क्या मांस उगाया भी जा सकता है?
टफ्ट्स यूनिवर्सिटी में बायोमेडिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर डेविड कापलान ने कहा कि इस समय सिंगापुर और संयुक्त राज्य अमेरिका ही ऐसे देश हैं जिन्होंने उपभोक्ता उपभोग के लिए सेल-आधारित मांस को मंजूरी दी है। ऐसे तो यह उद्योग लगभग १० साल पुराना है, लेकिन अभी भी संवर्धित मांस को स्टोर या रेस्तरां में अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए व्यावसायिक रूप से उपलब्ध होने में कुछ साल और लगेंगे और पारंपरिक मांस उद्योग के एक बड़े हिस्से को या पूरी तरह से बदलने में शायद २० साल तक का समय भी लग सकता है।
हज़ारों सालों से हम इंसान पौधों में मौजूद ऊर्जा को मांस में बदलने के लिए जानवरों पर निर्भर रहे हैं। हालाँकि, यह अक्षम और पर्यावरण के लिए हानिकारक दोनों है। लेकिन क्या भविष्य में हम पशुधन पर निर्भर हुए बिना मांस और मांस जैसे उत्पाद बना सकेंगे? अभी यह असंभव सा लगता है लेकिन भविष्य में अवश्य संभव होगा। दुनिया भर में इस विषय में बहुत काम चल रहा है और जैसे मेरे पिछले माह के आलेख में आपने पढ़ा होगा कि अब बिना दुग्ध पशुओं के दूध और दूसरे दुग्ध उत्पाद संभव हैं और अब बाज़ार में उपलब्ध भी हैं हालाँकि अभी इन उत्पादों की कीमत अधिक है और जब तक इनकी कीमत दुग्ध पशुओं के दूध और दूसरे दुग्ध उत्पाद के समकक्ष नहीं आती ये उतने लोकप्रिय नहीं होंगे और उस मात्रा में प्रचलन में नहीं आ पायेंगे। यही कथन बिना पशुओं के बने हुए मांस पर भी सत्यश: लागू होता है।
प्रयोगशाला में बनाया गया मांस, जिसे अक्सर ‘संवर्धित मांस’ भी कहा जाता है, वैज्ञानिक प्रयोगों और अनुसंधान के माध्यम से उत्पन्न किया जाता है। यह मांस प्रयोगशाला में स्टेम कोशिकाओं से विकसित होता है और यह जीवों के पारंपरिक मांस से अलग होता है। संवर्धित मांस, जानवरों की कोशिकाओं से सीधे उगाया गया असली मांस है। ये उत्पाद शाकाहारी, शाकाहारी या पौधे-आधारित नहीं हैं, बल्कि ये असली मांस हैं, जिन्हें जानवरों के बिना बनाया गया है। संवर्धित मांस बनाने की प्रक्रिया बीयर बनाने के समान ही है, लेकिन इसमें खमीर या सूक्ष्मजीवों को विकसित करने के बजाय, पशु कोशिकाएं विकसित करते हैं। सभी जानवर स्टेम सेल नामक कोशिकाओं के एक समूह के रूप में शुरू होते हैं। ये विशेष कोशिकाएँ विभाजित होकर कई अलग-अलग प्रकार की कोशिकाओं में विकसित होने में सक्षम होती हैं। इन स्टेम कोशिकाओं की एक छोटी संख्या पशु में जीवन भर बरकरार रहती है, और उसके शरीर को बनाने वाले ऊतकों को बनाए रखने और मरम्मत करने के लिए उपयोग में लायी जाती हैं ।
आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी की बदौलत, इन कोशिकाओं को अब पशु के शरीर के बाहर निकाला और उगाया जा सकता है, जिससे वैज्ञानिकों को प्रयोगशाला में वास्तव में मांस `विकसित' करने की विधि मिल गई है। मांस मांसपेशियों से बनता है। इसलिए मांस को बढ़ाने के लिए हमें वास्तव में मांसपेशियों की कोशिकाओं को बढ़ाने की ज़रूरत होती है। स्टेम कोशिकाएं पशु से प्राप्त की जाती हैं, जो या तो भ्रूण से या वयस्क मांसपेशी से निकली जाती हैं जिन्हें एक बार निकाल कर प्रयोगशाला में सुरक्षित कर रख लिया जाता है। कोशिकाओं को पहले छोटे बर्तनों में, विशिष्ट पर्यावरणीय परिस्थितियों में, विशिष्ट पोषक तत्वों और प्रोटीन की मौजूदगी में उगाया जाता है। यह वह संवर्धन माध्यम है जो स्टेम कोशिकाओं को मांसपेशी