धनतेरस नरक चतुर्दशी या रूप चतुर्दशी दिवाली गोवर्धन पूजन भाई दूज का पौराणिक महत्व

धनतेरस के पीछे शुक्राचार्य की कथा भी शामिल है। विष्णु वामन अवतार लेकर, राजा बलि से तीन पग धरा दान माँग लेते हैं। उसके गुरु शुक्राचार्य विष्णु को पहचान लेते हैं और उनके इरादों को भांप लेते हैं। वे बलि को, दान का संकल्प लेने से रोकते हैं। बलि नहीं मानते हैं। वे कमंडल से हथेली में जल ढ़ारकर दान देने का संकल्प लेना चाहते हैं। उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए, शुक्राचार्य लघु आकार धारण कर, कमंडल में प्रवेश कर जाते हैं और जल को बाहर निकलने से रोक लेते हैं। तब वामन याचक रूपी विष्णु एक कुश घुसेड़ कर शुक्राचार्य को निकलने के लिए विवश करते हैं। 

Mar 19, 2025 - 19:24
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धनतेरस नरक चतुर्दशी या रूप चतुर्दशी दिवाली गोवर्धन पूजन भाई दूज का पौराणिक महत्व
Dhanteras Narak Chaturdashi or Roop Chaturdashi Diwali Govardhan Puja Mythological significance of Bhai Dooj

 भारत त्योहारों का देश है। वर्ष भर कोई न कोई पर्व-त्योहार, उत्सव मनाने की परंपरा है और लोग श्रद्धा एवं उत्साह से उन्हें मनाते आए हैं। महिलाएँ व्रत-उपवास रखती हैं। नियम एवं निष्ठापूर्वक सारा आयोजन किया जाता है। घर के प्रत्येक सदस्य उसमें सक्रिय रूप से भाग लेते हैं और आपसी सहयोग से सारा अनुष्ठान संपन्न किया जाता है। गाँव भर की भागीदारी होती है। सभी पेशे का ख्याल रखा जाता है।

वस्तुतः हमारे पूर्वजों के द्वारा, बहुत ही सूझबूझ एवं कुशलता से, जन्म से लेकर मृत्यु तक होने वाले ऐसे सभी संस्कारों एवं पर्व-त्योहारों का निर्धारण एवं नियमन किया गया था, ताकि सभी वर्गों को उसमें भागीदारी का उचित अवसर प्राप्त हो और आपसी सौहार्द एवं सहयोग से सभी आयोजन पूरे किये जाएं।

कथाएँ रची गईं, मिथक गढ़े गए, रीति-रिवाज विकसित किये गये, प्रथाओं का चलन हुआ और विभिन्न पर्व-त्योहारों, उत्सवों को परिवार के साथ समाज-कल्याण से जोड़ा गया और प्रकृति-पूजन एवं पर्यावरण-संरक्षण का ध्यान रखा गया।

दीपावली भी ऐसा ही एक त्योहार है। आज सारे संसार में बसे भारतीयों, भारतीय-मूल के निवासियों के द्वारा उत्साहपूर्वक मनाया जाता है और भारतीय संस्कृति के आलोक से सारा जग प्रकाशित हो रहा है। यह वास्तव में पाँच दिनों का त्योहार है। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी से आरंभ होकर यह शुक्ल पक्ष की द्वितीया को समाप्त माना जाता है। 

इन पाँच दिनों में क्रमशः धनतेरस या धन्वंतरि-जयंती, नरक या रूप चतुर्दशी, लक्ष्मी-पूजन या दिवाली, गोवर्धन-पूजा और अंत में यम-द्वितीया या भ्रातृ-द्वितीया जैसे पर्व मनाए जाते हैं।

भारतीय पौराणिक कथाओं में, समुद्र-मंथन की घटना का बहुत महत्व है। यह घटना वास्तविक थी अथवा मात्र कल्पना और प्रतीक, सुदूर अंतरिक्ष में घटित हुई थी अथवा पृथ्वी पर किसी स्थान-विशेष में अथवा मन में, इन सब बातों का विश्लेषण विद्वान व्यक्ति ही कर सकते हैं, किंतु उक्त घटना के सांकेतिक अर्थ गूढ़ हैं और भारतीय मनीषा पर, इनका गहरा प्रभाव पड़ा है।

