मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में स्त्री-जीवन के चित्र

अपनी रचनाओं में स्त्री को आधार बनाकर लिखने वाली मैत्रेयी पुष्पा कहानी, उपन्यास और स्त्री-विमर्श के लिए विशेष रूप से जानी जातीं हैं। इन्होंने विभिन्न विधाओं पर अपनी लेखनी की है। मैत्रेयी जी का रचना-संसार में प्रमुख स्थान रहा है, जिसका प्रमुख कारण उपन्यास विधा रही है। जिसमें इन्होंने ग्रामीण जीवन की यथार्थ घटना को चित्रित किया है, जिसमें स्त्री-चरित्र प्रमुख रहा है।

Apr 13, 2024 - 19:32
Apr 16, 2024 - 14:21
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मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में  स्त्री-जीवन के चित्र
Maitreyi Pushpa

स्त्री सदैव ही अपनी अस्मिता को लेकर आवाज उठाती रही है। यह बात और है कि इस शोर-गुल भरे समाज में उसकी आवाज बहुत मन्द सुनाई देती है। जिसे अधिकतर समाज अनदेखा करता आया है और जिसने भी उसकी आवाज सुनी भी वह बहुत आगे नहीं बढ़ा पाया है। लेकिन प्रयास निरन्तर होते रहें हैं और यह प्रयास तब तक जारी रहेगा जब तक स्त्री को उसका सम्पूर्ण अधिकार न मिल जाये।

प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक स्त्री के प्रति व्यवहार दोयम दर्जे का ही रहा है। आधुनिक समय में पुरुषवादी सत्ता समाज पर इस तरह हाबी है कि लोग स्त्रियों के बारे में सोचते हैं तो भी पुरुषवादी दृष्टिकोण से जैसे पुरुषों से अलग स्त्रियों का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व ही न हो। पुरुष और स्त्री का शारीरिक गठन भी कहीं न कहीं स्त्री के उपेक्षित होने का मुख्य कारण रहा है।

साहित्य में रचानकार अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री अस्मिता को विभिन्न प्रकार से चित्रित करते रहें हैं। लेखक और लेखिका स्त्रियों के जीवन से सम्बन्धित विषमताओं को अपने रचनाओं के माध्यम से चित्रित करते रहते हैं। जिनमें मैत्रेयी पुष्पा का नाम अग्रगण्य है। जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री-जीवन के विभिन्न विसंगतियों को चित्रित करने का कार्य किया है।

मैत्रेयी जी की रचनाओं में मध्यवगीर्य ग्रामीण एवं शहरी महिलाओं के जीवन संघर्ष को बखूबी चित्रित किया गया है। मैत्रेयी जी ने स्त्री-जीवन के उन सभी समस्याओं पर प्रकाश डाला है जिसके कारण स्त्रियों का जीवन दुरूह हो गया है।

मैत्रेयी जी ने अपने निजी अनुभवों द्वारा उपन्यास-लेखन क्षेत्र में वास्तविकता को स्थापित किया है। मैत्रेयी जी की उपन्यासों में वंचित, पीड़ित, दलित एवं पिछड़ी जाति की स्त्रियों के उत्थान को दिखाया गया है। उनके जीवन से जुड़े तमाम सामाजिक, आथिर्क एवं राजनीतिक पहलुओं पर गंभीरतापूर्वक विचार प्रस्तुत किया गया है।  साथ ही स्त्री-संघर्ष की गाथा भी प्रस्तुत की गई है।  मैत्रेयी जी ने स्त्रियों के अधिकारों के प्रति चेतना जागृत करने का सम्पूर्ण प्रयास किया है। मैत्रेयी जी अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री-समाज में वो क्रांति लाना चाहतीं हैं, जिसमें स्त्रियों को पुरुषो के समान अधिकार मिले। वह अपनी निर्णय के लिये स्वतंत्र हो। समाज में स्त्री,  पुरुष को समान अधिकार प्राप्त हो।

‘‘किसी कार्य का अनुभव बिना कारण के ही नहीं होता है।

साफ-साफ दिख रहा है कि स्त्रियों, आदिवासियों और दलितों के बारे में अब तक जो लिखा गया है वह अनुमान के आधार पर है। जबकि सच्चाई आयेगी अनुभव के आधार पर चित्रित करने से’’।

अपनी रचनाओं में स्त्री को आधार बनाकर लिखने वाली मैत्रेयी पुष्पा कहानी, उपन्यास और स्त्री-विमर्श के लिए विशेष रूप से जानी जातीं हैं। इन्होंने विभिन्न विधाओं पर अपनी लेखनी की है। मैत्रेयी जी का रचना-संसार में प्रमुख स्थान रहा है, जिसका प्रमुख कारण उपन्यास विधा रही है। जिसमें इन्होंने ग्रामीण जीवन की यथार्थ घटना को चित्रित किया है, जिसमें स्त्री-चरित्र प्रमुख रहा है।

