संबंधों के धागे
अक्सर घिरा समस्याओं से, किन्तु किसी को नहीं जताया।
कितनी रातें गुजर गईं यूँ,
तिथियाँ बदलीं पर हम जागे।
किन्तु स्नेह की तकली पर हैं,
काते संबंधों के धागे।
ऐसे भी हैं लोग, चाहते
बिना दिए सबकुछ पा जाना।
कर्तव्यों से विरत रहे, पर
चाह रहे अधिकार जताना।
जिसने समझा, उसने पाया,
रिक्त हाथ रह गए अभागे।
अक्सर घिरा समस्याओं से,
किन्तु किसी को नहीं जताया।
मैं तो हँसकर मिला सभी से,
जो भी मुझसे मिलने आया।
सबको खुश रखने की खातिर,
हमने अपने सुख-दुख त्यागे।
दो घेरे तो उछल गए दो,
कैसे सबको हो समझाना।
इतना सरल नहीं होता है,
वज़न मेढकों का कर पाना।
रिश्तों को जीने की खातिर,
हम अपनों के पीछे भागे।
ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान'
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