सैनिक पति गणेशराम को युद्ध में वीरगति मिलने के बाद विधवा दीपा अपने अनाथ दोनों बच्चों के साथ क्वेटा छावनी से लैन्सडाउन तक सेना की मदद से पहुंचाई गई। उसका ससुराल गंवाणी, लैन्सडाउन से २० मील पैदल की दूरी पर था। दूसरे दिन सेना के अंग्रेज अफसर ने बोझा ढोने वाले कुलियों को दीपा का सामान पकड़ा कर, गंवाणी के लिए विदा किया। रात गये दीपा ससुराल पहुँची, जहाँ पहले ही गणेश राम की मौत की खबर से कोहराम मचा था। घर पहुँचते ही रास्ते की थकान के कारण दोनों अबोध बच्चों को बुखार ने जकड़ लिया। उस दौर में घरेलु नुस्खों से ही इलाज होता था। स्थानीय वैद्यों ने पूरी कोशिश की, लेकिन बच्चों का बुखार न उतार पाये, लिहाजा दोनों बच्चे निमोनिया की जद में आ गये और एक के बाद एक कुछ ही अंतराल पर दम तोड़ गये। समय का चक्र इतनी तेजी से घुमा था कि खुशहाल दीपा का पूरा संसार अल्प समय में ही राख हो गया था। भविष्य के सपने चूर-चूर होकर बिखर गये थे। हंसती खेलती जिंदगी उजड़ गई थी। कोमल, कमसिन और चाँद सी खूबसूरत दीपा अब किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में आ गई थी। इस घटना के तीसरे दिन दीपा के तयेरे भाई पं. कृपा राम ढाढस बंधाने पहुँचे।
कृपा राम से लिपट कर दीपा ने भरे गले से कहा `मैं सब तरह से लुट गई भय्या।'
पं. कृपाराम ने बहन को ढाढस बंधाते हुए कहा-जो अपने वश में नहीं उसे सिर्फ सहना पड़ता है बहन। दूसरा कोई चारा नहीं होता।
दीपा ने सुबकते हुए कहा-विधाता ने मेरी पूरी दुनिया उजाड़ कर किस बात की सजा दी है भय्या।
कृपाराम ने दुनियादारी के आचार व्यवहार से प्राप्त अपने अनुभवों का दीपा को ढाढंस बंधवाने का पूरा प्रयास किया लेकिन कृपाराम दुख और गम से क्षण भर के लिए भी दीपा को बाहर न निकाल सके। अब पं. कृपाराम ने बुद्धि और अपने भाषाई कौशल से दीपा को शांत करने की कोशिश करते हुए कहा कि धैर्य रखो बहिना, अब हिम्मत से काम लो। आँसुओं की धारा के बीच दीपा ने भाई की ओर देखते हुए कहा - `धैर्य किसके लिए रखूं? अब किसके लिए हिम्मत रखूं भैय्या।'
दीपा के इन शब्दों ने कृपाराम की रूह के साथ साथ आत्मा को भी हिला दिया था। ठीक ही तो कह रही थी दीपा। पति और दोनों पुत्रों के चले जाने के बाद अब किसके लिए धैर्य रखेगी वो। किसके लिए हिम्मत करेगी अब। उसका तो स्वयं को छोड़कर सब कुछ समाप्त हो गया था। दीपा के शब्द और कराह सुनकर कृपाराम का कलेजा भी फटा जा रहा था। स्वयं की भावनाओं भर नियंत्रण रख, कठोर बनते हुए कृपा राम ने कहा- `जिसका अपना कोई नहीं होता, सब उसके हो जाते हैं बहन। अब तो अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए जिंदा रह। सबके लिए, सबके खातिर। तू अब अपने पराये से ऊपर है। सब तेरे लिए अब कोई पराया नहीं, सब अपने हैं। जिसका कोई नहीं सब उसके हो जाते हैं, जब सब अपने हो जाते हैं तो जीना और भी सार्थक हो जाता है।' आज पता नहीं कौन कृपाराम की जिह्वा पर बैठकर कौन से सब कहलवा गया था। सहसा कृपाराम के ये शब्द सुनकर दीपा की आंसुओं की धार थम गई। उसके निराश, हताश मन में जैसे कोई हलचल हुई। उसकी आँखों में सड़क़ के किनारे रोड़ी फोड़ती उन माँओं के चेहरे आने लगे जो, तपती गर्मी में सड़क के किनारे फोड़ी गई रोड़ियों में ही सोते बच्चे अपने आंचल के पल्लू को फाड़कर,ढकाकर सुला देती हैं, और फिर अपना काम करने लगती हैं, ताकि पेट की आग बुझाने के लिए, चूल्हा जलाने का जुगाड़ कर सकें।
