Phanishwar Nath Renu : अमर कथाशिल्पी  फणीश्वर नाथ  'रेणु '

निःसंदेह फणीश्वर नाथ रेणु  की गिनती  हिन्दी के श्रेष्ठ कथाकारों की अगली  पंक्ति में  होती है।उनकी   कहानियां प्रेमचंद की  जमीन पर होते हुए भी  प्रेमचन्द की कहानियों से अलग है। अपने  समकालीन कथाकारों की कहानियों से  भी  उनकी कहानियाँ भिन्न हैं। वे आंचलिक उपन्यासकार और नई कहानी  दौर  के  विशिष्ट  कथाकार हैं।  

Nov 19, 2023 - 17:15
Nov 19, 2023 - 18:47
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Phanishwar Nath Renu : अमर कथाशिल्पी  फणीश्वर नाथ  'रेणु '
Amar Kathashilpi Phanishwar Nath 'Renu'

Phanishwar Nath Renu : फणीश्वर नाथ ' रेणु ' हिन्दी के उन  कथाकारों में हैं  जिन्होंने आधुनिकतावादी फैशन की    परवाह  न करते हुए ,कथा साहित्य को एक लम्बे अरसे के बाद प्रेमचंद की उस  परम्परा से फिर जोड़ा जो बीच में  मध्यमवर्गीय  नागरिक  जीवन  की केन्द्रीयता के कारण  भारत की आत्मा  से  कट गयी थी।" उपर्युक्त  कथन प्रख्यात आलोचक  शिव कुमार मिश्र का है जो  उन्होंने अपने  प्रसिद्ध निबंध " प्रेमचंद की  परम्परा और  फणीश्वर नाथ रेणु " में  लिखा है। 

निःसंदेह फणीश्वर नाथ रेणु  की गिनती  हिन्दी के श्रेष्ठ कथाकारों की अगली  पंक्ति में  होती है।उनकी   कहानियां प्रेमचंद की  जमीन पर होते हुए भी  प्रेमचन्द की कहानियों से अलग है। अपने  समकालीन कथाकारों की कहानियों से  भी  उनकी कहानियाँ भिन्न हैं। वे आंचलिक उपन्यासकार और नई कहानी  दौर  के  विशिष्ट  कथाकार हैं।  

उनका जन्म  बिहार के अररिया जिला के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 को  हुआ था। इनके  पिता  का नाम  शिला नाथ मंडल  तथा  माता का नाम पाणो  देवी था। उनकी  दो पत्नियां थी-पद्मा और लतिका। उन्होंने  अपने प्रसिद्ध उपन्यास ''मैला आँचल"  के  दो प्रमुख  पात्रों  कमली और ममता  के  चरित्र सृजन  की  प्रेरणा अपनी  दोनों  पत्नियों  से  ली थी। " मैला आँचल " की पात्र कमली  उनकी  पत्नी  पद्मा है तो दूसरी  पत्नी  लतिका   इसी  उपन्यास की पात्र ममता है। जब रेणु  बीमार थे  तो उन्हें  पीएमसीएच में  भर्ती कराया गया था  और उसी दौरान  दोनों करीब आए और बाद  में  परिणय- सूत्र में  बँध गए। 1954 में  उनका  बहुचर्चित उपन्यास  " मैला आँचल " प्रकाशित  हुआ  जिसनें  हिन्दी उपन्यास  को एक नई दिशा  दी।

एक प्रसिद्ध  साहित्यकार ने लिखा  है  कि " इनकी  कहानियों और उपन्यासों में  आँचलिक जीवन के हर धुन,  हर गंध, हर लय, हर ताल, हर सुन्दरता, और हर कुरूपता को बाँधने की  सफल कोशिश हुई है। उनकी  भाषा  शैली में एक जादुई सा असर है जो पाठकों को  अपने  साथ  बाँधे रहता है। " हिन्दी के  आलोचकों का  एक बड़ा  वर्ग उनके  कथा -साहित्य  को खारिज  करने  का असफल प्रयास किया। रेणु  ने  खुद  ही  कहा  था-" मेरे  साधारण  पाठक  मेरी स्पष्टवादिता तथा सपाटबयानी से सदा संतुष्ट  हुए हैं और  साहित्य के  राजदार पंडित  , कथाकार आलोचकों  ने हमेशा  नाराज होकर  मुझे  एक जीवन  दर्शनहीन, अपदार्थ ,अप्रतिबद्ध ,व्यर्थ  रोमांटिक प्राणी  प्रमाणित  किया है ।

