवन व शोधशाला के ताले खुलवाने व प्रवेश हेतु शोधशाला के गार्ड को बुलाने में बनारस के निवासी आदरणीय भाई श्री अरविन्द मिश्र हर्ष जी व मुंशी जी के खानदान के मुख्य सदस्य आदरणीय श्री दुर्गा चाचा जी ने हमारी मदद की। 
मुंशी प्रेमचंद जी की मूर्ति पर संकल्प पूर्वक पुष्पहार अर्पित करते हुए हमारे चिंतन को बल व प्रेरणा मिली कि अब समय है कि हम अपने इस संकल्प को आकार दें। अपने सामाजिक - साहित्यिक जीवन के ताने बाने को मजबूत बनाने के लिए हमें महान भारतीय सांस्कृतिक विरासत की अंतर्निहित ताकत को समझ कर उससे बल प्राप्त करना होगा। महान विरासत को बचाने के लिए अपनी संस्कृति के बुनियादी मूल्यों पर जोर देने में भी हमें संकोच नहीं करना चाहिए। हमें इस बात को नहीं भूलना है कि यदि हम अपने महान अतीत से प्रेरणा नहीं लेते हैं तो न हमारा वर्तमान शक्तिशाली बन सकता है ना ही भविष्य शानदार बन सकता है। 
हम उम्मीद करते हैं कि हमारी टीम साहित्यिक यात्रा में हम अपने जैसे ही नि:स्वार्थ साहित्यिक सेवा देने वाली और भी बहनों को जोड़कर एक कारवां बनाएंगे जो वाराणसी व उत्तर प्रदेश फिर आगे चलकर पूरे भारत के महान साहित्यक विभूतियों की स्मृति व उनकी साहित्यिक कृतियों, उनके मूल्यों व आदर्शों को संजोने एवं भवन इत्यादि के रखरखाव की शान क़ायम रखने में सहायक सिद्ध होंगी। 

बीना राय
गाजीपुर (उत्तरप्रदेश)

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