सबक

लेकिन जब लोग शिक्षित कम थे उस समय तो स्थिति भयावह ही रही होगी। कहते हैं की औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं। कई बार तो औरतें ही औरतों के प्रताड़ना में प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया करती थीं और आज भी कुछ ऐसी महिलाएं हैं। अगर सभी औरतें जागरूक हो जायें और दिल से ठान लें तो अत्याचारों से मुक्ति पा सकती हैं तथा समाज में अपना स्थान हासिल कर सकती हैं। इसके लिए सभी केअन्दर साहस होना बहुत जरूरी है जिसका नारी में अभाव ही नजर आता है। महिलाओं में से ही कभी कभी कोई ऐसी महिला भी निकल आती हैं

May 29, 2025 - 15:37
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सबक
Lesson

    हमारा समाज शुरू से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है, जहां सदियों से ही औरतों को जाने कितनी प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ा है। आज तो औरतें लड़कियां शिक्षा ले रहीं हैं जागरूक हो रहीं हैं पुरुषों की सोच में भी थोड़ा बहुत अन्तर आ रहा है लेकिन जब लोग शिक्षित कम थे उस समय तो स्थिति भयावह ही रही होगी। कहते हैं की औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं। कई बार तो औरतें ही औरतों के प्रताड़ना में प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया करती थीं और आज भी कुछ ऐसी महिलाएं हैं। अगर सभी औरतें जागरूक हो जायें और दिल से ठान लें तो अत्याचारों से मुक्ति पा सकती हैं तथा समाज में अपना स्थान हासिल कर सकती हैं। इसके लिए सभी केअन्दर साहस होना बहुत जरूरी है जिसका नारी में अभाव ही नजर आता है। महिलाओं में से ही कभी कभी कोई ऐसी महिला भी निकल आती हैं जो अपने आत्मबल और साहस से राह मोड़ देने का दम रखती हैं।
    मीरा बनारस के एक सभ्य सुशिक्षित परिवार की लड़की थी। बनारस विश्व विद्यालय से बीएससी करने के बाद उसने आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो पिता ने साफ साफ मना कर दिया,
  `नहीं बेटा, अब मैं आगे नहीं पढ़ा सकता। यह बात नहीं है की मैं तुमको पढ़ाना नहीं चाहता पर क्या करूं मजबूरी है। तुम्हारे पीछे दो बहनें और भी हैं और तुम्हारा भाई भी है। सभी को बराबर शिक्षा देनी है और शादी ब्याह भी करना है। मेरी छोटी सी आमदनी है, यह तो तुम जानती ही हो बेटा।' पिता की आवाज में विनम्रता थी, एक आग्रह झलक रही थी।
    पिता के इच्छा के आगे मीरा नतमस्तक हो गयी। उसने आगे पढ़ने की जिद छोड़ दी। और कम्प्यूटर कोर्स करने लगी ताकी जीवन में कभी ज़रूरत पड़े तो अपने पैरों पर खड़ी हो सके।
    मीरा के पिता नीरज कुमार बनारस में ही एक अच्छी प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करते थे। तीन तीन बेटियों का बोझ उनके सिर पर था  एक बेटा था जो तीनों बहनों से छोटा था। मीरा के घर का वातावरण बिल्कुल शान्त था। उसके पिताजी और भाई सभी बहुत अच्छे थे। उसने अपने पिता को चिल्लाते हुए तो देखा ही नहीं था और वैसा ही उसका भाई भी था। 
    इसी बीच नीरज कुमार के पास उनकी पुत्री मीरा के लिए कानपुर से किसी बहुत ही अच्छे लड़के का रिश्ता आया था जो नेवी में नौकरी कर रहा था। मीरा भी न चाहते हुए भी चुप लगा गयी । वह अब अपने पिता जी को परेशान नहीं करना चाहती थी।             
    मीरा के पिता जी ने उसका रिश्ता कानपुर के एक गांव में अच्छे-खासे खेतिहर परिवार में तय कर दिया गया। लड़का भी नेवी में स्टुअर्ड क्रू मेंबर था सो सोने पर सुहागा ही लग रहा था।घर में सभी खुश थे कि मीरा के लिए इतना अच्छा घर और वर मिल रहा है। लड़के का नाम था दिनेश। वह भी बहुत सुंदर, सुयोग्य तथा सुशील था। शादी तय होने के बाद उसने मीरा से कई बार फोन पर भी बातचीत की थी। मीरा को वह बहुत समझदार और सुलझे हुए विचारों वाला लगा। दिनेश को भी मीरा एक सीधी तथा सुलझे विचारों वाली लड़की लगी। सब कुछ ठीक था।