सागर को संभावनाओं का प्रतीक माना गया है। उसके गर्भ में अनेक रत्न छिपे हैं, यथा -- कीमती धातुएं, खनिज, वनस्पतियाँ, औषधियाँ, मत्स्य, खाद्य पदार्थ, ऊर्जा के स्रोत आदि। उन्हें प्राप्त करने के लिए संयुक्त प्रयास करने होते हैं। गहन खोज एवं मंथन करना होता है। इसलिए देव और दानव, दोनों ने, आपस में सहयोग करने का निश्चय किया। वे दोनों परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां थीं और एक-दूसरे को संतुलित कर, प्राकृतिक संतुलन बनाए रख सकती थीं।

विष निकाल कर ही अमृत की प्राप्ति संभव है। अतः समुद्र-मंथन में, पहले हलाहल विष निकला, जिसे महादेव ने ग्रहण कर जगत को त्राण दिया। किसी न किसी को ऐसी चुनौती स्वीकार करनी होती है। पुनः धन से अधिक आवश्यक है स्वस्थ तन। अतः धन्वंतरि पहले प्रगट हुए, लक्ष्मी बाद में। उनके हाथ में अमृत कलश था। वे आयुर्वेद के देवता और विष्णु के अंशावतार माने गए। लक्ष्मी ने संसार के पालनकर्ता विष्णु का वरण किया, जो स्वाभाविक था।पालन-पोषण के लिए धन-संसाधन चाहिए। 

धन प्राप्ति के लिए अच्छा स्वास्थ्य अपेक्षित है। अतः पाँच दिनों के इस त्योहार का पहला दिन धनतेरस या धन्वंतरि जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस दिन धातु के बर्तन आदि खरीदे जाते हैं। ताम्बे के पात्र में रखा जल पीना स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है। 

धनतेरस के पीछे शुक्राचार्य की कथा भी शामिल है। विष्णु वामन अवतार लेकर, राजा बलि से तीन पग धरा दान माँग लेते हैं। उसके गुरु शुक्राचार्य विष्णु को पहचान लेते हैं और उनके इरादों को भांप लेते हैं। वे बलि को, दान का संकल्प लेने से रोकते हैं। बलि नहीं मानते हैं। वे कमंडल से हथेली में जल ढ़ारकर दान देने का संकल्प लेना चाहते हैं। उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए, शुक्राचार्य लघु आकार धारण कर, कमंडल में प्रवेश कर जाते हैं और जल को बाहर निकलने से रोक लेते हैं। तब वामन याचक रूपी विष्णु एक कुश घुसेड़ कर शुक्राचार्य को निकलने के लिए विवश करते हैं। 

संयोगवश कुश की नोंक, शुक्राचार्य की एक आँख में घुस जाती है और वे पीड़ावश बाहर निकल आते हैं। बलि संकल्प लेकर दान में अपना सर्वस्व गँवा बैठते हैं।विष्णु, उन्हें, पाताल लोक का स्वामी बनाकर भेज देते हैं। बलि के पराक्रम और दानशीलता से देवता भी सहमे थे। उन्हें तब राहत मिलती है। इस घटना की याद में भी धनतेरस मनाया जाता है, ऐसी मान्यता है।

अगले दिन नरक चतुर्दशी या रूप चतुर्दशी मनायी जाता है। विष्णु के वराह अवतार के समय, दैत्य हिरण्याक्ष के चंगुल से पृथ्वी या भूदेवी को, सागर से ऊपर लाते,  समय, दोनों के संसर्ग से भौमासुर या नरकासुर की उत्पत्ति हुई। वह प्रागज्योतिषपुर का राजा था और अत्याचारी था। उसका वध करने के लिए, कृष्ण और सत्यभामा गरुड़ पर सवार होकर, वहाँ गए और काफी संघर्ष के बाद, नरकासुर मारा गया। सत्यभामा को भूदेवी का अंश माना गया है और उनके सहयोग की आवश्यकता थी। नरकासुर के अत्याचार से लोगों को मुक्ति मिली। कोई सोलह हजार एक सौ बंदी नारियों को छुड़ाया गया। लोगों ने खुशी के दीए जलाए।