‘‘मैं अपनी बेटी को पढ़ा-लिखाकर बड़ा करूँगी कि मेरे, तुम्हारे बाद वह अपने दुश्मनों का मुकाबला करे।’’
मैत्रेयी जी ने अपने लेखन का आरम्भ ‘‘स्मृति दंश’’ नामक उपन्यास से किया। गाँव की पृष्ठभूमि में रची-बसी जीवन के गन्ध को समाज में अपनी भूमिका के रूप में दर्शाने वाली मैत्रेयी जी ने अपने पहले उपन्यास 'स्मृति दंश' में एक असहाय स्त्री के जीवन की गाथा को चित्रित किया है। विंध्य के अंचल में पली-बढ़ी ‘भुवन’ ससुराल में तरह-तरह की कठिनाइयों का सामना करती है और अन्त में उसे अपने प्राण गंवाने पड़ते है। 'स्मृति दंश' में भुवन का ऐसा अन्त मैत्रेयी जी के मन को उद्वेलित करता है जिसे उन्होंने नये सिरे से ‘‘अगनपाखी’’ में प्रस्तुत किया है।

‘‘ ‘स्मृति दंश’ और ‘बेतवा बहती रही’ दोनों ही ‘कथा’ कथा की दृष्टि से बहुत मामिर्क है। किसी भावुक पाठक की ऑंखों को अश्रुपूरित कर देने वालें दोनों ही उपन्यासों में परम्परागत पुरुष समाज द्वारा स्त्री पर होने वाले अत्याचार का अंकन किया गया है।’’

मैत्रेयी जी ने ‘इदन्नमम’ में विंध्य अंचल में बसे समुदाय की पृष्ठभूमि तैयार की है, जिसमें ग्रामीण समाज की सामाजिक, आथिर्क एवं राजनीतिक सभी समस्याएं उद्घाटित हुयी हैं। ‘इदन्नमम’ दलित समाज के पुनर्निर्माण का स्वप्न है; जिसे मैत्रेयी जी ने 'मंदा' के जरिये स्त्री मुक्ति को उद्घाटित किया है। इन्हीं नारी पात्रों को देखते हुए डाॅ. प्रभा खेतान लिखतीं हैं-

‘‘मानवीय सम्बन्धों के कुछ ऐसे नैसगिर्क शाश्वत मुद्दे हैं जिन पर अब तक स्त्री खामोश रही है। हाँ डरते-डरते ही सही अब उसने बोलना शुरू किया है।’’

‘चाक’ अथार्त् घूमता हुआ पहिया जिस पर गीली मिट्टी को मनचाहे आकार में ढ़ाला जाता है। यह उपन्यास बुंदेलखण्ड की धरती पर बसेरा करने वाली साहसी स्त्रियों की गाथा है। जो समाज में एक नयी नैतिकता को जन्म देती है। कथा की मुख्य पात्र ‘सारंग’ और ‘श्रीधर’ हैं। सारंग ही है जो चाक पर गीली मिट्टी के ढेले की भाँति संवारी जाती है।

‘झूलानट’ यह एक छोटे से परिवार की कहानी है। एक जुझारू माँ, दो बेटे और एक उतनी ही जुझारू बहू की। बालकिशन, बालकिशन की माँ और शीलो जो बालकिशन के बड़े भाई सुमेर की पत्नी है। शीलोे कहानी की एक ऐसी पात्र है जो संघषर्शील स्त्री है। शीलो के रूप में एक जाट युवती के परम्परागत मूल्यों को चुनौती देने, स्त्री-संहिता को नकारने और विद्रोह करने का चित्रण किया गया है।

‘अल्मा कबूतरी’ बुंदेलखण्ड की विलुप्त जनजाति ‘कबूतरा’ को लेकर यह उपन्यास रचा गया है। ‘अल्मा कबूतरा’ समाज के एक मात्र पढ़े-लिखे व्यक्ति रामसिंह की पुत्री है। रामसिंह ने अल्मा को जन्म से ही कबूतरा बस्ती और उसकी सामाजिक बुराइयों से दूर रखा है। कहानी के अन्त में अल्मा ने अपने पिता के मृत्यु का प्रतिशोध लिया साथ ही पूरे कबूतरा समाज में कबूतरा जाति को निश्चित स्थान दिलाने का सम्पूर्ण प्रयास किया।

‘‘मगर अल्मा अपनी बान नहीं छोड़ेगी। मरे या रहे?..
अल्मा माने आत्मा, बप्पा ने सोच-समझकर नाम रखा था, कहते थे आत्मा नहीं मरती।’’

