समकालीन हिन्दी साहित्य में विमर्श

एक बड़ा प्रश्न यह है कि उपर्युक्त जिन साहित्यिक विमर्शों को हम समकालीन मान रहे हैं, मात्र हमारे समकालीन हैं या साहित्य में वे पहले से विद्यमान थे! इसी के समानांतर प्रश्न यह है कि जिसे हम इनका जन्मकाल मान रहे हैं, वह विमर्श की दृष्टि से ही इनका जन्मकाल है ना? कथ्य की दृष्टि से ये तीस वर्ष से भी कहीं अधिक समय से हिन्दी साहित्य में उपस्थित थे, सत्य यही है!

Jun 5, 2025 - 14:15
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समकालीन हिन्दी  साहित्य में विमर्श
Discourse in contemporary Hindi literature

विमर्श का अर्थ है - विचार; विवेचन; परीक्षण; समीक्षा; गुण दोष की मीमांसा; परामर्श; तर्क आदि! (१)
समकालीन हिन्दी साहित्य की अवधि ठीक अभी से कितना पीछे की माने, यह एक प्रश्न है! इसमें जो साहित्यिक विमर्श हैं, उनके जन्म का समय क्या है और वह यदि लगभग विगत तीस वर्ष का है, तो उसे समकालीन साहित्यिक विमर्श मान लेना कितना स्मीचीन होगा, इस पर भी हमें विचार करना चाहिए! दलित विमर्श; स्त्री विमर्श; किन्नर विमर्श; समलैंगिक विमर्श; वृद्ध विमर्श; बाल विमर्श आदि को हम उनके जन्मकाल को उपेक्षित करते हुए यदि समकालीन साहित्यिक विमर्श मान लें, तो मुझे इसमें कोई आपत्ति अनुभव नहीं होती है। 
एक बड़ा प्रश्न यह है कि उपर्युक्त जिन साहित्यिक विमर्शों को हम समकालीन मान रहे हैं, मात्र हमारे समकालीन हैं या साहित्य में वे पहले से विद्यमान थे! इसी के समानांतर प्रश्न यह है कि जिसे हम इनका जन्मकाल मान रहे हैं, वह विमर्श की दृष्टि से ही इनका जन्मकाल है ना? कथ्य की दृष्टि से ये तीस वर्ष से भी कहीं अधिक समय से हिन्दी साहित्य में उपस्थित थे, सत्य यही है!
इस शोधपत्र के प्रथम अनुच्छेद में विमर्श के जितने अर्थ हैं, क्या समकालीन हिन्दी साहित्य के उपर्युक्त विमर्श उन सभी अर्थों पर आदर्श नहीं हैं। यह एक सत्य है कि दलित विमर्श; स्त्री विमर्श; किन्नर विमर्श; समलैंगिक विमर्श; वृद्ध विमर्श; बाल विमर्श आदि विमर्श से अधिक जन्म पर आधारित सर्जन और उसी सर्जन को सच्चा विमर्श विशेष प्रमाणित करने की हठधर्मिता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। प्रायः प्रत्येक विमर्श की विवशता या सीमा उसके सृजक की जाति से और उसके वर्ग तक आकर ठिठक जाती है और ऐसे में साहित्य में सहानुभूति तथा स्वानुभूति, इन दो आधारों पर भी `सच्चा साहित्य' प्रमाणित करने की होड़ लग जाती है।
अपने समय में समकालीन साहित्य के परिप्रेक्ष्य में महादेवी वर्मा ने लिखा था- `साहित्यकार की साहित्य-दृष्टि का मूल्यांकन तो अनेक आगत अनागत युगों में हो सकता है, परंतु उसके जीवन की कसौटी उसका अपना युग ही रहेगा, पर यह कसौटी जितनी अकेली है, उतनी निर्भ्रांत नहीं। देशकाल की सीमा में आबद्ध जीवन ना इतना असंग होता है कि अपने परिवेश और परिवेशियों से उसका कोई संघर्ष ना हो और ना यह संघर्ष इतना तरल होता है कि उसके आघातों के चिह्न शेष ना रहें।'(२)
समकालीन हिन्दी साहित्य के विमर्शों को हमें उनके `मन्तव्यों' के परिप्रेक्ष्य में देखने; विचारते और कहने का साहस करना है, जो कुछ के लिए ही संभव है! 
