Gaura Pant Shivani in Hindi | गौरा पंत 'शिवानी' एक अनमोल लेखिका

एक स्त्री के जीवन में कई क्षण आते हैं, जिसमें वह कई मनोभावों से होकर गुजरती है, शिवानी ने उनके अंतर्मन मे उठती हर लहर को बहुत ही खूबसूरती से अपने पन्नों पर और मेरे मन में उकेरा है। कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने में शिवानी का अमूल्य योगदान रहा है।

Apr 25, 2024 - 13:00
Sep 5, 2024 - 15:06
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Gaura Pant Shivani in Hindi | गौरा पंत 'शिवानी' एक अनमोल लेखिका
Gaura Pant Shivani in Hindi

Gaura Pant Shivani in Hindi  : 17 अक्टूबर 1923 को जन्मी सुप्रसिद्ध लेखिका गौरा पंत, जो शिवानी के नाम से सुरुचिपूर्ण साहित्य पढ़नेवालों के दिलोदिमाग में रहीं, और आज भी हैं । एक कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में शिवानी हिंदी साहित्य जगत की ऐसी शख्सियत रही हैं जिनकी हिंदी, संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू और अंग्रेजी भाषा पर एक समान पकड़ रही है । माता और पिता दोनों ही विद्वान, संगीत प्रेमी और कई भाषाओं के ज्ञाता थे। साहित्य और संगीत के प्रति गहरी रुझान ‘शिवानी’ को उनसे ही मिली। उनकी किशोरावस्था शान्तिनिकेतन में, और युवावस्था अपने शिक्षाविद् पति के साथ उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में बीती। लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अद्भुत मेल है, उसकी जड़ें इसी विविधमयतापूर्ण जीवन में थीं।

उनकी विविधता भरी कृतियों में, उनके कुछ उपन्यासों ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। अतिथि, श्मशान चंपा, चल खुशरो घर आपने, सुरंगमा, भैरवी, रतिविलाप, चौदह फेरे, पूतोंवाली, कालिंदी, मायापुरी, जालक, कृष्णकली, हे दत्तात्रेय, कैंजा, सूखा गुलाब, यात्रिक...

उनकी कृतियों से यह झलकता है, कि उन्होंने अपने समय के यथार्थ को बदलने की कोशिश नहीं की। शिवानी की कृतियों में चरित्र चित्रण में एक तरह का आवेग दिखाई देता है। 

शिवानी ने अपने कथा-साहित्य में नारी को केंद्र बिंदु बनाया।
स्त्रियों के अंतर्मन की आवाज़ थीं गौरा पंत ‘शिवानी’
संवेदना को अति रोचकता के साथ प्रस्तुत करने में कलम की मर्मज्ञता को उन्हें पढ़कर ही समझा जा सकता है। नारी मन की विविध अन्तरंग अनुभूतियों की अद्भुत छटा अपनी लेखनी के जरिए बिखेरती शिवानी नारी की विभिन्न भूमिका को स्वीकार करती हुई भी उसकी एक स्वतन्त्रचेता अस्तित्व की हिमायती दिखाई देती है। उनका मानना था-‘‘नारी को मैं रवीन्द्रनाथ के शब्दों में न केवल देवी रूप में पूजी जाना चाहती हूँ, न पूर्ण समर्पिता। उसका अपना आत्म-सम्मान अक्षुण्ण बना रहें नारी का सौष्ठव आहत न हो।’’ 

70 के दशक में, जब मैं उम्र के सोलहवें पड़ाव पर थी तो मेरा पहला उपन्यास था, "कृष्णकली"। कली की शोखी, उसके तीखे नैन नक्श, उसकी उदण्डता, और प्रवीर के लिए उसका प्रेम... एक प्रवीर मेरे मन में उतरा और वहीं एक कृष्णकली हिरणी की तरह कुलांचे भरने लगी ।   

उपन्यास की मुख्य पात्र कली एक अद्भुत चरित्र है जो अपनी जन्मजात ग्लानि और कुंठा से अलग लौह संकल्पिनी है । तो उसकी व्याख्या ही आरम्भ है, मध्यांतर है और निःसंदेह समापन भी है। 

कली का रंग सांवला लेकिन नैन नक्श बहुत तीखे हैं और सहज ही सबके आकर्षण का केंद्र हो जाती है । उसे अपने खूबसूरत होने का अहसास है । पढने लिखने से ज्यादा उसका मन सजने सँवरने में और बुरी आदतों में है । स्कूल में चोरी करना और दूसरों की बातें छिपकर सुनना उसका प्रिय शगल है ।

अपनी खूबसूरती के बल पर कली पहले स्मगलिंग के कारोबार से जुड़ती है, फिर मॉडलिंग करने लगती है । उसकी सुन्दरता से रीझ कर नौरीन कहती है कि “सोने में मढ़कर रखने लायक हैं ये कलाइयां और चेहरा ! यही तुम्हारा अस्त्र हैं कली ।”

लेकिन कली किसी से जुड़ने से पहले अपनी विवशता समझती है कि उसके अभिशप्त जन्म का इतिहास जानकर क्या कोई सहज ही उसे अपना बना सकता है । यही दुविधा और कष्ट उसे उपन्यास के नायक प्रवीर से जुड़ने से रोकता है ।

प्रवीर की शादी कहीं और होती है, पर कुछ रिश्ते बिना किसी फेरे, बिना सात वचन के होते हैं, तभी तो -उपन्यास कली के न होने के बाद प्रवीर द्वारा संगम में कली को दिए गए तर्पण के साथ खत्म होता है । 
कली, जिसे श्याम वर्ण के कारण कृष्णकली कहा गया अपनी इच्छाओं और शर्तो पर जीने वाली ऐसी लड़की है जो अपनी इच्छा से जीवन और मृत्यु का वरण करती है ।

उपन्यास का अंत मुझे विचलित करता है क्योंकि कली,  जिसके जन्म में उसका दोष नहीं और जिसने एक तरह से अपने माता-पिता के कर्मो का दंड अपने दुस्साहसपूर्ण रवैये से ही सही भोगा, लेकिन उसे जिस प्रेम और विश्वास की तलाश थी वो मिलना चाहिए था ।

तभी तो तर्पण अर्पण करता हुआ प्रवीर मेरे मन की त्रिवेणी में उतर गया था, और मैं वर्षों से या यों कहें अब तक एक अस्थिकलश बन प्रेम,विवशता,और स्वाभिमान के संगम में तैरती रही हूँ।
  
एक स्त्री के जीवन में कई क्षण आते हैं, जिसमें वह कई मनोभावों से होकर गुजरती है, शिवानी ने उनके अंतर्मन मे उठती हर लहर को बहुत ही खूबसूरती से अपने पन्नों पर और मेरे मन में उकेरा है। 
      
कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने में शिवानी का अमूल्य योगदान रहा है। वह कुछ इस तरह लिखती थीं कि पढ़ने की जिज्ञासा पैदा होती थी और अंत तक बनी रहती थी।

वह 20वीं सदी की ऐसी लेखिका थीं, जो भारतीय महिला-केंद्रित उपन्यास लिखने में अग्रणी थी। उन्हें 1982 में, हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए पद्म श्री से सम्मानित किया गया था। सत्तर-अस्सी के दशक में उनकी रचनाओं की धूम चारों ओर थी. उनके उपन्यास ‘कृष्णकली’, ‘स्वयंसिद्धा’, ‘सुरंगमा’, ‘भैरवी’, ‘मायापुरी’ ने प्रसिद्धि के शिखर छुए थे.

रश्मि प्रभा

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