    बड़े ही धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ। जिसको देखो वही इस विवाह की तारीफ कर रहा था। मीरा के ससुराल वालों ने किसी तरह के दहेज की मांग भी नहीं की थी फिर भी नीरज कुमार से जितना भी बन पड़ा उन्होंने कोई कमी नहीं छोड़ी थी।
    मीरा अपने ससुराल आ गई। शुरूआत में ससुराल में सब कुछ ठीक-ठाक लगा। पन्द्रह दिन बाद उसके पति को अपनी ड्युटी पर जाना था। अब उसे साल भर बाद ही छुट्टी मिल पायेगी। दोनों ही बहुत दुखी थे। `कोई बात नहीं मीरा हम लोग रोज मोबाइल पर वीडियो चैटिंग किया करेंगे। बीच में कभी मौका मिला तो छुट्टी लेकर आ जाऊंगा, तुम परेशान मत होना।'दिनेश ने कहा।
    अटैची में दिनेश का सामान रखती हुई मीरा की आंखों से आंसू बह निकले। क्या अजीब बात है कि दो लोग जो एक दूसरे के लिए बिल्कुल अजनबी होते हैं, कैसे प्रेम की डोर में एक दूसरे से बंध जाते हैं समझ में ही नहीं आता। एक अटूट बंधन में बंधे होते हैं दोनों।
    दिनेश ने मीरा के आंसू पोछते हुए उसे फिर आश्वासन दिया कि बीच में अगर छुट्टी मिली तो वह अवश्य घर आयेगा। 
    दिनेश के जाने के बाद मीरा काफी उदास रहने लगी। उसका संयुक्त परिवार था जिसमें जेठ जिठानी, सास ससुर और ननदें थीं। जिठानियों के छोटे-छोटे बच्चों से घर गुलजार रहता। धीरे-धीरे समय बीतने लगा। 
    उसके घर में ससुर जेठ देवर सभी की आदत औरतों को गंदी गालियां देने की थी। जब भी किसी महिला से चाहे वे सास हों, जिठानियां हों उनसे जरा भी गलती हो जाती तो वे लोग गालियां बकने लगते। उन्हीं लोगों को देख-देख कर घर के बच्चे भी गाली बकने लगे थे। मीरा को वहां का यह सब बहुत ही नागवार लगता। जब उसके साथ या घर की किसी भी महिला के साथ यह दुर्व्यवहार होता उसे लगता वह एक तुच्छ सी जीव है जिसका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है। अपनी बीएससी की पढ़ाई,एनसीसी कोर्स सब कुछ व्यर्थ लगता। आखिर उसका जीवन था ही क्या? घर का काम करना और जरा भी गलती हो जाये तो वहां पर मां, बहन और बेटी की गंदी गंदी गालियां सुनने को मिलती। ये गालियां उसके कान में पिसे शीशे की तरह महसूस होती थी। कभी कभी तो ऐसा लगता की गाली देने वाले को या तो मार दो या खुद ही मर जाओ।
    बहुत सी जगहों पर होने वाली कुछ आत्महत्याओं में यह भी एक कारण हो सकता है। पता नहीं पुरुषों को इसका बोध क्यों नहीं होता की जो गालियां वे दे रहे हैं उसमें सबसे पहले मां,बहन और बेटी बोलते हैं फिर कैसे वे घिनौनी गालियां बक लेते हैं। उनकी जबान में लगाम लगाने का काम भी शुरू से किया जाता तो शायद इस परिस्थिति का सामना ही नहीं करना पड़े। शहरी क्षेत्र में ऐसी स्थिति कम ही उत्पन्न होती है क्योंकि न तो बच्चे बड़ों को गाली देते देखते सुनते हैं और न सीखते हैं।
    एक दिन फिर से मीरा से किसी काम में देरी हो को गयी। अब क्या था ससुर व जेठ दोनों ही लगे गालियां बकने। मीरा चुपचाप काम निपटाकर कर अपने कमरे में चली गई। वह रात भर रोती रही तथा विचार करती रही की ऐसा क्या करे की इन लोगों की गाली देने की आदत छूट जाय।
    सुबह रसोईघर में अपनी ननद के साथ खाना बना रही थी। ननद ने भी साड़ी पहन रखी थी वे भी शादी शुदा थीं। तभी जेठ ने किसी बच्चे से चाय बनाने के लिए कहलवाया और बच्चा कहना भूल गया। करीब आधे घंटे बाद गुस्से में तम-तमाते हुए जेठ जी आंगन में आ गये और लगे गालियां बकने।
    मीरा ने अपने सिर का पल्ला हटाया फिर ननद को पकड़ कर सामने कर दिया ,`आ जाओ अगर सच में पुरुष हो तो। ये सामने खड़ी है बहन तुम्हारी, जैसे मेरी बहन वैसे ही तुम्हारी भी है, आओ अगर तुझमें हिम्मत है तो-------।' सभी अवाक् रह गए , औरतें, आदमी व बच्चे सभी। जेठ सिर झुकाकर वापस बैठक में चले गये। उस दिन के बाद उस घर के पुरुषों ने गाली बकना छोड़ दिया। उनको एक अच्छा सबक मिल चुका था।

डॉ सरला सिंह "स्निग्धा"
दिल्ली

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