‘अगनपाखी’ यह उपन्यास समाज को एक नयी दृष्टि प्रदान करती है। इस उपन्यास में छल, छद्म, बैर-प्रीति, घात-प्रतिघात और लोक मान्यताओं का सहज प्रस्तुतीकरण हुआ है। यह उपन्यास रिश्तों की दहलीज पर की गई साजिशों का एक पुलिन्दा है। जिसकी भुग्त-भोगी ‘भुवन’ जो कभी रिश्तों की सामाजिक बुनावट से दरकिनार होती है तो कभी फरेब से।

यह हमारे समाज की वास्तविकता है कि स्त्री न मायके की हकदार रहती है न ससुराल की। वैवाहिक व्यवस्था का ढाॅंचा स्त्रियों के अस्तित्व को कुचल रहा है। लोभ-प्रलोभन में फंसाकर हर जगह उसके साथ छल हो रहा है। तभी तो भुवन कहती है-

‘‘हाँ जाड़े में भी ठण्डे जल से नहाना बताया है, फिर भी भीतर का गुस्सा नहीं सिराता।’’

विडम्बनाओं से घिरी हुई ‘भुवन’ राह तलाशती है। औरत की विषमता को मैत्रेयी जी ने भुवन में कूट-कूटकर भरा है। स्त्री अपनी अस्मिता की तलाश में किस हद से नहीं गुजरती। पारम्परिक रीति-रिवाज एवं आदर्शों पर मैत्रेयी जी ने प्रश्नचिह्न लगा दिया है।

‘विजन’ महानगरीय जीवन में व्याप्त मध्यवगीर्य परिवारों में बसने वाली सोच और दिखावेपन को इस उपन्यास में रेखांकित किया गया है। डाक्टरी जीवन में हो रहे भेद-भाव, स्त्री की उपेक्षा एवं नैतिक मूल्यों के स्थान पर पारम्परिक रूढ़ियों का अधिक वचर्स्व सामाजिक न्याय में बांधा डाल रहे हैं। स्त्री भले ही आथिर्क रूप से समर्थ हो जाए लेकिन चलना उसे सामाजिक परम्पराओं पर ही है। इसी द्वंद्व को झेलती हुई डाॅक्टर नेहा को विषय का केन्द्र बनाया गया है। मैत्रेयी जी ने नेहा और आभा के जरिये स्त्री के मनोभावों को व्यक्त करने का सफल प्रयास किया है। स्त्री पुरुष के समान अधिकारों की बात की है। सदियों से चली आ रही रूढ़ि-परम्परा को तोड़ना चाहती हैं। साथ ही चिकित्सा के क्षेत्र में हो रहे अनाचार को भी चित्रित किया गया है।  ‘‘पति की अनुगामनी बनना ही तो जीवन का ध्येय नहीं। सहगामिनी होती तो बात कुछ और होती। जिन्दगी को मिशन माना था आभा ने। मिशन, जो किसी काज के लिए होता है, महज व्यक्ति के लिए नहीं।’’  ‘कही ईसुरी फाग’ में मैत्रेयी पुष्पा ने 'ईसुरी' और 'रजऊ' की प्रेमकथा के साथ-साथ, ऋतु और माधव, तुलसीराम और माधुरी और सालिगराम कहारे और सावित्री की प्रेमकथा को वर्णित किया गया है। इस उपन्यास में 'रज्जो' एक असाधारण मानसिकता की उपज है जिसमें स्त्री-चेतना अपने उच्च भावभूमि के साथ उभरकर आयी है।

‘त्रियाहट’ त्रिया हट अथार्त् एक स्त्री की हठ। मैत्रेयी जी ने इस उपन्यास के माध्यम से स्त्री के जीवन से जुड़ी, स्त्री-शिक्षा, पंचायत चुनाव में महिला आरक्षण, विधवा-विवाह, व्यवसाय एवं स्त्री अस्मिता जैसी समस्याओं पर प्रकाश डाला है, जिसकी मुख्य पात्र है उवर्शी। ‘गुनाह-बेगुनाह’ उपन्यास महिला कान्स्टेबल ‘इला चौधरी’ के नौकरी के दौरान आयी उन महिलाओं के दास्तान हैं, जिन्हें बेगुनाह साबित करने के लिए इला चौधरी मानसिक एवं सामाजिक द्वंद्व झेलती है। उनकी आत्मीयता भरी दृष्टि महिला गुनहगारों से एकाकार हो उठती है। इस उपन्यास में दिखाया गया है कि कानून के पद पर बैठे अधिकारी, पुलिसकर्मी, सहकर्मी सभी अपने हित-कामनाओं की पूर्ति हेतु मानवीय संवेदनाओं से रिक्त हो चुके हैं। दहेज विरोधी कानून, घरेलू हिंसा, सामूहिक बलात्कारों की असलियत और औरतों द्वारा अंजाम दिये गये हत्या-कांडों के कच्चे चिट्ठे खोले गये हैं।

