शब्दों के झरोखों से

ध्यान देने की बात है कि जंगल में जाकर जो शेर-चीते का भी शिकार किया जाता था, उसके लिए भी `मृगया' शब्द इस्तेमाल में रहा है। अर्थात् जानवर के सामान्य अर्थ में `मृग' शब्द का प्रयोग होता रहा है। लेकिन यहाँ एक रोचक बात आती है कि गाय (जो एक चौपाया जानवर है) को `मृग' नहीं कहा जा सकता। आप पूछेंगे ऐसा क्यों ? दरअसल मृग की जो व्युत्पत्ति संस्कृत में बतायी गयी है, वह है `मृग्यते व्याधैः'। अर्थात् `व्याधों (शिकारियों) द्वारा जिसको खोजा जाता है/

May 29, 2025 - 16:22
May 29, 2025 - 17:02
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शब्दों के झरोखों से
from the swirl of words
कभी-कभी बहुत दिलचस्प चीजें दिखायी देती हैं कुछ शब्दों के अंदर। जैसे कि एक होता है `मृग'। इसका सामान्य अर्थ तो `हरिण' है, लेकिन व्यापक अर्थ में हरिण, `पशु' या `जानवर' का वाचक होता है, जिस श्रेणी में अन्य चौपाये भी आते हैं। आप कहेंगे कि यह कैसे हो सकता है ? ध्यान देने की बात है कि जंगल में जाकर जो शेर-चीते का भी शिकार किया जाता था, उसके लिए भी `मृगया' शब्द इस्तेमाल में रहा है। अर्थात् जानवर के सामान्य अर्थ में `मृग' शब्द का प्रयोग होता रहा है।
लेकिन यहाँ एक रोचक बात आती है कि गाय (जो एक चौपाया जानवर है) को `मृग' नहीं कहा जा सकता। आप पूछेंगे ऐसा क्यों ?
दरअसल मृग की जो व्युत्पत्ति संस्कृत में बतायी गयी है, वह है `मृग्यते व्याधैः'। अर्थात् `व्याधों (शिकारियों) द्वारा जिसको खोजा जाता है/जिसका पीछा व्याधों द्वारा किया जाता है'। और, गाय कोई ऐसा जानवर है नहीं जिसका शिकार किया जाता हो। `मृगः मृग्यते व्याधैः इति घञ्, अदन्तत्वाद गुणाभावः'- अमरकोश २.५.७) (मृगः संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश/वामन शिवराम आप्टे)।
इसलिए गाय को मृग नहीं कहा जा सकता।
एक और शब्द यहाँ है `व्याध' या व्याधा। शिकारी को व्याध क्यों कहते हैं? क्योंकि वह (शिकार को) बींध डालता है (बाणों से)।
(व्याधः विद्यते इति णः - अमर २०.१०.२१)
आगे अब एक अन्य शब्द की रोचकता देखें।
रसोई तो सबके घरों में होती है। अंग्रेजी में इसे किचेन (व्ग्ूम्पह) कहते हैं,जो आया है अंग्रेजी के कुक (म्ददव्, पकाना) से। अर्थात् किचेन हुई खाना पकाने की जगह। इस अर्थ में हिंदी में कहा गया `पाकशाला', यानी वह जगह, जहाँ भोजन `पकता है या पकाया जाता है।'
इससे अलग एक अर्थ स्वयं `रसोई' शब्द देता है। इसे आमतौर पर `रस +ओई ृ रसोई' लिखा जाता है। लेकिन इसकी व्युत्पत्ति देखें तो इसे `रसवती' कहा गया है।
(रसाः सन्त्यस्याम् इति मतुप्- अमर०२.९.२७),
अर्थात् जहाँ सभी प्रकार के रस या स्वाद विद्यमान हों। ज्ञातव्य है कि भारतीय पाकशास्र में छह रस बताये गये हैं- मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय और तिक्त, जिन्हें समाहार रूप में `षड्-रस' कहा जाता है। `छह प्रकार के उपर्युक्त रस भारतीय पद्धति में हैं। अंग्रेजी पद्धति में पाँच स्वाद गिनाये गये हैं- खट्टा, मीठा, नमकीन, कड़वा और मांसयुक्त (ेौाू, ेदल्r, ेaत्ूब्, ंग्ूूी aह् ल्स्aस्ग्)़।
कहना न होगा कि यह `रसवती' ही प्रयोग में घिसकर `रसोई' हो गया।
अपने देश की कुछ भाषाओं जैसे मैथिली, अंगिका, बज्जिका में रसोई को `भंसा' भी कहा जाता है। अक्सर लोग गँवारू भाषा समझकर इसका प्रयोग नहीं करते। लेकिन देखा जाय तो यह शुद्ध संस्कृत की अवधारणा या कॉन्सेप्ट है। वह ऐसे कि संस्कृत में शब्द है `महानस'। इसमें `अनस' का अर्थ होता है उपकरण। भोजन पकानेवाले स्थान में उपकरणों की भरमार होती है (करछुल, कड़ाही से लेकर थाली, कटोरा इत्यादि), इसलिए इसे महा+अनसृ महानस कहा गया-
(महानसम् महच्च तदनश्च इति अच्, अन सा उपकरण लक्ष्यते- अमर. २.९.२७)।
यही `महानस' प्रयोग में घिसकर `भानस' हुआ, और फिर आगे चलकर यह `भंसा' हो गया। यह थी इस शब्द की यात्रा।
आशुतोष
पटना (बिहार)

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