साहित्य में सावन के सौंदर्य का वर्णन
साहित्य में मनभावन सावन के सौंदर्य का मनोरम वर्णन किया गया है। कवियों , लेखकों ,चित्रकारों और कलाकारों को सावन का सौंदर्य सभ्यता और संस्कृति के आदिकाल से ही आकर्षित करता रहा है।सावन के महीना को वर्षा ऋतु का पर्याय माना जाता है।वर्षा और सावन की जुगलबंदी मशहूर और मोहक है।
प्रख्यात साहित्यकार अतुल चतुर्वेदी लिखते हैं-" सावन हमारे अंदर के हरेपन को जीवित रखने का मौसम है जो न केवल हमें आनंदित करता है बल्कि हममें एक नई किस्म का आलोड़न ,प्रसन्न्ता ,और स्फूर्ति भरती है।सावन के साथ हमारी सामूहिकता की भावना और साहचर्य का सुख जुड़ा हुआ है।सावन में साथ- साथ झूला झूलने और कजरी के गीतों का आनंद ही कुछ और है।सावन हमारे भीतर का सुप्त राग है जो हमें झंकृत करता है और हमारे भीतर के सृजनात्मकता को नए आयाम देता है।वर्षा की बूंदों के साथ -साथ शीतलता परोसने और सबको जीवन देने का दर्शन समझने की जरूरत है।" वेद ,रामायण,अन्य संस्कृत साहित्यों से लेकर भक्तिकालीन और आधुनिक साहित्यों में सावन के सौंदर्य का रोचक वर्णन किया गया है।
प्रख्यात साहित्यकार नर्मदा प्रसाद उपाध्याय इस संदर्भ में लिखते हैं-
" सावन मन की वह भागवत है जिसके आनन्द को हमारा मन बांचता है और वह गीत गोविंद है जिसकी हरेक अष्टपदी के प्रत्येक शब्द पर देह का रोम रोम थिरकता है। सावन की झड़ी में बरसने वाली हर बूंद में नृत्य की पुलक समाई रहती है।सावन में बूंदे बरसती नहीं थिरकती हैं। " शूद्रक, भर्तृहरि, जयदेव , कालिदास जैसे संस्कृत कवियों ने सावन की वर्षा को अपने काव्यों में वर्णन किया है।
कालिदास ने मेघ का सुन्दर वर्णन " मेघदूत" में किया है।उन्होंने 'मेघदूत 'का प्रारंभ आषाढ़ मास से किया है, पर पावस ऋतु का विधिवत् प्रारंभ सावन माह से ही होता है।' मेघदूत ' में कालिदास का यक्ष मेघ को ताजे खिले हुए कुटज के फूलों का अर्घ्य देकर उसका अभिनंदन करता है।
'ॠतुसंहार ' में भी कालिदास ने वर्षा के आगमन का रोचक चित्रण किया है। कहा भी गया है कि " यदि सावन में
' मेघदूत' को नहीं पढ़ा तो भारतीय संस्कृति में मेघों के उत्सव को आपने समझा ही नहीं। " वेदों में वर्षा ऋतु से संबंधित अनेक सूक्त हैं।वृष्टि सूक्त (अथर्ववेद 4/12), प्राण सूक्त ( अथर्ववेद 11/4 ) और मंडूक सूक्त ( ऋग्वेद 7/103 ) में वृष्टि- सौंदर्य और महत्व को अभिव्यक्त किया गया है। श्रीमद् वाल्मीकि रामायण में इससे संबंधित श्लोक हैं।
"मेघोदरविनिर्मुक्ताःकर्पूरदलशीतलाः।
शक्यमञ्जलिभिः पातुंवाताः केतकगन्धिनः।।"
(" मेघ के उदर से निकली कपूर की डली के समान ठंढ़ी तथा केवड़े की सुगंध से भरी हुई इस बरसाती वायु
को मानो अञ्जलियों में भरकर पीया
जा सकता है।" )
" कशाभिरिव हैमीभिर्विघुद्भिरभिताडितम्।
अन्तःस्तनितनिर्घोषं संवेदनमिवाम्बरम् ।।")
( ये बिजलियाँ सोने के बने हुए कोड़ों के समान जान पड़ती है।इनकी मार खाकर मानो व्यथित हुआ आकाश अपने भीतर व्यक्त हुई मेघों की गंभीर गर्जना के रूप में आर्तनाद- सा कर रहा है।)
गोस्वामी तुलसीदास ने ' रामचरितमानस ' में लिखा है-
" घन घमंड नभ गरजत घोरा ,
प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।
दामिनी दमक रह नघन माहीं।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।
अर्थात् आकाश में बादल घुमड़ - घुमड़ घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया के बिना मेरा मन डर रहा है।बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं , जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती।
तथा
" दादुर धुन चहुं दिसा सुहाई।
बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई। ।।
नव पल्लव भए बिटप अनेका।
साधक मन जस मिलें बिबेका ।।"
अर्थात् चारो दिशाओं में मेढ़कों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है ,मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों।अनेकों वृक्षों में ने पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे- भरे एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक
प्राप्त हो जाता है।
सावन की बदरिया के सौंदर्य को देखकर मीरा गाती है-
" बरसै बदरिया सावन की
सावन की मनभावन की
सावन में उमग्यो मेरो मनवा
भनक सुनी हरि आवन की ।"
महाकवि सूरदास राधा - कृष्ण के वर्षा में भींगते- भीगते कुंज में आने का मोहक वर्णन करते हैं-
" कुंजन में दोउ आवत भीजत
ज्यों ज्यों बूंद परत चूनर पर
त्यों त्यों हरि उर लावत
अधिक झकोर होत मेघन की
द्रुम तरू छिन छिन गावत
वे हंसि ओट करत पीताम्बर
वे चुनरी उन उढ़ावत ।"
शव कवि मध्य काल में सावन के सौंदर्य का वर्णन भावविभोर होकर इस प्रकार करते हैं-
" वर्षा बरनहुँ हंस , बक , दादुर ,चातक , मोर ।
केतकी कंज , कदंब , जल , सौदामिनी घनघोर।।।"
मैथिल कोकिल महाकवि
विद्यापति ने भी लिखा है-
" साओन मास बरिस घन वारि।
पंथ न सूझए निसि अंधयारि।।
चउदिस देखिअ बीजुरि रेह ।
हे सखि! कामिनि जिवन संदेह। ।"
रीतिकालीन कवि सेनापति ने लिखा है-
" सेनापति उनए गए जल्द सावन कै,
चारहि दिसनि घुमरत भरे तोई के,
सोभा सरसाने ,न बखाने जात कहुँ भाति ,
आने हैं पहार मानो काजर कै ढ़ोई के।"
आधुनिक काल के कवियों में जनकवि नागार्जुन ने सावन के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखा है-
"अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है।
छोटे , छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को ,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है।"
अज्ञेय ने लिखा-
" रात सावन की
कोयल भी बोली
पपीहा भी बोला
मैनें नहीं सुनी
तुम्हारी कोयल की पुकार
तुमने पहिचानी क्या
मेरे पपीहे की गुहार?
