साहित्य-सिनेमा के भाषायी अवरोध
भारत चूँकि विविधताओं से भरा विशाल देश है, अत: प्रादेशिक भाषाओं में भी काफी कुछ लिखा गया है। हालॉंकि भारत की मुख्यधारा की भाषा सदैव हिन्दी रही है, इसलिए हिन्दी प्रदेशों में अधिकांशत: हिन्दी में ही लिखा-रचा गया है। विगत कुछ वर्षों में भारत के दक्षिणी भागों की फिल्मों को हिन्दी में डब करने का चलन प्रारंभ हुआ है,

भारत में साहित्य और सिनेमा का चोली-दामन का साथ रहा है। जिन लोगों में पढ़ने की आदत नहीं होती या जो लोग उसमें रस का आनंद नहीं उठा पाते, उनके लिए साहित्य का एक पर्याय सिनेमा है। हालॉंकि जैसे कि सिनेमा में सामाजिक उपादेयता को उपेक्षित कर केवल मनोरंजन के लिए भी काफी कुछ गढ़ा गया है, ठीक उसी प्रकार से साहित्य में भी लुगदी साहित्य की भरमार है। मन की विभिन्न भावनाओं के प्रकटीकरण के लिए अनेकों जॉनर में कार्य किया जाने लगा, जिसके कारण प्रेम, एक्शन, कॉमेडी, ड्रामा, हॉरर, थ्रिलर इत्यादि अनेक क्षेत्रों में साहित्य-सिनेमा रचा जाने लगा। इन रचनाओं में किसी एक तत्व की अधिकता होती है, इसलिए इनका प्रभाव भी सीमित ही होता है।
भारत चूँकि विविधताओं से भरा विशाल देश है, अत: प्रादेशिक भाषाओं में भी काफी कुछ लिखा गया है। हालॉंकि भारत की मुख्यधारा की भाषा सदैव हिन्दी रही है, इसलिए हिन्दी प्रदेशों में अधिकांशत: हिन्दी में ही लिखा-रचा गया है। विगत कुछ वर्षों में भारत के दक्षिणी भागों की फिल्मों को हिन्दी में डब करने का चलन प्रारंभ हुआ है, जिसका सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि कई अच्छे कंटेन्ट अब हिन्दीभाषियों को भी उपलब्ध हैं। दक्षिणी सिनेमा देखकर दर्शकों को अब ज्ञात हो रहा है कि उन्होंने जिन हिन्दी कंटेन्टों को हिट करवाया, वह मौलिक न होकर दरअसल दक्षिणी फिल्मों का चरबा-मात्र थे। इस प्रकार कथित बॉलीवुड ने दर्शकों को एक लम्बे अरसे तक मूर्ख बनाया। इसके अलावा बॉलीवुड की कहानियॉं सामान्यतया एक वर्ग-विशेष की ओर ‘अनकंडीशनली’ झुकी हुई मिली है, जिनमें भारत के मूल तत्व की सदा से ही अवहेलना होती रही है। हालॉंकि ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी में कभी कोई मौलिक या सकारात्मक नहीं रचा गया, मगर आज के समय से तुलना की जाये, तो बॉलीवुड, अवांछित एवं अभारतीय विमर्श स्थापित करने के एक धीमे हथियार के सिवा कुछ और नहीं है। यही कारण है कि आजकल हिन्दी के दर्शक अहिन्दी सिनेमा व अहिन्दी कंटेंट की ओर अधिक आकर्षिक हो रहे हैं। जिस प्रकार का साहित्य एवं सिनेमा आज रचा जा रहा है, उसमें से एक तिहाई से अधिक कंटेंट या तो चरबा होता है या लुगदी होता है।
जिस प्रकार से दक्षिण भारत की फिल्मों का यकायक चलन प्रारंभ हुआ, वैसा अभी तक मराठी फिल्मों के लिए नहीं हो पाया है, जबकि मराठी सिनेमा की आयु भी लगभग हिन्दी सिनेमा जितनी ही है और तो और दोनों की कर्मभूमि भी मुम्बई ही रही है, इसके बावजूद मराठी फिल्मों से बाक़ी देश की जनता अभी भी अछूति ही है। इसका कारण जो भी हो, मगर इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि अच्छे कंटेन्ट गैर-मराठी लोगों तक नहीं पहुँच पा रहे हैं। रचना जगत में एक समय में भारत के पूर्वी हिस्से - बंगाल का अच्छा दबदबा था। बंगाल को ‘भद्र समाज’ की उपाधि दी गई थी। उत्तर आधुनिक काल की बात करें, तो साहित्य-सिनेमा में बंगाल एक सूर्य की भॉंति विराजमान था। साहित्य एवं अध्यात्म में जहॉं रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र चटोपाध्याय, बंकिमचंद्र चटर्जी, महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद आदि हुए, वहीं सिनेमा में ऋषिकेश मुखर्जी, सत्यजीत राय, बिमल रॉय, गुरुदत्त, एस.डी.बर्मन, आर.डी. बर्मन, बप्पी लाहिड़ी, हेमंत कुमार, किशोर कुमार, शर्मिला टैगोर इत्यादि लोगों ने सकारात्मक कंटेन्ट रचा। कुछ समय बाद बंगाल के लोगों ने हिन्दी भाषियों में अपनी पैठ बनाने के लिए मुम्बई का भी रुख़ किया और समाज को लाभांवित किया। देखने वाली बात यह है कि बंगाली कंटेन्ट केवल तभी हिन्दीभाषी क्षेत्रों में पहुँचा, जब या तो हिन्दी में ही रचनाकर्म हुआ हो, या फिर साहित्य की तरह उसका हिन्दी अनुवाद हुआ हो। आज हिन्दी भाषा में प्रचुर बंगाली साहित्य उपलब्ध है। मैंने स्वयं ने काफी बंगाली साहित्य को हिन्दी भाषा में पढ़ा हुआ है।
यह विचारों का संसार है। साहित्य के तत्व की बात करें, तो यह किसी भाषा-विशेष का मोहताज नहीं है, फिर भी भारत की विविधता को देखते हुए हिन्दी को ही केन्द्रीय भाषा की भूमिका निभानी चाहिए। आज प्रादेशिक भाषाओं जैसे मराठी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, बंगाली, गुजराती में भी काफी-कुछ सकारात्मक रचा जा रहा है, जिसकी पहुँच हिन्दी भाषियों के लिए नहीं है या अपर्याप्त हैं। ऐसी स्थिति में इन प्रादेशिक भाषाओं को केन्द्रीय हिन्दी भाषा में अनुवादित कर उसे दर्शकों, पाठकों के समक्ष लाना ही चाहिए और यह कार्य में सकारात्मक राजनीति की बड़ी महती भूमिका होगी, क्योंकि हमारे देश में अभी भी भाषाई, जातीय एवं क्षेत्रीयता का आधार लेकर ओछी राजनीति की जा रही है, जिसे केवल साहित्य-सिनेमा के द्वारा ही दूर किया जा सकता है।
दुर्गेश कुमार 'शाद'
इन्दौर
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