इसके बावजूद  मैं  अपनी  रचनाओं में  अपने  को ही ढूँढ़ता  हूँ। अपने  को अर्थात्  आदमी  को ।" स्पष्ट है कि  उनके  लिए  आदमी  सबसे  ऊपर है।  " " सबै  ऊपर  मानुष , मानुष ऊपर  कोउ नहीं ।" हर कहानी  में  वे  नये शिल्प का प्रयोग  करते थे। उनकी  कहानियों पर रूसी कथाकार  मिखाइल  शोलोखोव, बंगला  कथाकार  ताराशंकर बंद्योपाध्याय तथा  सतीनाथ  भादुड़ी एवं  हिन्दी  के  महान  कथाकार  प्रेमचंद  का सम्मिलित  प्रभाव  माना गया है।

पहली  बार 1956 के  विशेषांक में प्रख्यात आलोचक  डॉ  नामवर सिंह ने अपने  लेख में  उनका  उल्लेख  किया है। वे लिखते हैं-" निःसंदेह इन( विभिन्न अंचलों या जनपदों के लोक जीवन को  लेकर लिखी गई) कहानियों में  ताजगी  है और प्रेमचंद  की  गांव  पर लिखी  कहानियों  से  एक हद तक नवीनता  भी । फणीश्वर नाथ रेणु  ,मार्कण्डेय, केशव मिश्र, शिवप्रसाद  सिंह  की कहानियों से  इस दिशा में  आशा  बंधती  दिखाई  देती है। " बाद में  ' नयी  कहानी आन्दोलन ' के कथाकारों  ने भी   रेणु  को श्रेष्ठ कथाकार के रूप में  रेखांकित किया। इनमें  प्रमुख हैं-" राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर , निर्मल वर्मा,  भीष्म  साहनी आदि । 

रेणु  की कहानियों का मूल्यांकन करते हुए  एक प्रख्यात लेखक ने लिखा है -" रेणु की कहानियों का संसार  मुख्यतः ऐसे लोगों  से  निर्मित है  जो  गांव के प्रति किसी हद तक एक रोमानी मोह से  ग्रस्त है और जिन्हें  गांवों  का सांस्कृतिक और  लोकतात्त्विक वैभव बहुत गहराई से छूता और बांधते है। अपनी  कहानियों में एक ओर रेणु  ने  आधुनिकीकरण की विडंबना  के तौर पर  शहर की ओर भागने  वाले  ग्रामीण युवकों को अंकित किया है तो  दूसरी ओर  भारतीय ग्रामों  की  लोक- कला  और लोक संस्कृति को उसके  सारे  ह्रास के बीच ,पुनर्जीवित  करने की  कोशिश  भी  की है।"

 ' विघटन  के  क्षण ' में  शहर आकर रिक्शा  खींचने  वाले  लोग हैं तो गांव लौट कर बड़ी शान से शहरी  विकास और उसके शानदार आकर्षणों की कहानियाँ सुनाते हैं। इस कहानी की इन पंक्तियों को पढ़िए-" फुलकन फुलझड़ी उड़ा  रहा है, " रजिन्नरनगर? अब उसके  बारे में कुछ  मत पूछो,  भैयो ! साला , ऐसा सहर कि लगता है  धरती  फोड़कर 'गोबर छत्ते ' की तरह रोज मकान  उगते जा रहे हैं। होगा  नहीं  भला ? वहाँ कोई भी काम हाथ से थोड़ी होता है? सुर्खी कुटाई  से लेकर  सिमटी- सटाई और चूना - पुताई  सबकुछ ' मिशिन ' से । बाल  'कटाने  जाओ तो  नाई एक ऐसा  'मिशिन'  लगा देगा कि  चटपट हजामत  खत्म। दस कदम पर एक- एक गोलपारक।

तो वहीं चुरमुनियां और  विजया भी  हैं जो  अपने गांव के  आकर्षण  को ललक के साथ याद करती है-"वह दूर से ही  दिखलाई  पड़ता है, गांव का बूढ़ा इमली का पेड़। वह रहा बाबा जीन-पीर का  थान। वह रही चुरमुनियाँ। रानीडिह की ऊँची जमीन पर लाल माटी वाले खेत में अक्षत- सिंदूर बिखेरे हुए हैं। हजारों गौरैया- मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में कचर-पचर कर रही है। चुरमुनियाँ सचमुच  पखेरू  हो गयी  ? उड़कर आयी है,  खंजन की तरह ! विजया  की तलहथी पर एक नन्ही- सी जान  वाली  चिड़िया आकर बैठ गयी।-चुरमुन रे!माँ !
डाक्टर ने सुई गड़ायी  या किसी  ने छुरा भोंक दिया ? - कोई  मारे या काटे, विजया  अपने  गाँव से  नहीं  लौटेगी, अभी! "


