' भारतवीर शिरोमणि महाराणा प्रताप’
, जब हमारे हिंदुस्तान पर मुगलों का शासन था। अकबर यहां का राजा था। उसने आसपास की रियासतों को जीतकर अपना राज्य स्थापित कर लिया था, लेकिन उसकी साम्राज्य विस्तार की भूख समाप्त होने का नाम नहीं ले रही थी। उसकी महत्वाकांक्षा थी, कि पूरे हिंदुस्तान पर राज करे और उसकी यह महत्वाकांक्षा बिना राजस्थान पर अधिकार के पूरी हो नहीं सकती थी। उसे मालूम था कि राजस्थान के बांके केसरिया युद्धवीरों को मैदान में जीतना असंभव है, अतः उसने राजाओं के साथ रोटी और बेटी का रिश्ता कायम कर, कई राजपूत राजाओं को अपना दरबारी बना लिया,

`स्वाभिमान की मिसाल, साहस की पहचान,
मातृभूमि का रक्षक, शौर्यवान वो महान।
चेतक की टापों में गूंजता था जिसका राष्ट्रगान,
अमर रहेगा राजस्थान के उस लाड़ले का बलिदान।'
आज जब भारत ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए सिंदूर ऑपरेशन चला कर पहलगाम आतंकी हमले का मुंहतोड़ जवाब देकर नापाक पाक को दहला दिया, तो मुझे राजस्थान के एक जांबाज लाड़ला बहुत याद आ रहा है। आज मैं आपको उसी आन बान शान के रखवाले रणबांकुरे की कहानी सुनाने जा रही हूं, जो न कभी चुका, न कभी रुका, न हारा और न ही थका। बात उन दिनों की है, जब हमारे हिंदुस्तान पर मुगलों का शासन था। अकबर यहां का राजा था। उसने आसपास की रियासतों को जीतकर अपना राज्य स्थापित कर लिया था, लेकिन उसकी साम्राज्य विस्तार की भूख समाप्त होने का नाम नहीं ले रही थी। उसकी महत्वाकांक्षा थी, कि पूरे हिंदुस्तान पर राज करे और उसकी यह महत्वाकांक्षा बिना राजस्थान पर अधिकार के पूरी हो नहीं सकती थी। उसे मालूम था कि राजस्थान के बांके केसरिया युद्धवीरों को मैदान में जीतना असंभव है, अतः उसने राजाओं के साथ रोटी और बेटी का रिश्ता कायम कर, कई राजपूत राजाओं को अपना दरबारी बना लिया, लेकिन इन राजपूत राजाओं को इसकी बड़ी कीमत चुकाने पड़ी। उन्हें अपना स्वाभिमान (सेल्फ रिस्पेक्ट) गिरवी रखना पड़ा, वे अकबर के झरोखे तले हाथ बांधे बंदगी करते थे, पर हिंदुस्तानी धरती मां का एक सपूत ऐसा भी था, जिसने अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता पर आंच तक न आने दी, पता है, वो कौन है?
‘योद्धाओं का योद्धा है राणा,
राजपुताने की शान है राणा,
वीरों के लिए पैगाम है राणा,
हिंदुस्तानी स्वाभिमान है राणा।'
भारतीय इतिहास में साहस, स्वाभिमान और स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया, बहादुर राजा और रणकुशल ही नहीं योद्धा थे, वरन जिसने राष्ट्र, धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सारा सुख ऐश्वर्य का त्याग कर जंगलों का कठोर जीवन को जिया।
ऐतिहासिक अभिलेखों के मुताबिक उनका जन्म ९ मई, १५४० को मेवाड के लब्ध प्रतिष्ठित सिसोदिया राजपूत राजवंश के कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था। उनके पिता उदय सिंह द्वितीय मेवाड़ राजवंश के १२वें शासक और उदयपुर के संस्थापक थे। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। उनको अस्त्र शस्त्र संचालन की शिक्षा जयमल मेड़तिया ने दी थी। किसी कीमत पर वे अपने कुल की मान-मर्यादा और मेवाड़ पर दाग नहीं लगने देना चाहते थे। बचपन में वह तीक्ष्ण बुद्धि, चंचल एवं तेज दिमाग के थे। वे स्वाभिमानी, साहसी एवं अपनी प्रजा से बहुत स्नेह करते थे।
महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक २८ फरवरी, १५७२ में गोगुन्दा में होता हैै, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक १५७२ ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ।
हल्दीघाटी युद्ध- महाराणा प्रताप ने मुगल सम्राट अकबर के सामने कभी समर्पण नहीं किया। उन्होंने हल्दीघाटी युद्ध में मात्र २०००० राजपूत सैनिकों को साथ लेकर मुगल सरदार राजा मानसिंह के ८०००० की सेना का सामना किया। ये युद्ध पूरे एक दिन चला। राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। इसमें १७००० लोग मारे गए। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी। इस युद्ध में उनके प्रिय घोड़े चेतक की भी मृत्यु हो गई और राणा घायल हो गए. शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को उनके स्वामिभक्त सरदार झाला मानसिंह ने अपने प्राण दे कर बचाया।
दिवेर का युुद्ध:
