हम से मैं तक
जब व्यक्ति समाज और अपने संबंधियों से जुड़ा होता है तो एक समूह का हिस्सा होता है , इसलिए वह स्वयं के लिए "हम" का प्रयोग करता है , परंतु आज के इस विकसित होते हुए समाज में जब विश्व दिन-प्रतिदिन प्रगति की ओर बढ़ रहा है , धीरे-धीरे परिवार , कुटुंब , सामूहिक से एकल की ओर बढ़ते जा रहे हैं। सामूहिक से एकल की ओर बढ़ने के प्रयास में हमारे पास सुविधाएं तो बहुत सी होती जा रही हैं लेकिन पूरी भीड़ में भी हम अकेले होते जा रहे हैं ।
अयं निज: परो वेति गणना लघु चेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् ।।
भारतीय सभ्यता पर आधारित यह श्लोक हमारी सामाजिक , मानवीय धारणा को दर्शाता है , जिसके अनुसार यह मेरा है, यह दूसरे का है , यह गणना , यह विचार करना , छोटे लोगों का काम है , उदार चरित्र वाले व्यक्तियों के लिए तो धरती अर्थात् विश्व ही एक परिवार के समान है । जिस प्रकार परिवार में सभी के सहयोग से एक दूसरे का कार्य चलता है और वह परिवार "मैं" न होकर हम की अवधारणा को प्रस्तुत करता है। परिवार से अलग व्यक्ति
"मैं" का रूप होता है और परिवार से जुड़ा व्यक्ति "हम" का पर्याय होता है । व्याकरण के अनुसार भी एकवचन से बहुवचन बनाने के नियम में एक नियम यह भी आता है कि जब मैं के स्थान पर हम का प्रयोग किया जाता है तो व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता दर्शाने का प्रयास करता है और यही श्रेष्ठता उसके समाज , उससे संबंधित व्यक्तियों के कारण होती है ।
जब व्यक्ति समाज और अपने संबंधियों से जुड़ा होता है तो एक समूह का हिस्सा होता है , इसलिए वह स्वयं के लिए "हम" का प्रयोग करता है , परंतु आज के इस विकसित होते हुए समाज में जब विश्व दिन-प्रतिदिन प्रगति की ओर बढ़ रहा है , धीरे-धीरे परिवार , कुटुंब , सामूहिक से एकल की ओर बढ़ते जा रहे हैं। सामूहिक से एकल की ओर बढ़ने के प्रयास में हमारे पास सुविधाएं तो बहुत सी होती जा रही हैं लेकिन पूरी भीड़ में भी हम अकेले होते जा रहे हैं । इस अकेले होने के भाव में बहुत सी कुंठाएं हमारे अंदर अपना घर बनाती जा रही हैं, जिनसे हम लाख प्रयास करने के बाद भी उबर नहीं पा रहे हैं ।
परिवार जिसका कार्य अपने से जुड़े व्यक्तियों को पारिवारिक मूल्यों और संस्कार से अवगत कराना होता है , वहीं समाज भी उसके ऊपर अपनी एक अलग छाप छोड़ता है । यह देखा गया है कि संस्कार हमेशा एक पीढ़ी पहले से दिए जाते हैं हमारे यहां की परंपरा में बाबा-दादी एक वो कड़ी हैं जिनका कार्य अपने बच्चों के बच्चों में अर्थात् अपने पोते - पोतियो में संस्कार डालने का होता है और जो बच्चे इन संस्कारों से जुड़े हैं वह निश्चय ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण करने में सक्षम है , परंतु धीरे-धीरे एकल होते जाने के कारण आर्थिक संपन्नता के लिए अपने घरों से दूर शहरों या विदेशों में जाकर बस जाने के कारण हमारे पास पैसा, जिसे धन-दौलत का भी नाम दे सकते हैं तो बहुत आता है, सामाजिक प्रतिष्ठा भी बहुत मिलती है , लेकिन वही सामाजिक प्रतिष्ठा हमें हमारे समाज से बहुत दूर भी कर देती है ।
उस प्रतिष्ठा के अहंकार में हम अपनों से बड़ों , अपने संबंधियों , अपने मित्रों , अपने सखाओ से इतने दूर हो जाते हैं कि उनसे मिलना भी या बात करना भी पसंद नहीं करते । ऐसी स्थिति में हम "मैं" के उस उच्च स्तर पर पहुंच
जाते हैं , जहां पर हमारा "मैं " एक अहंकार का रूप ले लेता है और हम चाह कर भी नीचे झुक नहीं पाते हैं । यही मैं हमें मैं ही सब कुछ हूं , मैं ही समाज हूं , मैं ही ईश्वर हूं , मैं ही संसार हूं , मैं ही सर्वे -सर्वा हूॅं ,ऐसी स्थिति मैं पहुंचा देता है।
जब यह "मैं" की स्थिति आ जाती है तब मनुष्य समाज के सभी बंधनों से दूर , सामाजिक बंधनों से दूर , बिल्कुल अकेला हो जाता है । इस अकेलेपन में वह इतना दूर जा चुका होता है कि उसके सामने सारी चमक-दमक सारी सुख सुविधाएं तो होती हैं , लेकिन कोई उस तक पहुंचने वाला नहीं होता है और वह सभ्यता के उस सर्वोच्च शिखर पर स्वयं अकेला होता है। इस शिखर पर पहुंचकर वह "हम" से "मैं " हो चुका होता है।
निर्विकल्प मुद्गल
What's Your Reaction?