मैं मात्र एक पर्यावरणवादी हूँ पर्यावरण बचाने का कार्य तो आपका है!
सोशल मीडिया के दौर में प्रसिद्धि पानी है, तो मेहनत तो करनी होगी। करनी नहीं है, तो दिखानी तो पड़ेगी। नित नए क्षेत्र मिल जाएंगे, अपना हुनर दिखाने को। लोकतंत्र की बात करोगे, तो वो तो संविधान में लिखा ही हुआ है, इसमें क्या नया है? आप जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, आदि में घुसो! कोई नया कारण दिखाओ कि लोग आपके अनुयायी क्यों बने? उदाहरणतः जब शाकाहारी और मांसाहारी गुटों का मतभेद ‘चल मत मान, तू अपना कर, मैं अपना’ तक पहुंचा, तो कोई वीगन बन कर आपकी रसोई में घुस कर आप पर ही चिल्लाने को उभर कर आया।
सोशल मीडिया के दौर में प्रसिद्धि पानी है, तो मेहनत तो करनी होगी। करनी नहीं है, तो दिखानी तो पड़ेगी। नित नए क्षेत्र मिल जाएंगे, अपना हुनर दिखाने को। लोकतंत्र की बात करोगे, तो वो तो संविधान में लिखा ही हुआ है, इसमें क्या नया है? आप जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, आदि में घुसो! कोई नया कारण दिखाओ कि लोग आपके अनुयायी क्यों बने? उदाहरणतः जब शाकाहारी और मांसाहारी गुटों का मतभेद ‘चल मत मान, तू अपना कर, मैं अपना’ तक पहुंचा, तो कोई वीगन बन कर आपकी रसोई में घुस कर आप पर ही चिल्लाने को उभर कर आया।
अब पिछले दशक में यही नसीहती गुण कुछ मनुष्यों में पर्यावरण के लिए पनपा है। समाजसेवी, चुनाव-विशेषज्ञ और रामभक्त बनने के अलावा अगर आज की तिथि में बिना कुछ किए अगर आसानी से कुछ बनना है, तो पर्यावरणवादी बनना है। कुछ खर्चा नहीं, साथ ही औरों की नज़रों में न सही, अपनी दृष्टि में आप महानता पा ही लेंगे। रात को यह सोच कर अच्छी नींद आ पाएगी कि जो ट्वीट या फेसबुक पोस्ट डाला है, केवल डाला ही नहीं है, पर्यावरण के दुश्मनों के मुँह पर फ़ेंक कर मारा है। मजाल है सुबह तक बालकनी में साफ हवा और नल में स्वच्छ जल न बहता दिख गया तो। आप कप्तान प्लेनेट सरीखे ही अनुभव करेंगे।
यह इतना लुभावना पेशा है, कि अब नई पीढ़ी में बच्चे पढ़ाई भी छोड़ने लगे हैं। मेरे बचपन में बुखार तक का बहाना स्कूल से अस्थायी निजात नहीं दिला पाता था। एक पेरासिटामोल की गोली और जीवन में कुछ न बन पाने की धमकी ठुँसवा कर हमें स्कूल की ओर धक्का दे दिया जाता था। अब ‘मैं पर्यावरण बचाने के लिए स्कूल नहीं जा रहा’ एक असल मुहिम है। एक बार पुनः वह कहावत अपने मन में दोहरा लें – होनहार बिरवान के होत चीकने पात।
हाँ, यह बहादुरी तो है कि आप छोटी उम्र में दुनिया की फ़ासीवादी ताकतों के सामने डट कर खड़े हो जाओ, और उन्हें मजबूर करो कि वे धरती को बचाने के लिए कुछ करें। क्या करें? अरे, अब यह पर्यावरणवादी तो नहीं बताएगा न? वह तो बच्चा है जो स्कूल भी नहीं जा रहा। मैं घर पर बैठ कर विराट कोहली पर चिल्ला तो सकता हूँ, कि कैसा ढीला शॉट खेल कर विकेट गँवा बैठा है, पर इसका मतलब यह नहीं कि मुझे बुला लोगे उसकी जगह वर्ल्ड कप खेलने! फिर रोहित शर्मा कैसे पिच पर से मिट्टी खा पाएगा वेस्ट-इंडीज में?
बच्चों की बात छोड़ो, वैसे भी कोई आवश्यक मानदण्ड नहीं है कि आप किसी विषय पर तभी बात करो जब आप उस के विशेषज्ञ हों। हमारे देश में हर गली, हर नुक्कड़, हर टपरी पर बैठा, एक सस्ते इंटरनेट प्लान से सज्जित हर युवक एक राजनीतिज्ञ है। तो इसी युग में वही टपरी-स्तरीय टपोरी एक पर्यावरणवादी नहीं बन सकता? यह तो सरासर नाइंसाफी हुई। चलो, आम आदमी तो अभाव के चलते जीवनशैली में बदलाव के विकल्प नहीं भुना पाता। पर रईसों से यह हक़ तो मत छीनो!