रात सावन की
मनभावन की
पिय आवन की
लोकगीतों में बिखरे
सावन के रंग। "
कविवर भारत भूषण ने लिखा है-
" उमड़- घुमड़ कर गरज- गरज कर ,
बरसो हे ज्योतिर्मय घन बरसो।
इधर खेत पर उधर रेत पर,
बरसो हे समदर्शी घन बरसो।"
गोपाल सिंह ' नेपाली ' ने सावन की अभ्यर्थना में ' सावन ' शीर्षक से सौ मुक्तक रचे हैं। उनकी प्रसिद्ध कविता ' इस रिमझिम में चाँद हँसा है ' की इन पंक्तियों को पढ़िए-
"सुख-दुःख के मधु -कटु अनुभव को,
उठो हृदय, फुहियों से धो लो ,
तुम्हें बुलाने आया सावन,
चलो - चलो अब बंधन खोलो ,
पवन चला , पथ में हैं नदियाँ ,
उछल साथ में तुम भी हो लो,
प्रेम - पर्व में जगा पपीहा ,
तुम कल्याणी वाणी बोलो! "
प्रकृति के सुकुमार कवि ' पंत ' ने लिखा-
" झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के ,
छम छम छम गिरती बूंदे तरूओं से छन के ।
चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के ,
थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।"
और
" आज दिशा हैं घोर घनेरी
नभ में गरज रही रणभेरी,
चमक रही चपला क्षण- क्षण पर
झनक रही झिल्ली झन- झन कर!
नाच- नाच आंगन में गाते केकी - केका
काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।"
महाप्राण निराला बादलों को क्रान्ति के रूप में देखते हैं।
वे लिखते हैं-
" विकल , विकल , उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन,
तप्त धरा , जल से फिर
शीतल कर दो , बादल गरजो।"
ओज के कवि दिनकर ने भी सावन की बौछारों पर लिखा है-
" जेठ नहीं ,यह जलन हृदय की,
उठकर जरा देख तो ले ,
जगती में सावन आया है ,
मायाविनि ! सपने धो ले-------- "
प्रख्यात कवि हरिवंशराय बच्चन ने लिखा है-
" आज गगन की सूनी छाती
भावों से भर आई,
चपला के पावों की आहट
आज पवन ने पाई,
डोल रहे हैं बोल न जिनके
मुख में विधि ने डाले
बादल घर आए , गीत की बेला आई।"
महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी प्रसिद्ध कृति ' झरना ' में लिखा है-
" नव तमाल श्यामल नीरद माला भली
श्रावण की राका रजनी में घिर चुकी,
अब उसके कुछ बचे अंश आकाश में
भूले भटके पथिक सदृश हैं घूमते।"
महादेवी वर्मा ' मैं नीर भरी दुख की बदली 'लिखकर असीम ,अगोचर,परोक्ष प्रिय के प्रति प्रणय - निवेदन करती हैं। वे प्रिय की प्रतीक्षारत नायिका के मुँह से कहलवाती हैं-
" लाए कौन संदेश नए घन!
अम्बर गर्वित, हो आया नत,
चिर निस्पन्द हृदय में उसके
उमड़े री पुलकों के सावन!
लाए कौन संदेश नए घन! "
प्रसिद्ध कवि धर्मवीर भारती ने लिखा-
" बारिश दिन ढ़ले की
हरियाली - भीगी , बेबस , गुमसुम
तुम हो-------------।"
'ने लिखा है-
" सखी! बादल थे नभ में छाए
बादल था रंग समय का
थी प्रकृति भरी करूणा में
कर उपचय मेघ निश्चय का।
वे विविध रूप धारण कर
नभ- तल में घूम रहे थे
गिरि के ऊँचे शिखरों को
गौरव से चूम रहे थे।"
इस प्रकार हम देखते है कि साहित्य में हर कालखंड में कवियों ने ,साहित्यकारों ने सावन और पावस के सौंदर्य का मनोरम वर्णन किया है।
अरूण कुमार यादव
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