रंगकर्म को समर्पित था आलोक चटर्जी का जीवन

कारंत कलाकारों को अधिक से अधिक पढऩे की सलाह देते थे। वे मानते थे कि हिन्दी रंगमंच के अभिनेता बौद्धिक रूप से दरिद्र और मूढ़ हैं। इस बात का आलोक चटर्जी पर गहरा असर हुआ। लगातार रंगयात्राएं करते हुए आलोक चटर्जी पढ़ नहीं पाते थे। रंगयात्राओं के दौरान अभिनय के साथ-साथ आलोक को सैट डिजाइन, लाईटिंग, मेकअप, प्रोपर्टी, कोस्ट्यूम व स्टेज मैनेजर आदि के रूप में काम करने का मौका मिला। लेकिन बहुत कम पढ़ पाने के कारण उन्होंने कारंत जी के सामने पढऩे की इच्छा व्यक्त की।

Apr 9, 2025 - 12:04
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रंगकर्म को समर्पित था आलोक चटर्जी का जीवन
Alok Chatterjee's life was dedicated to theatre

    प्रख्यात रंगकर्मी, निर्देशक, शिक्षक एवं रंग चिंतक आलोक चटर्जी के निधन से रंगकर्मियों एवं कला जगत में मायूसी छा गई है। उन्हें विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘ए मिड समर नाइट्स ड्रीम’ और आर्थर मिलर के ‘डेथ ऑफ सेल्समैन’ के निर्देशन और ‘नट सम्राट’, ‘अनकहे अफसाने’, ‘शकुंतला की अंगूठी’ सहित अनेक नाटकों के लिए हमेशा याद किया जाएगा। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली से ओमपुरी के बाद दूसरे स्वर्ण पदक विजेता थे। मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय का निर्देशक रहते हुए आलोक चटर्जी ने रंगकर्मियों की अपेक्षाओं के अनुकूल ऐसे अनेक कार्य किए, जो उनके जाने के बाद विद्यार्थियों को याद आ रहे हैं।

आलोक चटर्जी का जन्म मध्य प्रदेश के दमोह में 11 जनवरी, 1961 में बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता निशीथ कुमार चटर्जी रेलवे में गार्ड हुआ करते थे। पांच साल की उम्र में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता ‘प्रार्थना’ को मां चित्रा चटर्जी ने तैयार करवाया और दुर्गा पूजा की स्टेज पर उन्होंने पहली प्रस्तुति दी। उन्होंने दमोह के सरकारी स्कूल में आठवीं तक की शिक्षा प्राप्त की। स्कूल में नाटक व सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी की। इसके बाद पिता का स्थानांतरण होने के बाद आलोक अपने परिवार के साथ जबलपुर आ गए। जबलपुर के सेंट थॉमस स्कूल में हिन्दी शिक्षक महावीर जी के नेतृत्व में स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नाटक किए।

बचपन से गहरा जुड़ाव

आलोक चटर्जी का अपने बचपन से गहरा जुड़ाव था। आलोकनामा के दो अंकों में अपने बचपन को याद करते हुए कहते हैं कि बचपन में उनके घर में रेडियो मनोरंजन का साधन था। रेडियो के उद्घोषकों की आवाज का जादू बचपन में ही उन पर असर करने लगा था। स्कूल आते-जाते इमली व जामुन तोडऩा, पांच पैसे की चूर्ण की पुडिय़ा, दस पैसे की अमावट, गटागट की गोलियां, संतरे की गोलियों का खट्टा-मीठा स्वाद, इमली की मिठाई, दमोह में कैलाश भंडार की जलेबी आदि खाने की स्मृतियां उन्हें बड़ी उम्र में भी रोमांचित करती थी। वे भी अन्य बच्चों के साथ ही बांस से धनुष बाण बनाते थे। गुलेल चलाते, रबड़ और लोहे के टायर चलाते थे। कंचे उनका प्रिय खेल था। बेशर्म की झाड़ी को हॉकी की तरह खेलते थे। जबलपुर में बरसात में फुटबाल खेलने की मधुर यादें उनके पास थी। वे याद करते हुए कहते थे कि उनके बचपन के दिनों में जात-पात व धर्म की कोई पहचान नहीं थी। सभी मिलजुल कर रहते थे और बच्चे खेलते थे।

