करुणा की पुकार

Nov 15, 2024 - 23:05
Dec 4, 2024 - 12:36
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करुणा की पुकार
Karn Mahabharat

समर में बज रहे थे तुरगो के ताल,

रक्त सिक्त हो रहे थे सबके भाल,

भिड़ रहे थे एक से एक वीर,

कृपाण निकल रही छाती चीर,

नभ का रूप विकराल काल –सा,

नीचे फैला था प्रखर जाल–सा,

कट रहे थे शर एक के एक बाद,

उठ रही थी सैन्य गजों की नाद,

पड़ा था समर में एक शूर का शव,

जग से मिट रहा था रमणीय रव,

देख रहा था कर्ण भूमि पर पड़ा,

हँस रहा था काल सामने खड़ा,

दूसरी दिशा में उसने आते देखा,

आते श्रीकृष्ण को मुस्काते देखा,

कौन्तेय भी साथ करुणा में क्रन्दित,

पास आए कुछ भारी कर चित,

कहा कृष्ण ने:हे पार्थ! प्रणाम करो,

ज्येष्ठ है तुम्हारे ,इनपर ध्यान धरो,

इस पुण्य आत्मा का परमार्थ देखो!

इसमें भी न विजय का स्वार्थ देखो!

फिर कर्ण ने अंतिम प्रणाम किया,

नेत्र मूंद प्रभु का धन्य ध्यान किया,

कुछ संशय था किंतु उसके मन में,

उठ रही थी प्रश्नावली उसके तन में,

दिवस का समर था समाप्त हुआ,

तिमिर चारों ओर था व्याप्त हुआ,

मानो था दिवस देह विक्षत हुआ,

कर्ण का जीव था प्रकट हुआ,

उठता – सा प्रलय था झुक गया,

चलता – सा समय था रुक गया,

कहा कर्ण ने : हे वासुदेव !

भटक चुका था मैं गेह नेव,

तुम जानते हो जो बीता है सब,

मैं रहा कर्म से अभिमानी,अधर्मी कब,

सब तो मैंने दान किया था,

सबजन को सम्मान दिया था,

मनुजता को किया था धारण,

फिर भी केवल पाया था महारण,

अवतरण के समय प्रथम क्षीर,

माता से पीकर जिसे बनता धीर,

वह भी न मुझको मिल सका,

वात्सल्य कभी न खिल सका,

क्या अद्भुत होता मुझे भी मिलता,

माता का ममत्व , स्नेह ,प्रेम, शीतला,

क्या मुझे जीवनभर दायित्व निभाना था,

क्या मुझे ही शोक पथ पर जाना था,

वह उठाकर मुझे कोमल उर से लगाती,

अकेली ही सारे संसार से लड़ जाती,

जन्म पर वह मेरे,खूब मुस्कुराती, झूमती,

निहारकर मेरे कपोलों को चूमती,

पर छोड़ मुझे उसने बिरादरी संभाली,

अपनी वैभवता में फिर जगह बना ली,

मुझे नीर पर बहता – सा छोड़ दिया,

जैसे युगों का नाता ,क्षण में तोड़ दिया,

जब घेर लिया था मुझे भव्य बाधा ने,

तब केवल आकर संभाला था राधा ने,

उसने ही मुझे ममता का रूप दिखाया,

उसने ही मुझे प्रथम बार बोलना सिखाया,

मैंने अपने दुर्भाग्य से,भाग्य खोज निकाला,

केवल दुख पाकर , मैंने सुख पाला,

फिर जब वर्गप्रियों ने मुझे सूत पुकारा,

शिक्षा के अधिकार ने भी धिक्कारा,

गुरु एक न था,भाग्य में केवल संताप था,

परशुराम की शिक्षा न थी , शाप था,

जब था जग विपरीत मेरे सूत होने पर सारा,

तब एक सुयोधन ने ही था मुझे स्वीकारा,

केवल स्वीकार कर न व्यर्थ नाता जोड़ा,

वरन् अंगदेश देकर ,था राजस्व जोड़ा,

ऐसी मित्रता नहीं थी जग से पाई,

नहीं करता जो कभी किसी का भाई,

वह सुख जिसे केवल सपने में था देखा,

बन गई थी आज वह करो की स्वर्णरेखा,

किसने ऐसा वैभव बैकुंठ सा सोचा होगा,

किसी सारथी ने भी न अब तक भोगा,

वह सुख मुझे जिस मित्र ने दिया था,

और बदले में मुझसे न कुछ लिया था,

उसका साथ देकर अब मैं धन्य रहा,

वासुदेव ! आज सब मैं सत्य कह रहा,

यदि होते तुम भी मेरे स्थान पर,

तो क्या विपरीत होते तुम उस मान पर,

सुयोधन सा मित्र मिला इस युग में,

तभी मुझ सा दानी खिला इस युग में,

भले ही पाया मैंने कवच–कुंडल अमूल,

फिर भी पग –पग पर मिले केवल शूल,

जो बना था मेरी रक्षार्थ वह कवच अमूल,

देकर वह भी दान मैंने पायी केवल धूल,

इस धूल में भी आज पा लिया जीवन मूल,

निज को कोसना है मनुज की बड़ी भारी भूल,

जानता हूं जो कहा था,द्रौपदी के संदर्भ में,

था गलत वह सभी,जो किया था दर्प में,

कुकृत्य है किसी परस्त्री को मन में लाना,

बिना विचारे उसकी शीलता भंग कर जाना,

मैं आज उसी का तो प्राश्चित कर पाया हूं,

अपने मन से संताप बाहर कर पाया हूं,

बस इतना ही संशय है मुझे अब भी,

जन्म पाऊंगा मैं भू पर जब भी,

सुयोधन ही मेरा मित्र बनकर आए,

राधा का ही आंचल मेरी देह पर छाए,

मिले तुम्हें ही फिर प्रभुता ,हे कृष्ण !

मिले मुझे ही फिर यही सुंदर रण,

मैं युगों –युगों तक तुम्हें सुनता रहूं,

अपने कृत्यों में प्रभुता बुनता रहूं,

अब नहीं कहना कुछ और मुझे,

ले चलो प्रभु ! जिस ओर मुझे,

अब दो आज्ञा जग से नाता तोड़ सकूं,

भू के भाल पर अपना इतिहास छोड़ सकूं

(युगे युगे जीवितं कर्णम्)

—साहित्यबंधु

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Skumar साहित्य सृजन पुरस्कार व अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, सर्व भाषा साहित्यकार सम्मान प्राप्त। वक्त रहते विचार लो कि क्या करना है अभी। यह जो वक्त बीत गया फिर निराश होंगे सभी।।