रेणु की  कहानियाँ कई भाव- भूमि  लिए हुए हैं और सभी  एक से  बढ़कर एक हैं। प्रख्यात  लेखक  चन्द्र भूषण ने लिखा है-
" यह रेणु की  लेखनी  का ही कमाल है कि इनकी कहानियों से गुजरते हुए कहीं भी  कृत्रिमता का अहसास  नहीं होता बल्कि  ग्रामीण  परिवेश में  पले- बढ़े पाठकों के मुँह से  अचानक ही शब्द  निकल पड़ते हैं- अरे! यह तो  अपना ही  गोनू काका है  या  चाचा- चाची के  किरदार  आँखों  के सामने  तैर जाते हैं। "

हिन्दी साहित्य की  कालजयी  कहानी " ठेस " के अमर पात्र 'सिरचन'  की अमिट  छवि  सदा के लिए पाठकों  के हृदय-पटल पर अंकित  हो जाती है।  इस कहानी  की इन पंक्तियों को पढ़िए-

" मैं  सिरचन को मनाने  गया। देखा, एक  फटी शीतलपाटी पर  लेट कर वह कुछ सोंच रहा है। मुझे  देखते ही  बोला,  बबुआ जी ! अब नहीं, कान पकड़ता हूँ, अब नहीं मोहर छाप वाली  धोती लेकर क्या  करूँगा? कौन पहनेगा? ससुरी खुद मरी, बेटे बेटियों को ले गयी  अपने साथ। बबुआ जी,  मेरी  घरवाली  जिंदा  रहती तो मैं ऐसी दुर्दशा  भोगता? यह शीतलपाटी उसी की बुनी हुई है। इस शीतलपाटी को छूकर  कहता हूँ ,अब  यह काम नहीं  करूँगा गांवभर में तुम्हारी हवेली में  मेरी  कदर होती  थी- अब क्या? मैं चुपचाप  वापस लौट आया।

समझ गया,  कलाकार के  दिल में  ठेस लगी है। वह अब नहीं  आ सकता। "इसी तरह, 'तीसरी कसम अर्थात्  मारे गये  गुलफ़ाम' में  रोमानी  भाव ज्यादा  मुखर और  स्पष्ट है। हिरामन और हीराबाई  - ये अमर पात्र  कहानी  को कालजयी  बनाते हैं। इस कहानी की इन पंक्तियों को पढ़िए-" उसने  उलटकर देखा, बोरे भी  नहीं,  बाँस भी  नहीं,  बाघ भी  नहीं- परी- देवी- मीता- हीरादेवी- महुआ घटवारिन -को- ई नहीं। मरे हुए  मुर्हतों की गूँगी  आवाजें मुखर होना चाहती हैं।  हिरामन के होंठ हिल रहे हैं। शायद  वह तीसरी  कसम खा रहा है कम्पनी  की औरत की लदनी ।
हीरामन ने हठात् अपने  दोनों  बैलों  को झिड़की दी ,दुआली  से मारते हुए  बोला, " रेलवे  लाइन  की ओर उलट- उलट कर   क्या  देखते  हो?" दोनों  बैलों  ने  कदम खोलकर चाल पकड़ी ।  हिरामन गुनगुनाने लगा- " अजी हाँ, मारे गये गुलफ़ाम----।"

इनकी  कहानियों  की एक  लम्बी  सूची है।  रसूल मिस्त्री , न मिटने वाली  भूख, इतिहास,  मजहब और  आदमी, धर्मक्षेत्रे- कुरुक्षेत्रे वण्डरफुल  स्टुडियो,  तीन विन्दियाँ , नित्य लीला, टेबल , अतिथि  सत्कार,  तॅबे एकला  चलो रे, काक चरित, आत्म- साक्षी, आजाद परिन्दे,  संकट, जलवा, प्रजा  सत्ता,  अक्ल और भैंस,  तव शुभ नामें, एक अकहानी का सुपात्र , जैव, मन का रंग, लफ़ड़ा   अग्निसंचारक,दस गज्जा के इस पार और उस पार,  रसप्रिया , एक आदिम रात्रि  की महक,  भित्तिचित्र की  मयूरी ,नैना जोगिन , पंचलाइट इत्यादि।  

इनकी  कहानियाँ  अपनी  संरचना, स्वभाव या प्रकृति शिल्प और प्रभाव  में  एक अलग और नयी  पहचान  लेकर  उपस्थित  होती हैं। उनके लेखन  से  प्रभावित  होकर  अज्ञेय  ने  उन्हें' धरती  का धनी ' कहा है तो  निर्मल वर्मा  ने उन्हें  समकालीन  कथाकारों  के बीच  संत माना है और  लिखा  है-" बिहार के छोटे भूखंड की हथेली पर उन्होंने  समूचे उत्तर  भारत के किसान की नियति  रेखा को उजागर  किया। " कहा गया है कि रेणु  का महत्व  सिर्फ आंचलिकता में  नहीं है,  अपितु  उसके  अतिक्रमण  में है। उनकी कहानियाँ  बदलते  ग्रामीण  जीवन  के  यथार्थ  को एक नयी  भंगिमा के  साथ  उद्घाटित करती हैं। ये कहानियाँ  टूटन और  विघटन के  रेखांकन  के साथ ही मनुष्य  के आर्तनाद को भी प्रकट  करती हैं।