मेडिकल की पढ़ाई बीच में छोड़ नाटक की ओर मुड़े

आलोक के बड़े भाई गौतम चटर्जी एयरफोर्स में इंजीनियर बने। पिता की इच्छा थी कि छोटा बेटा आलोक डॉक्टर बने। परीक्षा पास करके उनका जबलपुर मेडिकल कॉलेज में दाखिला करवा दिया गया। एक सप्ताह तक मेडिकल कॉलेज जाकर आलोक इस निर्णय पर पहुंचे कि मेडिकल की पढ़ाई उनकी रूचि के अनुकूल नहीं है। पिता ने नाटक कर रखे थे। आलोक ने पिता के सामने नाटक करने की इच्छा जताई। पिता ने बेटे का दाखिला जबलपुर के राबर्टसन साईंस कॉलेज में करवा दिया। कॉलेज के प्रथम वर्ष में प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई और लेखक ज्ञानरंजन की उपस्थिति में आलोक ने काका हाथरसी का नाटक-हमीर का हलवा किया। नाटक में उन्हें बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला। अतिथि साहित्यकारों ने उन्हें किसी संस्था के साथ जुडक़र नाटक करने की सलाह दी।

जबलपुर में उन्होंने विवेचना संस्था के साथ जुड़ कर नाटक करने शुरू कर दिए।वहां पर नाटक निर्देशक थे

अलखनंदन। उनके साथ उन्होंने तीन नाटक किए। लखनऊ के नाटककार हमिदुल्लाह का नाटक ‘दरिंदे’ किया। उसका पहला शो लखनऊ में हुआ। दूसरा नाटक मणि मधुकर का ‘इकतारे की आंख’ में आलोक ने तीन भूमिकाएं की। वह नाटक अखिल भारतीय नाट्य समारोह में श्रीराम सेंटर नई दिल्ली में खेला गया। तभी पहली बार उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय देखा। तीसरे नाटक-अखाड़े के बाहर से में आलोक ने मुख्य भूमिका अभिनीत की। यह नाटक अनेक स्थानों पर खेला गया। इस तरह से नाटक खेलते हुए बीएससी पूरी हुई। इसके कुछ समय के बाद आलोक चटर्जी ने भोपाल में रंगमंडल के लिए युवा रंगकर्मियों के लिए आवेदन किया। उस समय उनके पास तीन नौकरियों के साक्षात्कार के लिए कॉल लैटर आए थे। उनके पिता जी ने तीनों पत्र उनके सामने रखे और पूछा- क्या करना है? उन्होंने रंगमंडल में रंगकर्मी बनना तय किया।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली छोड़ कर आए बीवी कारंत ने रंगमंडल में उनका चयन किया और इस तरह से आलोक चटर्जी की रंगयात्रा की शुरूआत हुई। वहां पर उन्होंने पहला नाटक चतुर्वाणी खेला। उसके बाद विजय तेंदुलकर के घासीराम कोतवाल, जयशंकर प्रसाद के विशाख और उसके बाद गिरीश कार्नाड के हयवदन में मुख्य भूमिका का निर्वहन किया। उसके बाद अंधा युग और आधे-अधूरे नाटक खेले। बाबा कारंत, बंसी कौल, श्यामानंद जालान, रूद्रप्रसाद सेन गुप्ता, प्रसन्ना आदि के साथ रंगमंडल भोपाल में उन्होंने काम किया।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला

