वर्तमान लेखन और पूर्वाग्रह
विषयों की। मनुष्य समष्टि का एक अंश-मात्र है। हमारे ज्ञान, बोध एवं दुनियावी अनुभवों से हम यह मानकर चलते हैं कि यह दुनिया इतनी ही है, जितनी हमने देखी, सुनी एवं जानी है, मगर अनंत ब्रह्माण्ड के बारे में अभी भी कई रहस्य हमारी ज्ञानेंद्रियों से अछूते ही हैं, इसलिए अगोचर हैं। तो विषय हमारे चारों ओर फैले हुए हैं। वे विषय भी गोचर-अगोचर दोनों ही श्रेणियों के होते हैं। अगोचर विषयों के लिए जहॉं एक ओर कठिन अध्यात्मिक साधनाओं की आवश्यकता होती है
कुछ भी लिखने के लिए क्या आवश्यक होता है? एक विषय, उस विषय-विशेष पर अनुभवात्मक चिंतन, अध्ययन, भाषायी ज्ञानष्ठ.. और? इससे भी आवश्यक है - लिखने की `इच्छा' का होना। यह ठीक है कि लेखन के लिए एक परिस्थिति-विशेष की आवश्यकता होती है। कभी तो हमारे दर्द या कोई दु:खद-सुखद अनुभव लिखने के लिए हमें स्वत: ही बाध्य कर दिया करते हैं, मगर इस प्रकार लिखने के लिए भी किसी घटना का अवलंबन तो आवश्यक है ही। अगर विषय ही नहीं होगा, तो क्या ही लिखा जाएगा और क्योंकर?
अब बारी आती है - विषयों की। मनुष्य समष्टि का एक अंश-मात्र है। हमारे ज्ञान, बोध एवं दुनियावी अनुभवों से हम यह मानकर चलते हैं कि यह दुनिया इतनी ही है, जितनी हमने देखी, सुनी एवं जानी है, मगर अनंत ब्रह्माण्ड के बारे में अभी भी कई रहस्य हमारी ज्ञानेंद्रियों से अछूते ही हैं, इसलिए अगोचर हैं। तो विषय हमारे चारों ओर फैले हुए हैं। वे विषय भी गोचर-अगोचर दोनों ही श्रेणियों के होते हैं। अगोचर विषयों के लिए जहॉं एक ओर कठिन अध्यात्मिक साधनाओं की आवश्यकता होती है, वहीं दूसरी ओर गोचर विषय सहज-सुलभ हैं, आवश्यकता बस इस बात की होती है कि हम उस विषय को किस प्रकार से महसूस करते हैं एवं उसे लेकर हमारा दृष्टिकोण क्या है? अब बात दृष्टिकोण की आती है, तो हमारा दृष्टिकोण कैसे निर्धारित होता है कि हम किस विषय का चयन करें एवं उस पर क्या लिखें? यह प्रश्न आज के समय के लेखकों का सबसे पेचीदा प्रश्न है।
हालॉंकि वैचारिक विषयों में आजकल एक भ्रामक वातावरण निर्माण कर दिया गया है। लेखक ऐसे विषयों से दूरी बनाकर रखने लगे हैं, जिन पर किसी की आपत्ति आ सके। वह आपत्ति एवं आपत्तिकर्त्ता की क्या निष्ठा है एवं क्या हित हैं, इस बारे में कभी विचारने में विश्वास ही नहीं करता। इसका एक कारण यह भी है कि हमारे देश में मेधाओं की `सोशल इंजीनियरिंग' ही ऐसी कर दी गई है, जिससे लेखकों के आत्मविश्वास एवं निष्ठा में एक प्रकार की वैचारिक-पंगुता उत्पन्न हो चुकी है। आपको कुछ विषय एकदम त्याज्य कहकर इस सीमा तक रटवाये गये हैं कि आप उन विषयों के प्रति उदासीन भी हो चुके हैं एवं अनिच्छुक भी। ऐसे तथाकथित त्याज्य विषयों में आपकी जबरन निष्ठा उत्पन्न करवाई गई है। तलवारों से क्रांतियॉं इतिहास में कई जगहों