हिन्दी साहित्य  का इतिहास ( संपादक- डाॅ नगेन्द्र) में  लिखा गया है-

"रोमैंटिक यथार्थ का सर्वाधिक चटकीला ,समग्र और आत्मीयपूर्ण रंग  रेणु की कहानियों में मिलता है। वे आदिम रसगन्धों के कथाकार हैं। गांव की धूल- माटी ,आंगन की धूप, बैलों  की घंटियां,धान की झुकी हुई  बालियां , चमकता हुआ  चावल ,मेला- ठेला , हंसी- ठिठोली आदि के  वर्णन में गांव ही  नहीं , पूरा अंचल उभर आता है। इस दृष्टि से ' लाल पान की  बेगम ' और ' तीसरी कसम ' विशेष रूप से  द्रष्टव्य है। "


ठुमरी, अग्निखोर , आदिम  रात्रि की महक, एक श्रावणी  दोपहरी  की धूप, अच्छे आदमी, तीसरी कसम, श्रेष्ठ कहानियाँ इत्यादि  प्रसिद्ध कहानी संग्रह है। 

कथा साहित्य के अतिरिक्त संस्मरण, रेखाचित्र और रिपोतार्ज  विधा में भी  लिखा।   संस्मरण में  ॠण जल- धन जल , वन तुलसी की  गंध ,श्रुत  अश्रुत पर्व  प्रसिद्ध हैं। रिपोतार्ज  में  नेपाली  क्रांति- कथा विख्यात है।  1954  में  पहला  उपन्यास " मैला आँचल " प्रकाशित और  बहुचर्चित  हुआ।  इनके  अन्य  उपन्यासों में  परती परिकथा,  कलंक- मुक्ति,  जुलूस, दीर्घतपा , कितने चौराहे, पल्टू बाबू रोड  प्रसिद्ध  हैं। हिन्दी साहित्य  का इतिहास ( संपादक- डाॅक्टर नगेन्द्र) में  लिखा गया है- " फणीश्वर नाथ रेणु  के उपन्यास  ही वास्तव में ' आंचलिक  है।सत्य  तो यह है कि'मैला आँचल 'और ' परती  परिकथा ' में ग्रामांचलों के तने विशद और  सवाक् चित्र देखने को  मिलते हैं उतने अन्य तथाकथित आंचलिक उपन्यासों में  नहीं।

इन दोनों उपन्यासों में  ग्रामांचल की  छोटी- छोटी घटनाओं, कथाओं, आचार- विचार, रीति- नीति, राजनीतिक- नैतिक अवधारणाओं, पारस्परिक  सम्बन्धों, आदि के  विश्लिष्ट चित्र मिलते हैं,  जो पूरे अंचल के  संदर्भ में संश्लिष्ट और गत्यात्मक  हो गए हैं। आधुनिकतावादी उपकरणों के  सन्निवेश से  गांव का  वातावरण अपने- आप बदलने  लगता है।" ' गोदान ' के  बाद जो कुछ हिंदी  के सर्वश्रेष्ठ  उपन्यास  माने जाते हैं, ' मैला आँचल ' उनमें से एक  है। 'मैला आँचल' का दर्जा  क्लासिक  रचना  का है। इसमें शूल- फूल ,धूल- गुलाल आदि  को अधिक  संवेदना  से  समझा जा सकता है। 

उन्होंने  राजनीति में  सक्रिय  भागीदारी की। 1942   के  भारतीय  स्वतंत्रता संग्राम में  एक  प्रमुख सेनानी  की भूमिका  निभाई ।1950 में  नेपाली  जनता को  राणाशाही  के दमन और अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए वहाँ  की सशस्त्र  क्रांति और राजनीति में  जीवन्त योगदान दिया।  जीवन के  संध्याकाल में राजनीतिक आन्दोलन  से  उन्हें  पुनः  लगाव हुआ। वे पुलिस  
दमन के शिकार हुए  और जेल  गए। सत्ता के  दमन- चक्र  के विरोध में  पद्मश्री  की उपाधि  का
परित्याग  कर दिए। 11 अप्रैल 1977 को उनका निधन  हो गया।

 अरुण कुमार यादव

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