मैं हूँ शिवयोगिनी अहिल्याबाई होलकर
सासू माँ के न रहने से बाबा साहेब का मनोबल और टूट गया फिरभी हिम्मत जुटाकर उन्होंने फिरसे मुहिम पर जाना शुरू कर दिया।लेकिन जब वे मुहिम पर जा रहे थे रास्ते मे ही उन्हें कर्ण शूल शुरू हुआ और वे आलमपुर में रुक गए पर स्वस्थ्य न हो पाए और बावन युद्ध के विजेता जिंदगी की जंग हार गए। मेरे सर से जैसे माता-पिता का साया उठ गया। इतने बड़े मालवा राज्य की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई थी।पुत्र मालेराव भी युद्ध में अपना शौर्य सिद्ध कर चुके थे।पेशवा जी ने उन्हें भी सूबेदारी के वस्त्र भिजवाए।
सुबह के धुंधलके में नीले आसमान में रंगोली के खूबसूरत रंग बिखरे हुए थे।सूर्य की सुनहरी किरणें आज आसमान में एक नया इतिहास रचने जा रही थीं। मैं शिव मंदिर में शिव की आरती कर रही थी।मेरे हाथ में जलती पंचारती की ज्योत ने शिवलिंग के चारों ओर सुनहरे प्रकाश का घेरा बना रखा था,अगरबत्तियों की पवित्र महक मंदिर में चारों ओर फैली हुई थी।शिव की आरती में मेरे स्वर एकाकार हो रहे थे।जैसे ही आरती समाप्त हुई मैंने सुगंधित पुष्प शिवलिंग को अर्पित किए और आरती की थाली ले सबको आरती देने लगी।तभी मैंने देखा दो राजपुरुष आगे आए और मुस्कुराते हुए उन्होंने आरती ली।मैं तुरंत उन्हें पहचान गई।मुझे कल की घटना स्मरण हो आई.....
..हम सब सहेलियां मिलकर नदी किनारे रेत का शिवलिंग बना रही थीं।शिवलिंग बनते ही जब हम उस पर पुष्प अर्पित कर रहे थे हमारी तरफ वेग से घुड़सवार आते दिखाई दिए।उनमें से एक अश्व बेकाबू हो हमारी तरफ तेज गति से आते हुए दिखाई दिया।मेरी सारी सहेलियां भयभीत हो भाग गईं, पर मैंने शिवलिंग को अपनी नन्ही बाहों से घेर लिया,ताकि शिवलिंग को खंडित होने से बचा सकूं। तभी एक अश्वारोही मेरे पास आकर बोले-
“बेटी,तुम्हारी सारी सहेलियां डर कर भाग गईं पर तुम शिवलिंग बचाने की कोशिश करती रहीं,अगर तुम्हें चोट लग जाती तो?"
मैंने उत्तर दिया-
"मेरे बाबा ने कहा है जिसके अस्तित्व का निर्माण हमने किया है उसकी रक्षा करना हमारा प्रथम कर्तव्य है।”
वे बोले-" तुम्हारा नाम क्या है?तुम किसकी बेटी हो?"