पर दर्ज हैं, मगर आज का समय वैचारिक क्रांति का समय है एवं इस समय सबसे अधिक आवश्यक है - कलम। आज कलम, क्रांति के एक प्रभावी हथियार के रूप में पुन: प्रासंगिक एवं प्रतिष्ठित हो रही है। यह वैचारिक-हिंसा का दौर है, इसलिए आज लेखक को विशेष रूप से सजग एवं जागरूक रहने की आवश्यकता है। आज के डिजीटल युग में सूचनाओं तक आपकी पहुँच अत्यंत सुगम हो गई है। पल-भर में आप मात्र एक क्लिक से किसी भी जानकारी तक पहुँच सकते हैं, मगर जानकारी अत्यंत घातक वस्तु है। जानकारी का उद्गम, उसका आंतरिक सत्य, उसके विभिन्न एंगल, उसके निहितार्थ एवं उद्देश्यों के बोध के बिना जानकारी अपने-आप में अति विस्फोटक है। यही कारण है कि आज समाज किसी भी विषय पर एकमत नहीं हो पाता। उसके पीछे जो सबसे बड़ा कारण है, वह है - 'प्रामाणिक' अध्ययन का अभाव। यहॉं पर प्रामाणिक क्यों लिखा गया है, इसकी चर्चा पिछली पंक्तियों में ही हो चुकी है।
आज लेखक केवल उन्हीं विषयों पर कलम चलाने में यक़ीन करते हैं, जिनमें उनकी वैचारिक या राजनैतिक-निष्ठा हो। समाज में व्याप्त कुछ कुरीतियों या घटनाओं पर सम्पूर्ण समाज को कटघरे में खड़ा करने की कोशिशें एक नकारात्मक विमर्श का वातावरण बनाने लगी हैं। पीड़ित के प्रति सम्वेदना, व्यक्त करने अथवा उसके अधिकार की बात करने से पूर्व लेखक उसका धर्म, मज़हब एवं जाति देखने लगे हैं, बनिस्बत उस घटना की वीभत्सता के न्यायिक-पक्ष में आवाज़ उठाने के। इस मामले में आज के लेखक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। आज अपने धर्म, राष्ट्र एवं धर्माचार्यों का मज़ाक़ उड़ाना फैशन बनता जा रहा है एवं ऐसे लोगों को बुद्धिजीवी होने का तमगा बॉंटा जाने लगा है। लेखन तभी सार्थक माना जाने लगा है, जब वह धर्म को पाखण्ड बताता हो, इस उदारवादी धर्मसमूह को हिंसक बताता हो। यह सीधी सी बात लेखकों को क्यों समझ नहीं आ रही, यह समझ से परे है।
वैचारिक स्तर पर देखें तो आज विश्व दो खेमों में बँट चुका है। पहला खेमा है -लेफ्ट एवं दूसरा है राइट, यानी वामपंथ एवं दक्षिणपंथ। दक्षिणपंथी प्राय: अपनी राष्ट्रीय सरोकारों को स्थापित करने के लिए संघर्षशील हैं, वहीं वामपंथी अपनी आकर्षक, किन्तु अमानवीय-अराष्ट्रीय विचारधाराओं को फैलाने में अधिक सफल हो जाते हैं, कारण कि वे `उच्छृंखलता' की परम सीमा के हिमायती ‘लगते’ हैं। आश्चर्य है कि दक्षिणपंथ, जिसे `राइट विंग' कहा जाता है, वह `राइट' होकर भी हमेशा ग़लत ठहराया जाता है! जो लोग सामाजिक विषयों पर लिखने में रूचि रखते हैं, वे भी केवल उन्हीं विषयों पर लिखते हैं, जिनमें उनकी राजनीतिक, जातीय या आर्थिक प्रतिबद्धता हो। विभिन्न खेमेबाजियों में बँटे लोग धीरे-धीरे स्वयं खेमे का रूप लेते जा रहे हैं।
दुर्गेश कुमार 'शाद'
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