ह्रदय गद्गद हो उठता है, एवं मन को तसल्ली मिलती है कि देश और धरती अभी भी सुरक्षित हाथों में हैं, जब बॉलीवुड के सितारे आरे जंगल के पेड़ कटने के विरुद्ध मुहिम चलाते हैं। कैसे अनमोल रत्न हैं यह हमारे! निगम ने कहा कि उतने ही पेड़ कहीं और लगाए जाएंगे, पेड़ काट कर आम जनता को मेट्रो ट्रेन की सहूलियत दी जा रही है, पर मजाल है कि इन्होंने अपनी न्यूनतम माइलेज वाली करोड़ों की गाड़ी से उतर कर ऐसे भटकाऊ कथनों पर ध्यान दिया हो। सभी अन्य पर्यावरणवादियों को साथ ले ही आए यह नैतिकता के चमकते सितारे। उन सभी महानुभावों ने कहा कि गाड़ियों आदि विषयों पर सितारों की आलोचना बंद कीजिए – असल बात इतनी है कि इस विषय पर अब वार्तालाप हो रही है।
हाँ भैया! वार्तालाप चलती रहनी चाहिए। दिन भर जागरण चलेगा इस वार्तालाप के लिए। दूर ढाबे से प्लास्टिक डिब्बे में खाना मंगा लो, धुँआ करने वाले सिगरेट के डब्बे मंगा लो। अनाज से बनी मदिरा चलाते रहो, पर वार्तालाप चलती रहनी चाहिए, क्या पता अनाज की कमी और बढ़ती कीमतों तक चली जाए बात। देर रात तक जागना पड़े तो एक बार प्रयोग आने वाले कप में कॉफ़ी पी लेंगे, पर भाईसाहब, वार्तालाप रुक गई, तो पृथ्वी नष्ट हुई समझो। बात करने को भले ही अंतरराष्ट्रीय वार्ता में भी जाना पड़े, तो जाएंगे। अगर वहाँ अपनी बात नहीं कही, तो काहे के पर्यावरणवादी? ऐसे तो सारा सामाजिक सेवा-भाव अपने घर की बालकनी में खड़े हो कर अपने गले में लाउडस्पीकर बाँध कर शोर मचाने लायक ही हो गया। नहीं, वार्ता में पहुंचना आवश्यक है। देर न हो जाए। पहले वो निपटा लें, फिर कोई उट-पटांग सा ड्रेस पहन कर प्रâांस के फ़िल्म फेस्टिवल निकल लेंगे। पास ही पड़ता है, तो विमान का ईंधन कम खर्चा होगा। कैसे पत्थर दिल हो, जो यह बलिदान देख कर दिल नहीं पसीज जाता आपका? काँस फेस्टिवल के लाल कालीन पर दो बातें नारी-सशक्तिकरण की, तो दो बातें पर्यावरण या वैश्विक शांति की बोल दी जाएंगी। संतुलन बना रहना चाहिए, गुरु!
लोगों को सन्देश दिया जाता है, कि सार्वजनिक यातायात प्रयोग कीजिए। सरकार क्यों नहीं कुछ करती? ट्रेन और बस मुफ्त कर दो। सभी उस में चले आएँगे। भीड़, भड़क्का, धक्का-मुक्की और साथ ही छेड़-छाड़ के मंसूबे लिए कुछ मनचले। नहीं, फिर महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा बन जाएगा। फिर कुछ अलग काम करो, जैसे पेट्रोल महंगा कर दो। लोग कम ही निकलेंगे घरों से। पर ध्यान रहे, ज़्यादा दाम बढ़ा दिए तो विपक्ष कलाई मरोड़ देगा। भारत-जोड़ो-ईंधन-न्याय यात्रा निकल आएगी। सरकार ही गिरने पर न आ जाए। समूची जनता थोड़े ही मान लेगी कि ‘शेर पाला है, पेट्रोल महंगा होने दो’। साथ ही रेस्टोरेंट-ढाबा कंपनी के डिलिवरी बॉय से लेकर ट्रक चालकों के बारे में भी सोचना है। उन्हें नुकसान न होने पाए। पर्यावरणवादी का मत सोचो। वह काफी एडजस्टिंग नेचर का है। वह स्विग्गी वन या ज़ोमाटो गोल्ड ले लेगा, फिर उसके घर डिलीवरी मुफ्त रहेगी।
कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि एक सच्चे पर्यावरणवादी को दोनों हाथ लड्डू चाहिए। उसे सरकार का या आपका साथ मिले न मिले। वह ज़ोमाटो से मंगा भी लेगा। गोल्ड प्लान वाला है बंधु, डिलीवरी भी प्रâी हो जाएगी। परन्तु अगर प्लास्टिक के डब्बे में भेजे, तो उस हलवाई की खैर नहीं। कतई दुष्ट आदमी! पर्यावरण की जमा फ़िक्र नहीं उसे। पर्यावरणवादी उस पर ऐसा फेसबुक पोस्ट फेंक कर मारेगा ना....
डॉ अंकित शर्मा
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