कबीरदास की निर्गुण परम्परा
"संत शब्द उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है जिसने सत रूप परम तत्व का अनुभव कर लिया हो और जो इस प्रकार अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके साथ तदरूप हो, जो सतरूप नित्य, सिद्ध वस्तु का साक्षात्कार कर चुका हो अथवा अपरोक्ष की उपलब्धि के फलस्वरूप अखण्ड सत्य में प्रतिष्ठित हो गया हो, वही संत है।"जब हम संत कवि कबीर की बात करते हैं तो हम समस्त ज्ञानाश्रयी सिद्धान्तों की बात कर रहे होते हैं । कबीर जो शब्द अरब भाषा से आया। अरबी के अल कबीर का अर्थ है महान, सबसे बड़ा, एकमात्र परमात्मा ।
भक्तिकाल हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से अभिहित रहा है। इस काल में जिस प्रकार के काव्य की रचना हुई वो बहुत ही उत्कृष्ट काव्य है। इस काल के कवि पहले भक्त थे फिर कवि । उन्होंने जो भी काव्य रचा वह उनके अपने उद्गार थे जिनको उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रकट किया। उनकी रचनाओं में उनकी ईश्वर के प्रति आस्था एवं सच्चे सरल ह्रदय से अपने आराध्य का गुणगान करने का भाव प्रमुख है।
वैदिक काल में जिस धार्मिक विचार का विकास हुआ कालांतर में उसमें काफी परिवर्तन देखने को मिलता है। धार्मिक कर्मकाण्डों व अंधविश्वासों के कारण उनमें बहुत विकृतियां भी आ गईं। धर्म साधनाओं में भक्ति के विविध रूप सामने आये। ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण रूप की उपासना का विधान तो वैदिक काल से चला आ रहा है, भक्तिकाल में भी भक्तों ने ईश्वर की मूर्त व अमूर्त रूप में उपासना की। यद्यपि सभी भक्तों ने अपनी भक्ति भावना से प्रेरित हो कर ही अपने उद्गार प्रकट किये तथापि सभी भक्तों के काव्य के भाव की अपनी अलग पहचान है। कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा आदि सभी भक्त कवि थे किन्तु भाव सबके भिन्न थे। सूरदास कृष्ण को अपना सखा मानते थे, तुलसी ने अपने आराध्य को अपना मालिक माना। मीरा अपने कृष्ण को प्रियतम मानती थीं वहीं कबीर व जायसी के काव्य में दाम्पत्य भाव है। उनका ईश्वर निर्गुणी व निराकार है। इस प्रकार सभी कवियों की अलग अलग विशेषता रही। इसी आधार पर भक्ति काव्य को दो भागों में विभक्त किया गया- निर्गुणोपासक भक्तिकाल तथा सगुणोपासक भक्ति। इनके भी दो दो भाग हुए। निर्गुणोपासना में ज्ञानाश्रयी शाखा व प्रेमाश्रयी शाखा वहीं सगुणोपासना में कृष्ण भक्ति काव्य और राम भक्ति काव्य के रूप में विकसित हुई। यहां हम निर्गुणोपासना की ज्ञानाश्रयी शाखा के शिरोमणि कबीर के निर्गुण की उपासना पर विचार करेंगे। निर्गुण सम्प्रदाय के अनुसार ईश्वर का कोई आकार नहीं वह संपूर्ण जगत में व्याप्त है। निर्गुणपंथी कवियों को संत कवि कहा जाता है और उनके द्वारा रचित काव्य संत काव्य कहलाया। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार, "संत शब्द उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है जिसने सत रूप परम तत्व का अनुभव कर लिया हो और जो इस प्रकार अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके साथ तदरूप हो, जो सतरूप नित्य,सिद्ध वस्तु का साक्षात्कार कर चुका हो अथवा अपरोक्ष की उपलब्धि के फलस्वरूप अखण्ड सत्य में प्रतिष्ठित हो गया हो, वही संत है।" जब हम संत कवि कबीर की बात करते हैं तो हम समस्त ज्ञानाश्रयी सिद्धान्तों की बात कर रहे होते हैं । कबीर जो शब्द अरब भाषा से आया। अरबी के अल कबीर का अर्थ है महान,सबसे बड़ा ,एकमात्र परमात्मा । उर्दू में कबीर का अर्थ है बङा, महान, श्रेष्ठ, उत्तम, आला । हिन्दी में कबीर शब्द का अर्थ है बड़ा, महान, श्रेष्ठ। इस प्रकार कबीर ने अपने नाम को सार्थक भी किया। कबीर गुरुनानक से प्रेरित थे और वे निर्गुण सम्प्रदाय के प्रस्तावक थे। निर्गुण काव्य ने अनेक धार्मिक संप्रदायों के प्रभाव को आत्मसात कर लिया किन्तु इसमें धर्म अथवा साधना की कोई शास्त्रीय व्याख्या नहीं की गई बल्कि जन भाषा में उसके मर्म को समझाया गया। संत कवियों के विचार निजी अनुभूतियों पर आधारित हैं इसलिए उसमें दर्शन की शुष्कता नहीं बल्कि काव्य की कोमलता है।