कारंत कलाकारों को अधिक से अधिक पढऩे की सलाह देते थे। वे मानते थे कि हिन्दी रंगमंच के अभिनेता बौद्धिक रूप से दरिद्र और मूढ़ हैं। इस बात का आलोक चटर्जी पर गहरा असर हुआ। लगातार रंगयात्राएं करते हुए आलोक चटर्जी पढ़ नहीं पाते थे। रंगयात्राओं के दौरान अभिनय के साथ-साथ आलोक को सैट डिजाइन, लाईटिंग, मेकअप, प्रोपर्टी, कोस्ट्यूम व स्टेज मैनेजर आदि के रूप में काम करने का मौका मिला। लेकिन बहुत कम पढ़ पाने के कारण उन्होंने कारंत जी के सामने पढऩे की इच्छा व्यक्त की।

आलोक के रंगमंडल से एनएसडी का विद्यार्थी होने का दिलचस्प किस्सा है। उस समय मोहन महर्षि एनएसडी के निदेशक हो गए थे। कारंत साहब एनएसडी की चयन समिति के सदस्य बनाए गए थे। लेकिन उन्होंने जानबूझकर सदस्य के रूप में काम ना करना चुना। इसके बारे में उन्होंने आलोक चटर्जी के सामने खुलासा नहीं किया। जब आलोक चटर्जी इंटरव्यू देने के लिए गए तो मोहन महर्षि ने उनसे कारंत के स्वास्थ्य के बारे में पूछा। तब आलोक को उनके चयन समिति का सदस्य होने के बारे में पता चला। भोपाल वापिस आने पर कारंत ने आलोक चटर्जी के सामने रहस्य का उद्घाटन किया। उन्होंने कहा कि एनएसडी में तुम्हारा चयन होने पर सब कहते- कारंत ने उनका एनएसडी में चयन करवाया है। यदि चयन नहीं होता तो तुम यह कहते कि कारंत ने रंगमंडल में रखने के लिए उनका एनएसडी में चयन नहीं होने दिया। इसलिए उन्होंने चयन समिति से अपने हाथ खींच लिए।

इस तरह से 1984 में मोहन महर्षि के निर्देशन काल में आलोक चटर्जी एनएसडी के विद्यार्थी हो गए। एनएसडी के प्रथम वर्ष में मोहन महर्षि ने आलोक को ‘इडीपस’ में इडीपस की भूमिका दी। उसके बाद द्वितीय वर्ष में पणिक्कर जी ने ‘उरुभंगम’ में उन्हें बलराम की मुख्य भूमिका दी। फिर रामगोपाल बजाज और प्रसन्ना के निर्देशन में उन्हें नाटक खेलने का मौका मिला। इरफान खान, अमितरंजन बेनर्जी, मीता वशिष्ठ व भारती शर्मा भी उनके बैचमेट रहे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली में वे 1987 तक विद्यार्थी रहे। विद्यार्थी के रूप में उनके अभिनय के लिए ही उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। जबकि एनएसडी के इतिहास में बहुत कम विद्यार्थियों को यह पदक मिला था। उनसे पहले ओमपुरी को ही यह पदक मिला था।

रंगमंच के प्रति समर्पण

इरफान खान तो एनएसडी में दाखिले के समय ही सिनेमा में काम करने के प्रति संकल्पबद्ध थे। वहीं जब मोहन महर्षि और रामगोपाल बजाज आदि ने आलोक चटर्जी से पूछा कि रंगमंडल में पांच हजार दो सौ रूपये की नौकरी छोड़ कर 400 रूपये की छात्रवृत्ति पर तुम क्यों एनएसडी में आना चाहते हो तो आलोक चटर्जी का जवाब था- मुझे जीवन भर नाटक करना है। इंजीनियरिंग करने के लिए उसका डिप्लोमा या डिग्री होना चाहिए। डॉक्टर बनने के लिए उसकी डिग्री होनी चाहिए। इसी तरह से एनएसडी की डिग्री रही रहेगी तो मैं आत्मविश्वास से नाटक कर सकूंगा। आलोक चटर्जी ने एनएसडी में नाटक खेलने के साथ-साथ पुस्तकालय से खूब किताबें पढ़ीं। उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया था कि वे एक दिन में कम से कम चार किताबें पढ़ते थे। यही कारण है कि वे निरे अभिनेता नहीं रहे। उनका मानना था कि रंगकर्मी को पढऩा अवश्य चाहिए। यदि हम खाली हैं तो प्रतिदिन पढऩे का समय बढ़ाने का सचेत प्रयास करना चाहिए।