मैंने आदरपूर्वक उत्तर दिया-
" जी मेरा नाम अहिल्या है,मेरे पिता
चौंडी गांव के पाटिल श्री मानकोजी शिंदे हैं और माता का नाम सुशीलाबाई शिंदे है।”
उन्होंने कहा- " मैं इंदौर का सूबेदार मल्हारराव होलकर हूँ, मेरे साथ पूना के श्रीमंत बाजीराव पेशवा जी हैं।”
मैं उनके चरणस्पर्श कर घर आ गई और माँ को उनके बारे में बताया।
और आज फिर मंदिर में उनसे भेंट हो गई।
सूबेदार जी बोले- " अहिल्या बेटी,हम कल सुबह तुम्हारे माँ-बाबा से मिलने घर आएंगे।”
दूसरे दिन माँ-बाबा ने सुबह ही उनके स्वागत की तैयारी कर ली।
थोड़ी ही देर में श्रीमंत पेशवा जी,सूबेदार जी और उनकी रानी गौतमाबाई साहेब घर आए।माँ-बाबा ने फूलों से और गुलाबजल से उनका स्वागत किया।
सूबेदार जी और रानीसाहेब ने बाबा से कहा-
"आपकी अहिल्या बहुत संस्कारी और धर्मप्रिय बालिका है।हम अहिल्या का हाथ हमारे युवराज खंडेराव जी के लिए मांगना चाहते हैं। हम उसे होलकर राजवंश की पुत्रवधू बनाना चाहते हैं।”
माँ-बाबा की खुशी का पारावार नहीं रहा।बाबा बोले-
" आज से अहिल्या आपकी बेटी हुई।"
भोजन के बाद मुझे उन्होंने कई बहुमूल्य उपहार दिए।सोने,हीरे,मोती के गहने,अनेक जरीदार रेशमी साड़ियां, दुपट्टे,मिठाईयां और फल दिए।श्रीमंत पेशवा जी ने भी कई उपहार दिए और कहा कि हमारा विवाह वे पूना के शनिवारवाड़े में धूमधाम से सम्पन्न करवाएंगे।
कुछ ही समय बाद पूना के शनिवारवाड़े में मेरा विवाह युवराज खंडेराव जी के साथ संपन्न हुआ।मैंने रेशमी जरी की साड़ी और बहुत सारे हीरे मोती के गहने पहन रखे थे।युवराज जी ने भी पूरी राजसी पौशाक पहन रखी थी।एक दूसरे के गले में वरमाला डाल, अग्नि को साक्षी मान हम सात फेरों के बंधन में बंध पति-पत्नी बन गए।
अब मैं अहिल्याबाई होलकर हो गई।
होलकर राजवंश की पुत्रवधू बन मैं इंदौर के राजमहल आ गई।
सूबेदार मल्हारराव होलकर अब मेरे बाबा साहेब थे और रानी साहेब सासु माँ थीं।वे मुझे पुत्रिवत स्नेह करते।उनकी छत्रछाया में मैं बड़ी होने लगी।सासु माँ मुझे होलकर राजवंश के रीति रिवाज,कुलधर्म और संस्कार सिखातीं जबकि बाबा साहेब मुझे राजनीति,युद्धनीति सिखाते।युवराज खंडेराव जी और देवर तुकोजीराव के साथ-साथ मुझे भी शस्त्र-विद्या,घुड़सवारी की शिक्षा दी जाती थी।
बाबा साहेब और खंडेराव जी जब भी युद्ध पर जाते सासु माँ के निर्देशानुसार मैं राजकाज भी संभालती।
सासु माँ और बाबा साहेब कहते-
" अहिल्या, प्रजा के सुख-दुःख का ध्यान रखना हमारा पहला कर्तव्य है,उनको हमेशा न्याय देना,उनकी सुविधाओं का ध्यान रखना यही राजधर्म है।"
बचपन से ही शिव मेरे आराध्य थे।मैं दोनों समय महल के पूजाघर में शिव की,कुलदेवता की पूजा करती,आरती करती,धर्मग्रन्थों का पठन-श्रवण करती।
खंडेराव जी और बाबा साहेब के साथ कई बार मैं युद्ध में भी जाती।
मैं पुत्र मालेराव और पुत्री मुक्ताबाई की माता बनी।दोनों राजमहल में शिक्षा लेते बड़े होने लगे।
तभी बाबा साहेब का युद्ध सूरजमल जाट से कुम्भरी में शुरू हो गया।खंडेराव जी भी युद्ध में उनके साथ थे।सूरजमल जाट कुंभेरी के मजबूत किले के अंदर से युद्ध कर रहा था।कई दिनों तक युद्ध में हार-जीत का कोई नतीजा नहीं निकल रहा था।
