पूर्णिका
आंधी से तूफानों से, ये मजदूर लड़ता है जलता है धूप में वो, तब चूल्हा जलता है गिरवी है महलों में, हर खेत की हरियाली रोटी के लिए बचपन, हाथों को मलता है

आंधी से तूफानों से, ये मजदूर लड़ता है
जलता है धूप में वो, तब चूल्हा जलता है
गिरवी है महलों में, हर खेत की हरियाली
रोटी के लिए बचपन, हाथों को मलता है
चिमनियों ने दम तोड़ा, सायरन सब गूंगे हुए
मजदूर का घर आंगन, खंडहर में ढलता है
संगीत ये झरनों का, मीठे गीत नदियों के,
सुकून ये झीलों का, सागर को क्यों खलता है
औक़ात ना तूफा की, कश्ती डुबाए मेरी
किनारा कोई अपना, हर बार जो छलता है
ये कैसी विवशता है, दूरी है किताबों से
चलना था स्कूल जिसे, दिहाड़ी पे चलता है
मानसिंह "शरद"
उज्जैन
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