इस दिन को छोटी दिवाली कहा जाता है। घर के बुजुर्ग व्यक्ति, एक जलता दीया लेकर घर में चारों ओर घुमाकर, उसे घर से दूर रख आते हैं। इसे यम का दीया कहा जाता है। आज यम, लक्ष्मी एवं कुबेर की पूजा की जाती है। बंगाल में काली पूजा की जाती है। स्वस्थ तन से मानसिक विकारों और बुराइयों को, भौमासुर की तरह दूर किया जाना आवश्यक है। 

अगले दिन कार्तिक अमावस्या की रात, पूरे घर-बाहर दीप जलाकर दिवाली मनायी जाती है और लक्ष्मी-पूजन किया जाता है। इस दिन समुद्र-मंथन के दौरान, लक्ष्मी जी का अवतरण हुआ था, जो धन, रूप, और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं। इसी दिन, चौदह वर्षों का वनवास पूराकर, लंका-विजय के उपरांत, सीता और लक्ष्मण समेत अयोध्या लौटे थे। लोगों ने दीप जलाकर, उनका प्रसन्नतापूर्वक स्वागत किया। 

तन और मन स्वस्थ हों, तो प्रसन्नता का अनुभव होना स्वाभाविक है। दीपावली बुराइयों पर अच्छाई की जीत की प्रतीक है और जो अज्ञान, अहंकार आदि दुर्गुणों-रूपी अंधकार को ज्ञान-रूपी दीप जलाकर, दूर करने की प्रेरणा देती है।

अगले दिन गोवर्धन-पूजा का त्योहार आता है और इसे विशेष रूप से गौ-पालकों के द्वारा मनाया जाता है। गाय और बैल की पूजा की जाती है। गाय, पृथ्वी के समान पालनकर्ता एवं माता मानी जाती है। बैल खेती एवं भार-वहन में उपयोगी हैं। 

इस प्रकार पर्व के चार दिनों में, समाज को, पहले स्वस्थ शरीर, फिर बुराइयों पर विजय, अंधेरे से रौशनी की ओर गमन और प्राप्त तथा अर्जित धन का सदुपयोग कृषि-पशुपालन आदि कामों में किये जाने के संदेश हमें मिले हैं। गौ-सेवा को विशेष महत्व दिया गया है। आज के दिन, इंद्र के प्रकोप से, ब्रजवासियों की रक्षा के लिए, कृष्ण ने, गोवर्धन पर्वत को उठा लिया था। उसकी याद में गोवर्धन-पूजा की जाती है।

पाँचवे दिन भ्रातृ-द्वितीया अथवा यम-द्वितीया का त्योहार मनाया जाता है। कायस्थ लोग, यम अर्थात् धर्मराज के सहायक एवं अपने आदिपुरुष भगवान चित्रगुप्त एवं कलम-दावात की पूजा करते हैं। आज के दिन यमुना ने अपने भाई, यम को अपने घर बुलाकर भोजन कराया था। आज के दिन कई नरकभोगियों को मुक्ति मिल जाती है।

आज बहनें अपने भाइयों को बुलाकर भोजन कराती हैं और उसके लम्बे एवं सुखी जीवन की कामना करती हैं।

 भाई-बहन के आपसी स्नेह का यह त्योहार एवं साथ ही रक्षाबंधन, हमारी संस्कृति की विशेष पहचान एवं उपलब्धियाँ हैं। अन्य कहीं भी, किसी सम्प्रदाय, संस्कृति में ऐसा उदाहरण संभवतः देखने को न मिले।

दीपावली महापर्व के माध्यम से, हमारे जीवन में स्वास्थ्य, सदाचार, समृद्धि, जीविकोपार्जन, गौ-सेवा एवं पारिवारिक स्नेह-संबंधों, इन सबके महत्व को समझाया गया है। इसमें पुराण एवं विज्ञान दोनों का समावेश है।

 गोपाल सिन्हा,

    हांगकांग,

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