वर्तमान साहित्यिक विमर्शों में `स्त्री-लेखन' एवं `दलित साहित्य', दोनों ही सम्पूर्ण साहित्यिक प्रतिमानों के समक्ष सर्वया नयी चुनौतियां उपस्थित कर रहे हैं। इन दोनों साहित्यिक विमर्शों ने `स्वानुभूति' और `सहानुभूति' के परिप्रेक्ष्य में वास्तविक और अवास्तविक साहित्य के विवादजनक कंकड़ शान्त साहित्यिक सरोवर में फेंके हैं।
स्त्री लेखन और दलित साहित्य, दोनों की `वास्तविकता' को लेकर इनके ज्यादातर पक्षधरों का कहना है कि वही लेखन वास्तविक स्त्री लेखन है, जो मात्र किसी स्त्री-लेखिका द्वारा लिखा गया हो। इसी प्रकार वास्तविक दलित साहित्य मात्र वही है जो किसी दलित साहित्यकार की लेखनी से लिखा गया हो! स्त्री लेखन और दलित साहित्य की उक्त एकांगी परिभाषाओं ने साहित्य के उदात्त और सबके हित-युक्त होने के भावों पर करारी चोट की है, जिससे क्रूर राजनीति की भांति साहित्य में भी लैंगिक और जातीय विभाजन की स्थिति उत्पन्न हुई है।' ( ३) स्त्री लेखन और दलित साहित्य को क्रमशः लैंगिक और जातीय आधार पर ही परिभाषित करने वालों से एक प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि स्वयं अपने लेखन में वे जिन पुरुष पात्रों या गैर दलित पात्रों का वर्णन करते हैं, उन्हें भला कैसे `वास्तविक' या वास्तविकता के निकट माना जा सकता है। उनके अनुसार पुरुष साहित्यकार और गैर दलित साहित्यकार यदि क्रमशः स्त्री और दलित को `वास्तविक' पीड़ा को नहीं समझ सकते, तो प्रकारान्तर से एक स्त्री लेखिका और एक दलित साहित्यकार भला कैसे क्रमशः एक पुरुष और गैर दलित पात्र की वास्तविकता को समझ सकता है?
`लैंगिक और जातीय आधार पर अपने साहित्य को मनवाने की हठधर्मिता ने साहित्य में `वास्तविक- अवास्तविक' के अतिरिक्त अनेक `उपविभाजन' भी किये हैं। अब सवर्ण स्त्री लेखन और दलित स्त्री लेखन को लेकर भी पृथक-पृथक साहित्यिक- अस्तित्व के स्वर सुनायी दे रहे हैं। कल ये स्वर ग्रामीण स्त्री लेखन, कस्बाई स्त्री लेखन, महानगरीय स्त्री लेखन, ग्रामीण दलित स्त्री लेखन, शहरी दलित स्त्री लेखन, गृहिणी स्त्री लेखन, कामकाजी स्त्री लेखन के रूप में भी उभरने लगें, तो आश्चर्य क्या! इसी प्रकार दलित साहित्य के साथ यदि शनैः शनैः ब्राह्मण साहित्य, क्षत्रिय साहित्य, वैश्य साहित्य और समस्त जाति-उपजातियों के साहित्य, रचनाकार की जाति के नाम पर उभरकर सामने आने लगें, तो भी भला क्या आश्चर्य हो सकता है! इससे भी आगे बढ़कर यदि धर्मों के नाम पर भी साहित्यिक झंडे लहराये जाने लगें, तो भी भला क्या कहा जा सकता है? मूल प्रश्न साहित्य की अस्मिता और इसकी उद्देश्य-सम्पन्नता का है।' (४) लिंग और जाति के आधार पर प्रत्येक रचनाकार अपने अनेक व्यक्तिगत अनुभव स्वयं से इतर ाfलंग या जाति के रचनाकार से अधिक लेकर आता है, इसमें दो मत नहीं, परन्तु उन अनुभवों के आधार पर मात्र स्वयं को ही अपने सम्बद्ध साहित्य का `वास्तविक रचनाकार' मान लेना उचित नहीं है। साहित्य लिंग, धर्म इत्यादि से मुक्त मूलतः मानवीय संवेदना का जीवन्त दर्पण है, जिसमें सबके हित की भावना अपरिहार्य है। कोई भी लेखन यदि साहित्य की उक्त भावना को खंडित करता है, तो वह और चाहे कुछ भी हो, साहित्य कदापि नहीं हो सकता है।
दलित साहित्यकार अपने `वास्तविक' साहित्य के पृथक सौन्दर्य शास्त्र की बात कहकर एक अन्य प्रकार का विवाद पैदा कर रहे हैं। साहित्य के स्थापित मानकों को जातिवाद की परिधि में देखा जाना स्वस्थ मूल्यांकन का प्रतीक नहीं है। वाल्मीकि, रैदास, नाभास्वामी, नामदेव कुवा, कबीर आदि सन्त कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से मानवता और मोक्ष का जो संदेश दिया, उसमें सन्निहित सौन्दर्य शास्त्र आस्था और साधना का सौन्दर्य शास्त्र था, किसी लेखन विद्यालय में जाकर रटा-रटाया या जातीय चीत्कार में डूबा तथाकथित सौन्दर्य शास्त्र नहीं। मात्र साहित्य ही नहीं, समस्त कलाओं का सौन्दर्य शास्त्र उसके रचनाकार के `रचित-उद्देश्य' पर निर्भर करता है। साहित्य-सर्जन और साहित्य की राजनीति के अन्तर को वर्तमान स्त्री लेखन विमर्श तथा दलित साहित्य के एकाधिकारियों को समझना होगा।