‘फरिश्ते निकले’ टूटे हुये घरौदों को जोड़ने के खातिर स्त्री किस-किस राह से गुजरती है, संभलती है और नया आशियाना बनाती है। ऐसी ही चरित्र को लेकर ‘बेला बहू’ को ‘फरिश्ते निकले’ उपन्यास में चित्रित किया गया है। मैत्रेयी जी ने इस उपन्यास में तत्कालीन ग्रामीण समाज एवं राजनीतिक दलों में फैले अनाचार, अत्याचार को प्रकट किया है। फूलन कहती है-

‘‘बेला अपने समाज को बागी औरतें ही बदल सकती हैं, भली औरतों को तो मर्द गन्ने की तरह पेरते रहते हैं और मूछों पर ताव देते हैं। भली औरते, बेचारी अपने ‘भोलेपन’ को ढोती हुई तड़पती रहती हैं।’’

मैत्रेयी जी ने इस उपन्यास के माध्यम से स्त्री पर हो रहे अत्याचार एवं बलात्कार का कच्चा चिट्ठा पेश किया है। महिलाओं के बागी रूप का कारण पुरुषवादी सत्ता का हावी होना है। बेला बहू ने बीहड़ो में एक नये समाज का निमार्ण किया है। जहां पुरुषों का वचर्स्व न हो शान्ति और प्रेम हो।

‘नमस्ते समथर’ में साहित्य संस्थाओं में चलने वाली दांव-पेंच एवं राजनीतिक-भ्रष्टाचार का यथार्थ प्रस्तुत किया गया है। यह संस्मरण उपन्यास के रूप में मैत्रेयी जी के अपने जीवन दिल्ली के ‘हिन्दी एकादमी’ में कायर्रत अनुभव है। जहाँ सम्मान प्राप्त करने की होड़ लगी है। कथा की मुख्य पात्र 'कुन्तल' है जो ‘भारतीय साहित्य संस्था’ की उपसंयोजिका है।

‘‘मेरे मन में बार-बार ये विचार उठता है कि तुम्हारे साथ मुझे समथर जाना चाहिए। यह आकांक्षा जल्दी ही पूरी होगी मगर किस दिन पूरी होगी यह निश्चित नहीं है। ‘समथर’ यह शब्द या कस्बा भर नहीं, बहुत कुछ है समझो तो।’’

भारतीय संस्कृति में महिलाओं को समाज में ऊँचा दर्जा दिया है परन्तु अनेक कारणों से भारतीय स्त्रियों की स्थिति निरन्तर कमजोर होती गई और उन्हें पुरुषों द्वारा असीमित मर्यादा और अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया गया है। स्त्री परम्परा,मूल्यों को नकारते हुए अपने व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा चाहती है। इतिहास, सभ्यता और धमर्शास्त्रों ने स्त्री को बधिया बना दिया है। उसकी सारी सृजनशीलता दमन कर दिया है।

स्त्री चेतना से तात्पर्य स्त्री की अस्मिता या विभिन्न स्तरों पर प्राप्त अनुभवों के स्वरूप से है, जिसमें नारी आधुनिक समाज में अपना अधिकार प्राप्त कर सके। नारी-चेतना वह विचारधारा है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मांग करता है। मैत्रेयी जी ने अपने उपन्यासों में नारी चेतना को प्रमुखता से मुखर किया है। उनके उपन्यासों के अधिकतर स्त्री-पात्र ग्रामीण एवं अनपढ़ हैं लेकिन अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं।

‘‘स्त्री समानता का संघर्ष सामाजिक, आथिर्क एवं राजनीतिक इन तीनों ही स्तरों पर एक ही साथ चलना चाहिए।’’
संदर्भ सूची :-
(1) ‘वागर्थ’- सितम्बर 2017, पृष्ठ-39
(2) ‘कस्तूरी कुडल बसै’- मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ-29
(3) ‘हिन्दी उपन्यास का इतिहास’-डाॅ0 गोपाल राय, पृष्ठ- 387
(4) 'आधुनिक हिन्दी उपन्यासों में नारी के विविध रूपों का चित्रण'-मो0 अजहर ढेरी वाला, पृष्ठ-99
(5) 'अल्मा कबूतरी'-मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ-347
(6) 'अगनपाखी'-मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ-96
(7) 'विजन'-मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ-120
(8) 'फरिश्ते निकले'-मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ-87
(9) 'नमस्ते समथर'-मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ-12
(10) 'स्त्रीवादी साहित्य विमर्श'-जगदीश्वर चतुवेर्दी, पृष्ठ-204

डॉ. सारिका देवी

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