कबीर ने ईश्वर को निर्गुण रूप में भजा । उन्होंने ईश्वर के सगुण रूप का विरोध किया। वे कहते हैं-
दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना
राम नाम का मरम है आना।
इस प्रकार कबीर निराकार ब्रह्म की बात करते हैं। वे ईश्वर से बङा ईश्वर के नाम को मानते हैं। उनका मानना है यह सृष्टि परम ब्रह्म की रचना है और वही सर्वत्र व्याप्त है किन्तु माया के वशीभूत हो हम उस शक्ति को अनुभूत नहीं कर पाते। गुरु की कृपा से आत्म ज्ञान होने पर ही हम परमात्मा को पहचान पाते हैं। इसी कारण वे गुरू को सर्वोच्च स्थान देते हैं। परमात्मा से भी ऊंचा स्थान गुरू का मानते हैं तभी तो वे कहते हैं
गुरू गोविंद दोऊ खडे काके लागूं पाय ।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताये ।।
वे ईश्वर को निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान मानते हैं। निर्गुण ब्रह्म अशरीरी है जिसका कोई विग्रह नहीं होता। वह पृथ्वी पर शरीरधारी होकर अवतार नहीं लेता। वह अमूर्त रूप में कण कण में व्याप्त रहने वाला सर्वशक्तिमान ईश्वर है। अतः उसकी भक्ति के लिए बाह्य कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है। कबीर ने निर्गुण भक्ति के प्रवाह को अपनी वाणी से द्रुत गति प्रदान की वह उन्हें हिन्दी निर्गुण काव्यधारा का प्रवर्तक बनाने में सहायक हुई। यदि इनके भक्ति विषयक सैद्धांतिक व व्यावहारिक पक्ष का आकलन करना हो तो शंकराचार्य के अद्वैतवाद में इन्हें देखा परखा जा सकता है। कबीर ब्रह्म, माया, जीव, जगत व मोक्ष के संदर्भ में एक खास नजरिया रखते हैं। ब्रह्म के विषय में कबीर का मन वही है जो निर्गुण भक्ति में ग्राह्य हो सकता है । निराकार तो वह है ही निर्भय और दृष्टि से अदृश्य भी रहता - अलख निरंजन लखै न कोई, निरभै निराकार है सोई सुनि अस्थूल रूप नहिं रेखा, दिष्ट अदिष्ट छिप्यो नहीं रेखा माया और अविद्या में शंकराचार्य के मन में भेद नहीं है। मिथ्या ज्ञान ही माया है। कबीर ने माया को कई रूपों में वर्णित किया है। माया को शक्ति रूपी भी माना गया है। सृष्टि का अनादि कारण भी ठहराया है। सांसारिक सम्बन्धों की जननी माया है। मनुष्य भ्रमवश सांसारिक संबंधों में फंसकर यह समझता है "मैं कर रहा हूं, यह मेरे माता पिता व परिवार है।" वास्तव में यह सब माया के वशीभूत होकर ही होता है। 'मा' का अर्थ है नहीं, 'या' का अर्थ है जो अर्थात "जो नहीं है" वही माया है। इसीलिए वे "माया महाठगिनी हम जानि" का उद्घोष भी करते हैं। यही अविद्या या ज्ञान विरोधिनी कहलाती है। कबीर इसलिए कहते हैं-
कबीर माया मोहिनी जैसे मीठी खांड ।
अद्वैतवादी वेदांत में माया की अवधारणा बङी महत्वपूर्ण है। माया "त्रिगुणात्मिका अविद्यालक्षणा प्रकृति" है। कबीर ने भी इस संसार को माया में लिप्त माना है। उनके अनुसार जो माया में लिपटे रहते हैं वे दुख में पङे हुए भी उसे समझ नहीं पाते। माया लिप्त मनुष्य को ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता। काम, क्रोध, मद, मोह, और मत्सर
माया के पांच पुत्र कहे गये हैं। माया पाखंड व वासना की जननी है। वह अनेक रूप धारण कर मनुष्य को ठगती है । माया के बंधन से कबीर जैसा कोई विरला संत ही बच सकता है। कबीर ने माया के विषय में जो कहा वह वेदांत द्वारा निर्धारित माया के स्वरूप से मेल खाता है।