एक बार उन्होंने कहा था-अभिनय करना मुझे देह व काल से मुक्त कर देता है। अभिनय एक रोमांचक कार्य है, जिसमें एक कलाकार को विभिन्न भूमिकाओं का निर्वहन करने का अवसर मिलता है। कलाकार को भूमिका में डूबना नहीं चाहिए। अभिनय केंचुल पहनने जैसा काम है। जब नाटक हो जाता है तो केंचुल उतार देनी होती है। एक रंगकर्मी तभी दूसरी भूमिकाओं के साथ न्याय कर पाता है। रंगमंच शिक्षण रंगमंच को अगली पीढ़ी तक पहुंचने का माध्यम है। कविता पाठ व गीत गाना यात्रा करने के अलावा उनका शौक था।
रंगमंच के अपने शौक पर उन्होंने एक बार कहा था- ‘मैं एक परफॉर्मर बनने के लिए दिल्ली गया था। अगर मुझे फिल्में करनी होती तो मैं एफटीआईआई पुणे चला जाता। मैं अपनी जिंदगी थिएटर के लिए जी रहा हूं। मैंने एनएसडी से पढ़ाई की है, जिसकी वजह से थिएटर मेरे खून में है।’

लोक कलाओं को समृद्ध किया

रंगमंडल भोपाल, एनएसडी के विद्यार्थी और बाद के रंग संघर्ष के दौरान उन्होंने रंगकर्म में लोक नाट्य व लोक कलाओं का अपनी प्रस्तुतियों में विशेष समावेश किया। रंगगुरु बाबा कारंत ने आलोक चटर्जी को माच, नाचा, पंडवानी, कर्मा सेला आदि की कार्यशालाओं में लगाकर लोकशैलियों से परिचय करवाया। पेंटिंग सहित रजा, स्वामीनाथन, तैयब जी से मिलने और विभिन्न कलाओं के आदान-प्रदान का रास्ता अपनाया। जिस तरह से हबीब तनवीर साहब ने छत्तीसगढ़ की नाचा शैली में शेक्सपियर, सोफोक्लीज व कालीदास आदि को प्रस्तुत किया। नाचा के लोक कलाकारों को अन्तर्राष्ट्रीय मंच प्रदान किया। वहीं पणिक्कर ने सामवेद के श£ोकों से लेकर संस्कृत की शास्त्रीय रचनाओं को प्रस्तुत करने का मार्ग प्रशस्त किया। वैसे ही आलोक चटर्जी ने लोक कलाओं को अपने रंगकर्म का हिस्सा बनाया और लोक कलाओं को समृद्ध किया।

रंगकर्म और घुमक्कड़ी

कलाकारों को खूब यात्राएं करनी पड़ती हैं। आलोक चटर्जी का मानना था कि घुमक्कड़पने का कलाकार होने के साथ गहरा संबंध है। कलाकार के लिए घुमक्कड़ होना बहुत जरूरी है। जब हम दूसरे स्थानों पर जाते हैं तो हमें वहां के रीति-रिवाजों, परंपराओं, बोली-भाषा, गीतों, खान-पान, कोस्ट्यूम, प्रकृति और संस्कृति का ठोस अनुभव होता है। इस तरह से घुमक्कड़ी कला को परिष्कृत करती है। देश-देशांतर में जाकर घूमते हैं तो कलाकार के रूप में हमें समृद्ध अनुभव होते हैं। निर्णय लेने की ताकत भी घूमने से आती है। हमारा देश विविधताओं से भरा है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तरफ से देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में कार्यशालाएं मिलीं।