एक दिन जब कुंभेरी का किला ध्वस्त करने की योजना को मूर्त रूप देने के लिए खंडेराव जी जमीन में लगाई सुरंगों का निरक्षण कर रहे थे तभी शत्रु पक्ष की गोली ने उन्हें धराशायी कर दिया।खंडेराव जी युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त हुए।
मेरे सिर पर जैसे आसमान टूट पड़ा।मेरा सुहाग उजड़ गया।सासू माँ और बाबा साहेब का तो जीवन का सहारा छूट गया।
तभी मैंने खंडेराव जी के साथ सती जाने का निर्णय लिया।मैं भी पति के वीरगति पाने के यश में सहभागी होना चाहती थी परंतु बाबा साहेब और सासू माँ ने बच्चों का वास्ता दिया,राज्य का वास्ता दिया।उनके आंसुओं ने मुझे सती जाने के निर्णय से रोक लिया।
उदासी ओढ़े हुए जिंदगी फिर कर्तव्य के राह पर चल पड़ी।
खंडेराव जी की मृत्यु और पानीपत की हार के बाद बाबा साहेब और सासू माँ जीवन से निराश हो थक से गए थे।
सासू माँ अस्वस्थ रहने लगीं और धर्म-कर्म पर चलने का मार्ग दिखा उन्होंने अंतिम सांस ली।
सासू माँ के न रहने से बाबा साहेब का मनोबल और टूट गया फिरभी हिम्मत जुटाकर उन्होंने फिरसे मुहिम पर जाना शुरू कर दिया।लेकिन जब वे मुहिम पर जा रहे थे रास्ते मे ही उन्हें कर्ण शूल शुरू हुआ और वे आलमपुर में रुक गए पर स्वस्थ्य न हो पाए और बावन युद्ध के विजेता जिंदगी की जंग हार गए।
मेरे सर से जैसे माता-पिता का साया उठ गया। इतने बड़े मालवा राज्य की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई थी।पुत्र मालेराव भी युद्ध में अपना शौर्य सिद्ध कर चुके थे।पेशवा जी ने उन्हें भी सूबेदारी के वस्त्र भिजवाए। केवल आठ माह राज्य के उत्तराधिकारी रहे मालेराव अस्वस्थ्य रहने लगे और अल्पायु में ही उनका निधन हो गया।
अब मेरा मन इंदौर से उचटने लगा था।मैं माँ नर्मदा के सानिध्य में अपना जीवन व्यतीत करना चाहती थी इसलिए मैंने अपनी राजधानी इंदौर से महेश्वर स्थानांतरित कर दी।मैंने अपनी हवेली में पूजा घर बनवाया मैं वहीं से माँ नर्मदा के दर्शन कर सकती थी।
लेकिन राज्य को लावारिस देख,हमेशा से होलकर राज्य के प्रति निष्ठावान रहे दीवान गंगाधर तात्या भी राज्य हड़पने का षडयंत्र रचने लगे और क्षिप्रा किनारे बड़ी फ़ौज लेकर आक्रमण करने आ गए।मैंने तुरंत उन्हें संदेश भेजा-
" अगर आप मुझसे युद्ध जीत भी गए तो कोई बड़ी बात नहीं होगी लेकिन अगर हार गए तो जिंदगी भर एक औरत से हारने का कलंक सहना होगा।मैं अगर भाला लेकर युद्ध के मैदान में उतरूंगी तो तुम्हारे सैकड़ों सैनिक मौत के घाट उतार दूंगी।”
उसके बाद मैंने देवर तुकोजीराव और सारे सरदारों को मदद के लिए पत्र लिखे,वे तुरंत अपनी फ़ौज ले दीवान गंगाधर के सामने आ डटे।मैंने भी अपनी महिलाओं की सेना सज्ज की और उन्हें भरपूर शस्त्र और गोला बारूद दिए।मेरे लाडले हाथी पर शस्त्र सजा मैं भी युद्ध के लिए चल पड़ी।रास्ते में सारी प्रजा मेरा जय जयकार कर रही थी,मुझे वीरांगना,होलकर वंश की कीर्तिध्वजा,रणरागिनी,राजयोगिनी,प्रजाहित्कारिणी कहकर जयघोष कर रही थी,मेरी आरती उतार रही थी,विजयी होने का आशीष दे रही थी।
दीवान गंगाधर घबरा गए और कहने लगे-