अद्वैतवादी दर्शन में माया संवलित आत्मा को जीव कहते हैं। कबीर की मान्यता भी यही है । ब्रह्म या परमात्मा से जो जीव अलग दिखाई देता है उसका कारण माया अथवा अज्ञान है। अन्यथा जीव ब्रह्म में से ही उत्पन्न हुआ है और अंततः उसी में विलीन हो जाता है। जीव को ब्रह्म का अंश मानकर कबीर कहते हैं समस्त जीवात्मा एक ही है किन्तु अपने रूपाकार के कारण नाम भेद होगा। स्वर्ण से अनेक प्रकार के आभूषण बनते हैं किन्तु मूलतः स्वर्ण तो एक ही पदार्थ है। उसके रूप भेद होने पर भी पार्थक्य नहीं होता। जीवों में भेद होने पर भी जीवात्मा उस ब्रह्म का ही अंश है-
पानी ही ते हिम भया, हिम है गया विलाय ।
जो कुछ न सोई भया, अब कुछ क्या न जाय ।।
अपनी दार्शनिक विचारधारा में कबीर अन्य संत कवियों की भांति अद्वैतवाद के समर्थक रहे। इसी कारण वे परमात्मा की एकता स्वीकार करते हैं। उनका विश्वास है कि जीवात्मा में परमात्मा पूर्ण रूप से विद्यमान है। वे आत्मा परमात्मा के रूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- जल में कुंभ- कुंभ में जल है, बाहिर भीतर पानी । फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ कहियो ग्यानि ।।
जगत प्रकृति जन्य, दृश्यमान तत्व है जो नाशवान है। जीवन और जगत के वर्णन में क्षणभंगुरता को वे ह्रदय से स्वीकार करते हैं। बिना भक्ति के जगत के सांसारिक बंधन नहीं कटते ।
माया या अविद्या की निवृत्ति मोक्ष है। ऐसा होने पर आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाती है। कबीर ने अपने काव्य में अपनी मुक्ति के संकेत दिए हैं। अमरत्व का बोध इसलिए है कि जीव और परमात्मा के बीच से माया या अज्ञान का आवरण हट गया है। आत्मा का परमात्मा में लय हो गया है-
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नहीं । सब अंधियारा मिट गया, दीपक रेखा माहि । । कबीर निराकार ब्रह्म के उपासक हैं। उन्होंने सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान निर्गुण राम की उपासना की। उनकी मान्यता रही कि वह फूलों की सुगन्ध से भी पतला है, अजन्मा है, विश्व के कण कण में व्याप्त है। निर्गुण धारा में वैराग्य को बहुत महत्वपूर्ण अथवा परम आवश्यक माना है। इस शरीर को कागज की नाव बनाकर कबीर ने इसका सुंदर चित्र अंकित किया है। वे कहते हैं यह शरीर कागज की नाव है। संसार सागर में नौका तैर रही है। पांच कुसंगी साथ होने से इनसे बचना कठिन है। प्रत्येक मनुष्य को सद्गुरु की खोज करके उनकी कृपा से बंधन मोक्ष पाना चाहिए। सद्गुरु के पश्चात स्वानुभूत ज्ञान ही इनका पथ प्रदर्शक रहा। इन्होंने न तो योग दर्शन पढा और न रहस्यवाद का मर्म किसी पंडित से जाना। सब कुछ स्वानुभूत से प्राप्त कर उसे प्रकट किया। कबीर पर तत्समय व्याप्त सिद्धों व नाथों का भी प्रभाव था। उनकी प्रतिभा बङी प्रखर थी। उन्होंने विभिन्न प्रभावों से मुक्त अक्खङता व फक्कङता से युक्त ऐसा प्रखर व्यक्तित्व पाया था जो सबको अभिभूत कर लेता था। अभिव्यक्ति की दृष्टि से उनकी भाषा बहुत
सक्षम है। इसी कारण हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें "भाषा का डिक्टेटर " कहा है। ब्रह्म की दार्शनिक अवधारणा ऐसी है जिस पर भारत में अत्यंत प्राचीन काल से विचार होता आया है। उसका कोई सर्वमान्य स्वरूप स्थिर नहीं हो पाया है। वेदान्तियों के लिए ब्रह्म वह परम सत्ता है जो अनंत, नित्य, शुद्ध, बुद्ध व मुक्त है। कबीर अपने एक पद में -"जब ये आतम तत्व विचारा" में ब्रह्म का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं कि वह ब्रह्म व्यापक है। सबमें एक भाव में व्याप्त है। पंडित हो या योगी, राजा हो या प्रजा, वैद्य हो या रोगी वह सबमें आप रम रहा है। उसमें सब रम रहे हैं। यह तो नाना भांति का प्रपंच दिखाई दे रहा है। सब कुछ उसी का रूप है । सारा खलक ही खालिक का है-
खालिक खलक खलक में खालिक, सब घट रहा समाई।
इस प्रकार कबीर का निर्गुण इतना गूढ है कि उसे समझने के लिए उसे अनुभूत करना बहुत आवश्यक है। हम सभी ने कबीर को बहुत पढा है, मगर जिसने गुना उसने कुछ कुछ कबीर को पाया भी है ।
डॉ. रेणुका श्रीवास्तव
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