सिनेमा के गलैमर में उम्र भर नहीं उलझे

आलोक चटर्जी ने कारंत बाबा को वादा किया था कि वे चाहे कोई ऑफर आए 25 साल नाटकों के अलावा कुछ नहीं करेंगे। एनएसडी के तृतीय वर्ष में उन्हें विजय तेंदुलकर ने बेस्ट एक्टर का अवार्ड दिया। यश चोपड़ा मुख्य अतिथि थे। आलोक चटर्जी ने बताया था कि यश चोपड़ा ने ‘लम्हें’ और ‘चांदनी’ फिल्मों के लिए ऑफर किया। उन्होंने स्कंदगुप्त नाटक का बिहार में मंचन करने के लिए यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। उसके बाद अनिल चौधरी ने ‘आसमां कैसे-कैसे’ बनाते हुए सदानंद की मुख्य भूमिका ऑफर की। मणि कौल ने भी उन्हें फिल्म का प्रस्ताव दिया। उन्होंने विनम्रता से ये प्रस्ताव छोड़ दिए। उन्हें इस बात का गर्व रहा कि उन्होंने सिनेमा का कोई प्रलोभन स्वीकार नहीं किया। जेब में भले रूपये नहीं थे, लेकिन सिनेमा के गलैमर में वे नहीं फंसे। बाद में एनएसडी के विस्तार कार्यक्रम के तहत उन्हें नाट्य कार्यशालाएं मिलने लगीं। कईं सालों तक उन्होंने ये कार्यशालाएं करके और जगह-जगह नाटक खेल कर गुजारा किया। उनकी पत्नी शोभा भी उनके साथ नाटक करती थी।

35 साल बाद फिल्मों में किया काम

अपने गुरु बाबा कारंत को किए गए वादे पर आलोक चटर्जी पूरे खरे उतरे। 35 साल के बाद उन्होंने फिल्मों की ओर मुंह किया। प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण में काम किया और रजिस्ट्रार की भूमिका निभाई। हंसल मैहता की फिल्म अलीगढ़ में वसीम अख्तर की भूमिका निभाई। तनुजा चंद्रा की फिल्म में काम किया। सुभाष कपूर ने बुलाया कि महारानी भाग-1 में एक भूमिका रणवीर सेना के नायक का रोल किया। पटना शुक्ला में भूमिका निभाई। लेकिन वे मुंबई में शूट करने के लिए नहीं गए। अधिकतर फिल्मों की शूटिंग भोपाल में ही हुई।

रंग शिक्षक के रूप में हुए विख्यात

एनएसडी करने के बाद नाटकों में अभिनय के साथ-साथ आलोक वर्मा का रंग शिक्षक के रूप में भी सफर शुरू हो गया था। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर कार्यशालाएं की। उन्होंने हजारों कार्यशालाओं में हजारों रंगकर्मी तैयार किए। रंग शिक्षक के रूप में उनकी पहचान बनी तो मध्य प्रदेश स्कूल ऑफ ड्रामा के निदेशक के रूप में उन्हें कार्य करने का मौका मिला। उन्होंने वहां पर अनेक नवाचारी कार्य किए। विद्यालय के विद्यार्थियों के लिए पोस्ट ग्रेजूएट डिप्लोमा की शुरूआत, रंग पत्रिका और स्कूल में बाल रंगमंच की कार्यशालाओं पर विशेष पहलकदमी की।

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एक गहरे रंग चिंतक के रूप में बनाई पहचान

नाटक खेलने के अलावा आलोक चटर्जी ने रंग चिंतक के रूप में अपनी पहचान बनाई। वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि शिक्षा प्रणाली में बदलाव हो रहे हैं। सिनेमा सहित अन्य माध्यम अपनी विषय-वस्तु और तकनीक को लेकर आए दिन बदलाव कर रहे हैं। लेकिन रंगमंच में आज भी 1955 से 1970 तक के नाटक ही खेले जा रहे हैं। आषाढ़ का एक दिन, आधे अधूरे, हयवदन, तुगलक, सखाराम बाइंडर आदि नाटकों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। कोरोना के भयानक दो साल गुजरे हैं। कोरोना के ऊपर हिंदी रंगमंच में कोई स्क्रिप्ट नहीं आई है। इससे यह लगता है कि हिन्दी रंगमंच आज ग्रांटजीवी हो गया है। फेस्टिवल और प्रोजेक्ट ही रंगमंच के केन्द्र में हैं। नवाचार नहीं हो रहे हैं। एनएसडी, बीएनए, एमपीएसडी आदि में रंगमंच की शिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थियों की दौड़ बालीवुड तक की हो गई है। रंगमंच को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने वाले लोग एक से डेढ़ प्रतिशत होंगे और वो भी एक समय तक ही कर पाते हैं।