कोशिकाओं में विकसित होने का निर्देश देता है। बाद में इन कोशिकाओं को एक बड़े टैंक में स्थानांतरित कर दिया जाता है जिसे बायोरिएक्टर कहा जाता है, जहाँ वे बढ़ती और विभाजित होती रहती हैं। बायोरिएक्टर में कोशिकाओं को एक खाद्य ३D प्रâेम पर उगाया जाता है, जो अंतिम उत्पाद को मांसल ३D संरचना प्रदान करता है। इस प्रक्रिया में बाहरी उर्जा की आवश्यकता नहीं होती इसलिए बायोरिएक्टर में कोशिकाओं को विकसित करने में पूरे जानवर को विकसित करने की तुलना में बहुत कम समय लगता है। इसके साथ ही पूरे पशु का उत्पादन करने के बजाय, केवल सबसे मूल्यवान मांस के टुकड़े ही उत्पादित किए जाते हैं। इसका फायदा यह होता है कि मांस के अवांछित भाग का उत्पादन होता ही नहीं है और केवल मनपसंद भाग का मांस ही उगाया जाता है। एक और प्रश्न उठता है पशु शरीर में पाए जाने वाले पोषक तत्वों को किस तरह प्रयोगशाला में बनाये मांस में डाला जाय क्योंकि ये पोषक तत्व पशुओं में यह उनके खाद्य पदार्थों और शरीर की प्रक्रियाओं से उत्पादित होता है जो एक सामान्य तरीका है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए जो तरीका खोजा है वह है संवर्धित कोशिकाओं का पोषक तत्वों में स्नान। संवर्धित कोशिकाएं पोषक तत्वों जैसे कि विटामिन, खनिज और अमीनो एसिड इत्यादि के द्रव (मीडियम) में पड़े रहने पर इन पोषक तत्वों को अवशोषित कर लेती है, जिससे इन कोशिकाओं में पोषक तत्वों की कमी नहीं रहती और दूसरे इन पोषक पदार्थों की मात्रा को भी निर्धारित और नियंत्रित किया जा सकता है। इस मांस में सामान्य रूप से मांस में उपस्थित फैटी एसिड और बसा इत्यादि की मात्रा को भी नियंत्रित किया जाता हैं जिससे उसमें अच्छे गुणों वाले तत्व, अच्छे पोषक तत्व, मांसपेशियाँ और रेशे इत्यादि समावेषित रहते हैं। प्रयोगशाला में इन कोशिकाओं को और भी प्रकार से विकसित किया जा सकता है जो दूसरी कोशिकाओं के आपसी आदान प्रदान से घटित होता है। इस सबसे कोलेस्ट्रोल की समस्या को किसी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
नीदरलैंड स्थित खाद्य प्रौद्योगिकी कंपनी मोसा मीट के प्रवक्ता ने कहना है कि प्रयोगशाला उत्पादन से वाणिज्यिक सुविधाओं में उत्पाद बनाने की दिशा में बढ़ते हुए, कुछ कंपनियां `प्रयोगशाला में उगाए गए मांस' शब्द से दूरी बना रही हैं। इसके बजाय, ये कंपनियां इसे संवर्धित मांस, सुसंस्कृत मांस, कोशिका-आधारित या कोशिका-उगाए गए मांस या गैर-वध मांस के रूप में संदर्भित करना ज्यादा पसंद करती हैं।
मोसा मीट के वैज्ञानिक रेडवान फारूक के अनुसार यह प्रक्रिया पशु वध को कम करने के अलावा, संवर्धित मांस, कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से होने वाले जलवायु परिवर्तन को धीमा करने में भी मदद कर सकता है। खाद्य प्रणाली वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लगभग एक चौथाई के लिए जिम्मेदार है, जिनमें से अधिकांश पशु और कृषि से हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, कृषि के लिए आवश्यक परिवहन से मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड दोनों उत्सर्जित होते हैं, और भूमि और जंगलों को साफ करने से (जिसमें कृषि भी शामिल है) कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होता है। टफ्ट्स यूनिवर्सिटी में बायोमेडिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर डेविड कापलान ने कहा कि इस समय सिंगापुर और संयुक्त राज्य अमेरिका ही ऐसे देश हैं जिन्होंने उपभोक्ता उपभोग के लिए सेल-आधारित मांस को मंजूरी दी है। ऐसे तो यह उद्योग लगभग १० साल पुराना है, लेकिन अभी भी संवर्धित मांस को स्टोर या रेस्तरां में अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए व्यावसायिक रूप से उपलब्ध होने में कुछ साल और लगेंगे और पारंपरिक मांस उद्योग के एक बड़े हिस्से को या पूरी तरह से बदलने में शायद २० साल तक का समय भी लग सकता है।