" महारानी साहेब,मैं युद्ध के लिए नहीं मैं तो आपके पुत्र की मृत्यु के लिए शोक संवेदना प्रकट करने आया हूँ।"
उन्होंने बिना फ़ौज के आकर हमारा आतिथ्य स्वीकार किया और लौट गए।
मैंने अपनी पुत्री मुक्ताबाई का विवाह
यशवंतराव फणसे जी से धूमधाम से कर दीया।मुक्ताबाई के पुत्र नथिबा को मैं राजकाज और युद्धविद्या में प्रवीण कर रही थी,लेकिन शायद भाग्य को मेरी ये खुशी भी मंजूर नहीं थी।अस्वस्थता की वजह से वे ईश्वर को प्यारे हो गए।पुत्र वियोग में यशवंतराव जी की भी मृत्यु हो गई।मेरे बहुत अनुनय के बावजूद मुक्ताबाई पति के साथ सती हो गई।
लेकिन मेरे लिए कर्तव्य हमेशा भावना से बड़ा रहा।अब प्रजाहित के लिए जीना ही मेरे जीवन का उद्देश्य था।
अब अपना राज्य मैं शिवार्पित कर चुकी थी।मैंने देश की हर पवित्र नदी के किनारे मंदिर बनवाए,घाट बनवाए,मंदिरों का मस्जिदों का जीर्णोद्धार किया।तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए रास्ते बनवाए,प्याऊ बनवाए,बावड़ियों का निर्माण किया।धर्मशालाएं बनवाईं,अन्नक्षेत्र खोल दिए।
किसानों के खेत में पीपल,बड़, नीम,आम के वृक्ष लगाना अनिवार्य कर दिया,पर्यवरण की रक्षा के लिए वृक्षारोपण को महत्व दिया।प्रजा में यह प्रचारित कर दिया कि वृक्ष काटना ईश्वरीय अपराध है।
प्रजा को न्याय मिलना सुनिश्चित था।पशु और पक्षियों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था की।मेरा बहुत बड़ा धार्मिक पुस्तकों का ग्रन्थालय बनाया जिसे पढ़ने दूर-दूर से विद्वान आते थे।मंदिरों में निरंतर होम-हवन होते रहते थे।महेश्वर पवित्र नगरी का पर्याय बन गया।कई लोगों को मैंने रोज़गार दिए।बुनकर जो वस्त्र बुनते थे उनकी प्रसिद्धि सारे देश में फैल गई।
मैंने भीलों को रोज़गार दिया और राज्य से उनका आतंक हटा दिया।युद्धक्षेत्र में चंद्रावतों के विरोध को शांत किया।मेरे राज्य में प्रजा के लिए न्याय के दरवाज़े हमेशा खुले थे।
मेरा समय धर्म-कर्म और राज्य की व्यवस्था चलाने में व्यतीत हो रहा था।
लेकिन मन और शरीर अब दोनों थकने लगे थे।
.....ज्वर रहने लगा था....कभी लगता सासू माँ और बाबा साहेब कह रहे हों.....अहिल्या....तुमने प्रजा के प्रति अपना कर्तव्य पूर्ण रूप से निभाया.....
....कभी लगता खंडेराव जी कह रहे हों
......अहिल्या, तुम बाबा साहेब की अपेक्षाओं पर खरी उतरीं.....कभी लगता.....हरी साड़ी और गहनों से सजी मुक्ताबाई कह रही हो.....आई साहेब चलिए .....शिवजी के मंदिर चलते हैं...
......मैं कहती हूँ .....हां मुक्ता.....चलो अब शिवजी की शरण मे चलते हैं.....
....इन मंदिरों की घण्टियों में....मेरे शिवस्तोत्र गूंजते रहेंगे.....शिवमन्दिर में जलती नीरांजन के प्रकाश में......मेरा अस्तित्व विलीन होने दो.....नर्मदा की जलराशि में पड़ती सुनहरी सूर्य रश्मियों की तरह.....होलकर वंश की कीर्ति झिलमिलाती रहेगी......हे शिव! ......
.....मेरी प्रजा की सदैव रक्षा करना....
...मुझे अपनी शरण में ले लो......
....मेरे चारों ओर अलौकिक प्रकाश है
.....में प्रकाश में विलीन हो रही हूं....
.....ॐ....शांति.....शांति.....शांति.....
......ॐ....
रंजना फतेपुरकर
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