रंगमंच समाज का धडक़ता हुआ आईना है, जिसमें हम बदलते हुए समाज का प्रतिबिंब देख सकते हैं। रंगमंच एक लाईव मीडिया है। दर्शकों के बिना रंगमंच की कल्पना नहीं की जा सकती। रंगमंच व रंगकर्मियों का कोई वर्ग शत्रु नहीं है। आत्मालोचना करते हुए उन्होंने कहा था कि हममें से कुछ लोगों को उनके मोहल्ले में भी नहीं जानता है। रंगकर्मियों का संत्रास और दुख उसके केन्द्र में वे खुद हैं। रंगकर्मियों का मित्र और शत्रु रंगकर्मी ही होते हैं। अशुद्ध भाषा और अशुद्ध व्याकरण से पीडि़त हैं। अपने अवधूतों को नहीं पहचानते। महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थों में उलझे हुए हैं। क्या हमारे अंदर अपने माध्यम को समझने का माद्दा है। हम अपने माध्यम के बारे में कितना जानते हैं। हमें अपने अंदर झांकना चाहिए।

हर राज्य में हो नाट्य विद्यालय  

वे मानते थे कि हर राज्य के अपने नाट्य विद्यालय होने चाहिएं। उन विद्यालयों को एनएसडी की तर्ज छोड़ कर अपने राज्य की लोक कलाओं और संस्कृति पर काम करना चाहिए। यदि ऐसा हो तो देश भर में एक विराट रंग आंदोलन शुरू हो सकता है। हर राज्य में एफटीआई से फ्रेंचाईजी लेकर अपना फिल्म संस्थान स्थापित किए जाने चाहिएं। इससे नई संभावनाएं खुलेंगी। रंगकर्म, अभिनय व कलाओं के क्षेत्र में शिक्षण व शोध की संभावनाएं खुलेंगी। उनका मानना था कि हर बच्चा एक नई संभावनाएं लेकर आता है। अत: बच्चों की कल्पनाशीलता व विचारशीलता का विकास करने के लिए स्कूलों में नाटक शिक्षा का प्रबंध होना चाहिए।

रंगमंच के नवाचारी उपाय

आलोक चटर्जी ने महसूस किया कि नाटकों के रिहर्सल के स्थल बहुत ही कम हैं। जब तक गांव-नगरों में पर्याप्त मात्रा में रिहर्सल के स्थान व प्रेक्षागृह नहीं बनाए जाते तब तक रिहर्सल स्थल के रूप में मंदिरों के पवित्र परिसरों का इस्तेमाल किया जाए। संग्रहालयों का  प्रयोग किया जाए। रंगमंच में नई पहल का आह्वान करते हुए उन्होंने अनाम शहीदों पर आधारित नाटक करने की जरूरत को रेखांकित किया। अपने गांव व नगर के स्वतंत्रता सेनानियों की जानकारी जुटाकर उन  पर नाटक लिखे जाएं और नाटक खेले जाएं।
संगीत नाटक अकादमी की परियोजना पर काम करते हुए उन्होंने जयशंकर प्रसाद का ध्रुवस्वामिनी नाटक किया। जिसे अकादमी द्वारा उस वर्ष का बेस्ट नाटक घोषित किया गया। इसके अलावा 2019 में उन्हें दिल्ली में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के द्वारा संगीत नाटक अकादमी अवार्ड दिया गया। भारतीय रंगकर्म के विकास में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।  

भवदीय,
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, रंगचिंतक एवं लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल,
हरियाणा-132041

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