स्त्री लेखन और दलित साहित्य को `स्वानुभूति' के आधार पर मात्र क्रमशः स्त्री और दलित साहित्यकार का हक मानने वाले इक्कीसवीं सदी के इस दशक में `हाशिये के समाज' का हक उ‌द्घोषित कर रहे हैं, परन्तु इस शोर में `हाशिये पर जाते साहित्य' की ओर किसी का ध्यान नहीं है। वर्तमान स्त्री लेखन एवं दलित साहित्य पारस्परिक विचार-विमर्श के स्थान पर वैमनस्य का कारण बनता जा रहा है, जो साहित्य की `सबका हित सन्निहित' की उदात्त भावना से कोसों दूर है। स्वानुभूति ही नहीं, सहानुभूति या संवेदना से ओतप्रोत स्त्री लेखन एवं दलित साहित्य, वस्तुतः हमारे साहित्य की अमूल्य थाती है, जिसे मात्र `स्वानुभूति' के तराजू पर रखकर नकारा जा रहा है।
साहित्य या कला के अपने कुछ सिद्धान्त है, ठीक वैसे ही जैसे पृथक्-पृथक् विषयों की अपनी-अपनी परिधियाँ, परन्तु इस सबसे कहीं अधिक `उद्देश्य' का महत्त्व है। डॉ. छोटेलाल दीक्षित के शब्दों में- `कला के द्वारा मनुष्य ने जो अभी तक अनुभव प्राप्त किये हैं, उनको समझा जाता है, नये अनुभव प्राप्त किये जाते हैं और जीवन कैसे सुन्दर बने, इसकी संस्तुति प्राप्त को जाती है। कला का उद्देश्य मनुष्य में सामाजिक गुणों का विकास करना है, जिससे वह अपने सार्थक अस्तित्व से समाज एवं परिवेश को समृद्ध कर सके, अपने भीतर मैत्री, समता, सामंजस्य का भाव विकसित कर सके, संघर्ष की शक्ति और साहस सँजो सके, विश्व मानवता के प्रति आत्मीयता के भाव से भर सके।' (५) स्त्री विमर्श तथा दलित विमर्श पर विचार करते समय सभी को कला के उद्देश्य को दृष्टिगत रखना होगा।
स्त्री विमर्श तथा दलित विमर्श के विवेचन की परिपाटी पर चलते हुए हमें किन्नर विमर्श; समलैंगिक विमर्श; वृद्ध विमर्श; बाल विमर्श आदि अन्य साहित्यिक विमर्शों को सूक्ष्मता से करना होगा। समीक्षकों का यह दायित्व है कि वे साहित्यिक विमर्श को साहित्यिक परिधि में ही रखें; यह ना हो कि किसी भी विमर्श की आड़ में कुटनीति या राजनीति अपना खेल प्रारंभ कर दे। अनेक संभ्रमित विमर्शों के मध्य हिन्दी साहित्य के वर्तमान काल को इसकी प्रवृत्तियों के आधार पर कोई सार्थक नाम दिये जाने का महत्त्वपूर्ण कार्य उपेक्षित है। यह स्थिति सुस्पष्ट करती है कि हिन्दी साहित्य में अधिकांश विमर्श वे हैं, जिनसे किसी ना किसी को कोई ना कोई विशेष लाभ है, नव नामकरण सभी के लिए ना हानि, ना कुछ लाभ वाला बिंदू है, सो उसकी ओर से सभी तटस्थ हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी साहित्य के `बहु पठित' इतिहास के रूप में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा संयोजित (लिखित नहीं) इतिहास ही आज तक पढ़ा-पढ़ाया जा रहा है। इस  बहु पठनीयता को `सर्व स्वीकृति' मानना उचित नहीं! स्वयं अपने संयोजित `हिन्दी साहित्य का इतिहास' के प्रथम संस्करण में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने यह स्वीकार किया था कि उस इतिहास में वर्णित `आधुनिक काल' के अंतर्गत उक्त काल के सभी रचनाकारों के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर पाने की  चूक उनसे हुई- `वर्तमान काल के अनेक प्रतिभासम्पन्न और प्रभावशाली लेखकों और कवियों के नाम जल्दी में या भूल से छूट गये  होंगे।' (६) यह