उसने आंसू पोंछ लिए और कहा- भैय्या तुमने जीने की राह दिखा दी मुझे। अब मैं जिऊंगी और सबके लिए जिऊंगी।
बस यही से दीपा का जैसे रूपांतरण होकर दूसरा जन्म हुआ और वह दीपा से आगे चल पड़ी समाजसेवा की उस राह पर, जिसने उसे वो दृष्टि दी कि जिससे वह अन्याय से लड़ने की ताकत पा सकी। वह वो सब करने की शक्ति पा सकी जिसे उस दौर में सम्पन्न से सम्पन्न व्यक्ति भी नहीं कर सका था। पति व बच्चों की हिन्दू मान्यताओं के अनुसार आत्मिक शांति के लिए पूजा पाठ व श्रीमद्भागवत पुराण करवाने के बाद दीपा ने अपनी पूरी जमीन जायदाद ब्राहमण को दान कर,कोटद्वार पहुंच गई। कुछ समय कोटद्वार में श्री कुंवर सिंह कर्मठ जी के सानिध्य में रहने के बाद दीपा ऋषिकेश के लिए चल पड़ी।
रिशिकेश में मां आनंदमयी से दीक्षा लेकर इच्छागिरी नाम पाया। अब दीपा, दीपा से इच्छागिरी बन चुकी थी। यही से होता है दीपा का एक नया अवतार, जिसने इच्छागिरी के रूप में उससे खूब समाज सेवा करवाई। और फिर नशे की गिरफ्त में फंसते उत्तराखंड को दवा के नाम पर बिक रही टिंचरी के प्रकोप से बचाने के लिए, जब शासन प्रशासन ने भी हार मान ली तो, यही इच्छा गिरी रणचंडी बनकर, पौड़ी के तत्कालीन बेखौफ शराब माफियाओं पर टूट पड़ी तो नया नाम मिला टिंचरी माई। चलो जानते हैं इच्छागिरी और टिंचरी माई के कुछ बड़े कामों के बारे में।
इच्छागिरी के रूप में साध्वी धर्म अपनाने के बाद दीपा ने जो पहला काम किया था, वो था साधुओं के वेश में छिपे नकाबपोशों की पोल खोल अभियान। जिसमें उन्होंने अभयानंद नाम के एक रसिक साधुवेश धारी को डण्डे के बल पर सीधा किया।
हरिद्वार में कुंभ के दौरान गीतामयी नाम की साध्वी की कुटिया में प्रवास के दौरान दीपा ने मांसाहारी साधुओं की पोल खोल कर, उन्हें सुधरने पर मजबूर किया।
इसके बाद इच्छागिरी ने महात्मा हरिदास से अपनी जिज्ञासाओं का उत्तर मिलने पर सन्यासिनी का चोला और कमण्डल गंगा में बहाकर, साध्वी रहते हुए ही 'माई' नाम धारण किया और चलते चलते भाबर - सिगड्डी पहुंच गई। यहीं के एक मन्दिर को गांव वालों के निवेदन पर अपना ठौर बना लिया।
सिगड्डी में सिंचाई की नहर निर्माण कर रहे लोगों व अधिकारियों की अकुशलता के कारण, पीने के पानी की भारी किल्लत हो गयी थी, जब ब्लॉक, जिला, राज्य स्तर पर भी प्रार्थना और शिकायत करने पर भी समाधान न हुआ तो दीपा तत्कालीन प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू से मिलने दिल्ली चल पड़ी। दो रात्री सड़क पर बिताने के बाद चाणक्यपुरी जाने वाली सड़क पर, नेहरू की सुरक्षा में लगे कर्मियों को धत्ता बताकर माई नेहरू की गाड़ी तक पहुँच गई। नेहरू ने १५दिनों में समस्या समाधान होने का आश्वासन देकर, बुखार से तप रही माई