महाराणा प्रताप कुम्भल गढ़ में चले जाते हैं, जो कि पहाड़ियों से घिरा हुआ है, जहाँ पर पहुंचना उस समय आसन नहीं था। भामाशान उन्हें आर्थिक सहायता देते हैं। जंगल के आदिवासी लोगों को महाराणा प्रताप अपनी सेना में शामिल करते हैं। और उन्हें युद्ध की कला सिखाते हैं। इस बार राणा प्रताप सेना में २२००० सैनिक और अकबर की सेना में २००,००० सैनिक थे पर प्रताप की हिम्मत और वीरता पर इस संख्या बल लेशमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा और प्रताप मुगलों से लड़ने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने मुगलों पर आक्रमण करना शुरू किया और उन्होंने कई मुगलों को हराया और अपनी जीत से वे बहुत प्रसिद्ध हो गए। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर को तीन बार- १५७७, १५७८ और १५७९ में हराया था। और जिससे बहुत से देशवासी उनकी सेना में मिल गए. महाराणा प्रताप की शक्ति धीरे-धीरे बढ़ती गई और उन्होंने मुगलों पर अपने आक्रमण जारी रखे। राणा ने अकबर के आगे न कभी सिर झुकाया और न उसे बादशाह माना। उन्होंने मेवाड़ के उपजाऊ प्रदेश को उजाड़ दिया, खेती नष्ट करवा दी और शाही फौज की रसद तथा व्यापार का मार्ग रोककर अपनी कुशल राजनीतिज्ञता का परिचय दिया।
अकबर एक बार फिर महाराणा प्रताप से युद्ध की योजना बनाता है। इधर महाराणा भी पूरी तरह से युद्ध के तैयार थे। राजस्थान के इतिहास १५८२ में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोए हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई। इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलोें के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ। कर्नल जेम्स टॉड का महाराणा प्रताप के विषय में कथन है- `आल्प्स पर्वत के समान अरावली में कोई भी ऐसी घाटी नहीं, जो प्रताप के किसी न किसी वीर पराक्रम, उज्ज्वल विजय या उससे अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र न हुई हो। हल्दीघाटी मेवाड़ की थर्मोपिली और दिबेर म्मेवाड़ का मेरेथान है।'
महाराणा का संघर्ष
महाराणा ने १५८५ में मेवाड़ से मुगलोें से मुक्ति के प्रयत्नों को और भी तेज कर लिया। महाराणा की सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरंत ही उदयपुर सहित छत्तीस महत्वपूर्ण स्थानों पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया, उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा प्रताप लंबी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करवाने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ।
`शौर्य की एक नयी परिभाषा लिखी थी,
बुलंदी की एक नयी गाथा लिखी थी,
थके हुए भारत में जिसने नयी जान फूंकी थी,
उस महराणा प्रताप ने स्वर्ण गाथा लिखी थी।'
उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए, परंतु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही नई राजधानी चावंड में एक शिकार दुर्घटना में घायल होने के बाद १९ जनवरी, १५९७ को ५६ वर्ष की आयु में महाराणा प्रताप स्वर्ग सिधार गए। उस समय अकबर की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छंद में जो विवरण लिखा, वो कुछ इस तरह है:-
`अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी। अर्थात्
`हे! गहलोत राणा प्रतापसिंह, आपकी मृत्यु पर शाह यानि सम्राट ने दांतों के बीच जीभ दबाई और निश्वास के साथ आंसू टपकाए। क्योंकि तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया। तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकाया नहीं, हालांकि तू अपना आडा यानि यश या राज्य तो गंवा गया लेकिन फिर भी तू अपने राज्य के धूरी को बांए कंधे से ही चलाता रहा। तेरी रानियां कभी नवरोजों में नहीं गईं और ना ही तू खुद आसतों यानि बादशाही डेरों में गया। तू कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़ा रहा और तेरा रौब दुनिया पर निरंतर बना रहा। इसलिए मैं कहता हूं कि तू सब तरह से जीत गया और बादशाह हार गया।'
मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने वाले एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिए अमर हो गए। महाराणा प्रताप आज भी अपने अदम्य साहस, स्वाभिमान और मातृभूमि के प्रति समर्पण के लिए याद किए जाते हैं। आज जब मैं इस विषय पर लिख रही हूं तो पाकिस्तान द्वारा चाइनीज ड्रोन और तुर्की मिसाइलों का ध्वस्त करते हमारे हर सैनिकों में मुझे महाराणा प्रताप अवतरित होते दिखाई दे रहे हैं। निश्चय ही उनकी गाथाएं राजस्थान सहित पूरे भारत में जोश विराट और अदम्य साहस भरती रहेंगी। वे एक पराक्रमी योद्धा थे, महान नायक थे तथा दृढ़ प्रतिज्ञ थे, इसलिये आज भी मेवाड़ में वरिष्ठ महिलाएं अपनी बहुओं को आषीर्वाद देते हुए कहती हैं `माई एहा पूत जण जेहा राणा प्रताप।'
डॉ. मधु गुप्ता
जयपुर, राजस्थान
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