एक तथ्य है कि आचार्य शुक्ल ने संवत् १९८६, अर्थात् सन् १९२९ में संशोधित रूप में अपने द्वारा संयोजित या लिखित हिन्दी साहित्य का यह इतिहास काशी नागरी प्रचारिणी सभा को प्रकाशनार्थ दिया था, जबकि इससे लगभग एक वर्ष पूर्व ही यह इतिहास अपने मूल रूप में `हिन्दी शब्द सागर' की भूमिका के रूप में संवत् १९८५ में प्रकाशित हो चुका था। (७)  इन तथ्यों से सुस्पष्ट है कि पूर्णता की दृष्टि और विशेषतः काल-विभाजन के परिप्रेक्ष्य में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास को भी एक मानक  साहित्य-इतिहास- ग्रन्थ नहीं माना जा सकता।
प्रश्न `आधुनिक काल' के नामकरण का है। आचार्य शुक्ल के हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक युग का काल संवत् १९०० से  १९८०, अर्थात् सन् १८४३ से सन् १९२३ बताया गया। बाद में संवत् २००९ में डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित हिन्दी साहित्य का इतिहास पुस्तक रूप में `हिन्दी साहित्य' नाम से आया। इसमें आधुनिक काल के अन्तर्गत सन् १९३६ से १९५६ तक `प्रगतिवाद' का वर्णन करते हुए आधुनिक काल का सीमांत कर दिया गया। कालान्तर में प्रकाशित होने वाले अधिकांश हिन्दी साहित्य के इतिहासों में स्थूल रूप से आधुनिक काल संवत् १९०० से `अब तक' बताया गया, जो अब तक चलता ही आ रहा है! बीसवीं सदी के अंतिम दशक में उत्तर आधुनिक शब्द को लेकर पर्याप्त विमर्श हुआ। नामवर सिंह के ये विचार द्रष्टव्य हैं- `यह सही है कि नब्बे के दशक की दुनिया बदली है। यह एक गुणात्मक रूप से भिन्न दुनिया है। इसे क्या नाम दें? चूँकि अब तक यूरोपीय शब्दावली से ही अवधारणाएं चली हैं, इसलिए इस बदली हुई स्थिति को कोई `उत्तर आधुनिकता' कहता है, तो मुझे स्वीकार्य है।' (८) 
इस शोधापत्र का लेखक अपने एकाधिक शोध लेखों हिन्दी साहित्य के एक सर्वथा नये नामकरण की आवश्यकता, समकालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य बता चुका है- `हिन्दी साहित्य जगत् में पठन क्षीण हुआ है, यह स्वीकार करने में किसी को आपत्ति नहीं होगी। जितनी पत्रिकाएं हैं, उतने पाठक नहीं और आश्चर्य यह है कि इसके पश्चात् भी पुरस्कार और प्रकाशन निरंतर क्रम में हैं। मोबाइल अथवा इंटरनेट तकनीक ने संपर्क तो बढ़ाया, परंतु संवेदना को चूस लिया है। हम पास हैं तो तकनीकी से, दूर भी हो रहे हैं, तो तकनीकी के कारण, पास होकर भी  अपनी हथेलियों तक सीमित हैं और प्रायः प्रत्येक संवाद के लिए  तकनीकी पर निर्भर हैं! इस तकनीकी संवाद में सुविधा है, सुख नहीं, साहित्य इसी परिवेश से आज अपनी प्राणवायु ले रहा है, तो क्यों न आज के इस साहित्यिक युग को `तकनीकी प्रयोगवादी' युग का नाम दे दिया जाए! उत्तर आधुनिक युग से पूर्व हम आचार्यों द्वारा सुझाए प्रयोगवादी युग को ही स्वीकार कर चुके थे, अब सम्बन्ध से संवेदना तक `तकनीक' ही जब हमारा माध्यम है, तो हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तिमूलक नामकरण   परम्परा में हिन्दी साहित्य के इस युग को `तकनीकी प्रयोगवादी युग' कहना वस्तुतः समीचीन ही होगा !' (९)
निष्कर्ष रूप में कहना है कि समकालीन हिन्दी साहित्य के चर्चित विमर्श दलित विमर्श; स्त्री विमर्श; किन्नर विमर्श; समलैंगिक विमर्श; वृद्ध विमर्श; बाल विमर्श आदि हैं, जो अपनी अंतर्वस्तु में अभी अधिक या कहें पूर्ण विमर्श तक नहीं पहुंचे हैं, दूसरी ओर समकालीन हिन्दी साहित्य के विशिष्ट नाम का महत्त्वपूर्ण प्रश्न अभी अनुत्तरित है! समग्रतः हम कह सकते हैं कि समकालीन हिन्दी साहित्य के विमर्श आज भी अपूर्ण ही हैं।

डॉ. सम्राट सुधा
रुड़की, उत्तराखंड

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