अपसाइड फूड्स का इंजीनियरिंग, उत्पादन और नवाचार केंद्र एमरीविले, कैलिफोर्निया के वैज्ञानिक टेट्रिक ने कहा कि चाहे वह पशु कल्याण हो, जलवायु हो, जैव विविधता हो या खाद्य सुरक्षा हो, मांस खाने के तरीके में बदलाव लाने के लिए कई महत्वपूर्ण कारण हैं। एक तो, बहुत कम या बिलकुल भी पशुपालन नहीं करना पड़ेगा और न ही उनका मांस उत्पादन के लिए उपयोग करना पड़ेगा, और इसलिए उनके लिए चारा उगाने हेतु करोड़ों एकड़ भूमि की आवश्यकता भी नहीं होगी। प्रक्रिया के शुरुआती दौर में आपको सिर्फ़ एक जानवर की ज़रूरत होगी जिससे स्टेम कोशिकाएं निकाली जाएँगी फिर उन कोशिकाओं को 'अमर' कर सकते हैं ताकि वे हमेशा के लिए फैलती रहें। टेट्रिक के अनुसार एकल स्टेम कोशिका से सैकड़ों अरब पाउंड मांस बनाया जा सकता है। हालाँकि यह कहना अभी भी ठीक नहीं होगा कि इस विधि से जल संवर्धन होगा क्योंकि सेलुलर (कोशिका) कृषि के लिए अभी भी बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है।
यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि पोषण गुणवत्ता और मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ संवर्धित मांस का कोई जवाब नहीं है क्योंकि यह प्रक्रिया पारंपरिक कृषि की तुलना में बहुत अधिक नियंत्रित है। आपके पास सिस्टम में इनपुट और आउटपुट पर अधिक नियंत्रण है, जिसका अर्थ है कि यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि उगाए गए मांस में केवल मांस के सबसे अच्छे हिस्से ही हों और साथ ही अनुकूलन संभावनाओं में पोषक तत्वों की प्रोफाइल को समायोजित करना शामिल है, चाहे वह कम संतृप्त वसा और कोलेस्ट्रॉल हो, या अधिक विटामिन या स्वस्थ वसा हो। बहुत अधिक संतृप्त वसा और कोलेस्ट्रॉल खाने से दिल का दौरा या स्ट्रोक का खतरा बढ़ सकता है।
गैर-लाभकारी शोध संस्थान न्यू हार्वेस्ट की कार्यकारी निदेशक ईशा दातार ने कहा,`हमें वास्तव में अपनी बढ़ती आबादी के लिए प्रोटीन उत्पादन के वैकल्पिक तरीकों के बारे में सोचने की जरूरत है। बर्मिंघम विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर समाजशास्त्री नील स्टीफंस के अनुसार, संवर्धित मांस जलवायु परिवर्तन का समाधान हो सकता है लेकिन यह एकमात्र समाधान नहीं है। दुनिया भर में ६० कंपनियां प्रयोगशाला में विकसित मांस पर काम कर रही हैं, हालांकि एक कंपनी ईट जस्ट इंक सिंगापुर में बहुत छोटे पैमाने पर व्यावसायिक रूप से उत्पादों को सफलतापूर्वक बेच रही है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अगले दशक में प्रयोगशाला में निर्मित मांस बाजार, पारंपरिक मांस बाजार के १० प्रतिशत पर कब्जा कर लेगा। मेरा ऐसा अनुमान है कि यह प्रक्रिया अभी और तेज होगी, नए शोध होंगे और साथ ही ऐसे अन्य उत्पाद भी बाज़ार में जल्दी ही आयेंगे जिससे बाज़ार में मांग बढ़ने में सहायता मिलेगी और जिसके फलस्वरूप कीमत में भी काफी कमी आयेगी।
डॉ. रवीन्द्र दीक्षित
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