के स्वास्थ्य की देखभाल करवाने के बाद वापस कोटद्वार भिजवा दिया। वायदे के अनुसार १५दिनों में सिगड्डी में पानी की समस्या का समाधान होकर, पानी पहुंच गया। इस काम ने माई को एक नयी पहचान देकर, समाज में नेतृत्वकारी छवि प्रदान कर, प्रसिद्ध कर दिया। आठ दस महीनों तक सिगड्डी के इस मन्दिर में रहने के बाद पूर्व पुजारी के बेटे, (जो अब अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था) की यहाँ मन्दिर में रहने की मांग पर माई ने सिगड्डी छोड दिया और चल पड़ी। अब माई का खुले संसार में विचरण का दौर प्रारंभ हो गया था।माई मोढाटाक पहुंच गई। यह अनुभव करने पर कि यहां आसपास बच्चों के लिए कोई विद्यालय नहीं है, माई ने अपनी पेंशन (फौजी पति की) के पैसों से स्कूल का काम प्रारंभ करवा दिया। माई ने चंदा व जन प्रतिनिधियों ने शासन प्रशासन से मांग कर, स्कूल निर्माण में सहयोग लेकर काम पूरा करवाया। इस काम के बाद माई तीर्थाटन के लिए चल पड़ी। बद्री केदार, तुगंनाथ, रूद्रनाथ के साथ साथ मार्ग में पढ़ने वाले सभी तीर्थों के दर्शन कर माई उत्तरकाशी पहुंच गई। गोमुख की यात्राकर माई टिहरी होते हुए श्रीनगर पहुंची। यहां की गर्मी से परेशान होकर माई पौड़ी पहुंच गई। पौड़ी का मौसम माई को भा गया, तो यहीं ठौर बना लिया। उन्ही दिनों सहारनपुर के सुतल नामक एक दवा व्यापारी ने टिंचर जिंजर नामक आयुर्वेदिक दवा के लाइसेंस की आड़ में पौड़ी को टिंचरी बेचने का प्रमुख अड्डा बना लिया था। टिंचर जिंजर नामक पेट दर्द व पाचन की दवा रूपी इस टिंचरी(शराब) ने इतनी जल्दी पौड़ी व आसपास के क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में लिया कि बहुत से परिवार कम आर्थिकी के कारण कंगाल होते जा रहे थे। लोग पीने की लत के कारण,घरों के भाण्डे, बर्तन व गहने तक बेच या गिरवी रखकर शराब खरीदने लगे थे। यह देख सुन कर माई बहुत व्यथित हुई। प्रशासन से शिकायत करने पर जब, प्रशासन ने यह कह कर असमर्थता जाहिर कर दी कि व्यापारी के पास वैध लाइसेंस है और खरीददार की मांग पर ही शराब बेची जाती है। समस्या को उलझता देख माई ने जनजागरण से दुकान को हटाने के लिए प्रयास किये। ऐसे ही एक रैली में प्रभावित परिवारों, लोगों व स्कूली बच्चों ने दुकान को आग के हवाले कर, नामो निशान ही मिटा दिया। सुतल के घर से लोगों के गिर्वी रखे गहने लोगों को पहचान करने के बाद वापस दिये गये। माई को गिरफ्तार कर उसी दिन लैंसडाउन पहुंचा दिया गया। प्रशासन को जनदबाव के कारण दो दिन बाद ही माई को रिहा करना पड़ा। माई कोटद्वार चली गई और फिर नींबूचौड़ चली आई। लगभग एक साल बाद फिर पौड़ी लौट आई। अब माई कोटद्वार, पौड़ी मोढाटाक में ही प्रवास करती थी।
जीवन के अंतिम दिनों में माई मोढाटाक में ही रही। अंतिम समय को नजदीक आता देख मायके की भिक्षा के रूप में,अपने उसी भाई कृपा राम, जिसने माई को जीने का एक नया दर्शन दिया था, के हाथों एक कप चाय पीने के बाद उसी रात माई उस अंनत में विलीन हो गई, जो सभी के लिए अंतिम सत्य है।
सन्दर्भ - टिंचरी माई - कुलदीप रावत।
हेमंत चौकियाल