गणतन्त्रीय भारत में लोकतंत्रीय - मूल्यों का समावेश

संविधान निर्माताओं ने एक `लोक कल्याणकारी राज्य' की स्थापना अर्थ में इस अधिनियम को प्रमुखता से ग्राह्य किया। इसके अतिरिक्त संविधान के स्रोत स्वरूप अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रंथ भी उपादेयी रहे। ग्लैडहिल की पुस्तक `फंडामेंटल राइट्स इन इंडिया' और `ंडियन रिपब्लिक' `अलकजेन्ड्रो विज' की पुस्तक `कांस्टीच्यूशनल डेवलपमेंट ऑफ इंडिया' की भूमिका भी अहम रही। संविधान स्रोतस्विनी के रूप में प्राचीन परम्पराओं पर भी संविधान विशेषज्ञों की दृष्टि दौड़ी। जैसा कि गुलामी काल में जन अपेक्षाओं पर ही कुठाराघात होता रहा, उनकी मर्यादाओं,जीवन सुरक्षा की खतरनाक परिस्थितियां अंग्रेजी शासन द्वारा पैदा की जा रहीं थीं

May 27, 2025 - 14:54
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गणतन्त्रीय भारत में लोकतंत्रीय - मूल्यों का समावेश
Inculcation of democratic values ​​in Republic of India

    प्राकृतिक उपागमों,संसाधनों का सन्तुलित एवं परिमार्जित रूप से विश्व मानव समाज के कल्याणार्थ उपभोग करने की प्रबल इच्छा धारा से संयुत् होकर जीने में ही मानवता के उत्कृष्टता की श्रीवृद्धि होती है। मानव के मानव अधिकार सुरक्षित रहते हैं। अपने निश्चित भूभाग पर निवास करते हुए भी ब्रिटिश दासता की घोर यंत्रणाओं से त्रस्त भारत की जनता के स्वतन्त्रता संघर्ष की विश्व गाथा में अनेकानेक हृदय विदारक घटनाओं बीच स्व शासन संदर्भित भारतीय संविधान सृजन परिप्रेक्षित विभिन्न महत्वपूर्ण अधिनियम प्रकाश में आते रहे,जो आगे चलकर स्वातंत्र्य के वरण की ओर अग्रसर राष्ट्र नायकों के लिए पथ दर्शक साबित हुईं। इन अधिनियमों में १७७३ का रेग्युलेटिंग एक्ट,१८२३ का चार्टर अधिनियम,१८३३ का चार्टर एवं१८५३ का चार्टर अधिनियम तो महत्वपूर्ण रहा ही है,साथ ही १८५८,१८६१,१८९२,१९०९,१९१९ तथा अति महत्वपूर्ण १९३५ का भारतीय शासन अधिनियम की महती उपादेयता रही।
    १९३२ में तैयार हुए एक श्वेत पत्र पर आधारित १९३५ के भारतीय शासन अधिनियम में `लोकहित साधना' की अनेक बातें विद्यमान थीं। यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने एक `लोक कल्याणकारी राज्य' की स्थापना अर्थ में इस अधिनियम को प्रमुखता से ग्राह्य किया। इसके अतिरिक्त संविधान के स्रोत स्वरूप अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रंथ भी उपादेयी रहे। ग्लैडहिल की पुस्तक `फंडामेंटल राइट्स इन इंडिया' और `ंडियन रिपब्लिक' `अलकजेन्ड्रो विज' की पुस्तक `कांस्टीच्यूशनल डेवलपमेंट ऑफ इंडिया' की भूमिका भी अहम रही। संविधान स्रोतस्विनी के रूप में प्राचीन परम्पराओं पर भी संविधान विशेषज्ञों की दृष्टि दौड़ी। जैसा कि गुलामी काल में जन अपेक्षाओं पर ही कुठाराघात होता रहा, उनकी मर्यादाओं,जीवन सुरक्षा की खतरनाक परिस्थितियां अंग्रेजी शासन द्वारा पैदा की जा रहीं थीं। ऐसी दशा में मानवता के कल्याण की सोच पर भारतीय राजनेताओं का ध्यान अधिक रहा।क्या होना चाहिए, क्या नहीं होना चाहिए ये ही विचारणीय विन्दु रहे। सभी ने स्वतन्त्रता प्राप्ति एवं स्व संविधान अनुसार शासन व्यवस्था कायम करने के स्वप्न को फलीभूत करने के लिए दृढ़ संकल्पता दिखलायी।
    मजबूत इरादे,कठोर श्रम साधना,अनुपम त्याग बलिदान के अचूक अस्त्र के बदौलत भारतीयों ने स्वतन्त्रता की सुनिश्चितता का सूरज जब बहुत करीब से देखा, तो संविधान निर्माण हेतु `भारतीय संविधान सभा' के गठन की प्रक्रिया को बल मिला। इस दिशा में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हृदय से १९२२ में ही ये भाव प्रस्फुटित हो चुके थे कि- `भारत के लिए भारतीय ही संविधान बनाएंगे।'
    प्रथमतः १८९५में संविधान सभा के निर्माण की बात उठी थी। उसके बाद १९३४ में। जैसा कि स्वराज्य पार्टी ने मई १९३४ में और कांग्रेस ने १९३६ के फ़ैज़पुर अधिवेशन में इस मांग को दोहराया। अंततः १९४२ के क्रिप्स प्रस्ताव में संविधान सभा के निर्माण को स्वीकार किया गया। गणतन्त्रीय भारत में लोकतंत्रीय मूल्यों के समावेशन की कामना से संविधान सभा के निर्माण की प्रक्रिया १९४६ के कैबिनेट मिशन प्लान में दी गई। इसी के आधार पर जुलाई १९४६ में  संविधान सभा के चुनाव हुए।भारतीय संविधान सभा के चुनाव में `आनुपातिकप्रतिनिधित्व की एकल मत संक्रमण प्रणाली'अपनायी गई, जिसकी कुल सदस्य संख्या ३८९ नियत की गई। जैसा कि संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन ०९ दिसम्बर १९४६ ईस्वी को हुआ। डॉ.सच्चिदानंद सिन्हा संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष नियुक्त हुए। आगे चलकर ११ दिसम्बर १९४६ को डा.राजेन्द प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष नियुक्त किया गया।बी.एन.राव संवैधानिक सलाहकार नियुक्त हुए।'
    जन कल्याण और विश्व शांति के हिमायती भारतीयों द्वारा एक आदर्श कल्याणकारी संविधान सृजनार्थ विश्व के ६० देशों के संविधान का अध्ययन किया गया,जिससे की विश्व मोतियों की इन लोकहित लड़ियों से एक अमूल्य संविधान सृजन का स्वप्न साकार हो सके और तंत्रों में अति विशिष्ट तंत्र लोक तंत्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो सके तथा गणतन्त्रीय भारतीय संविधान में लोकतंत्रीय मूल्यों के सुन्दर समावेशन की संकल्पना चरितार्थ हो सके।'
    संविधान सभा के प्रारूप समिति के अध्यक्ष पीड़ितों, शोषितों, प्रवंचितों के मसीहा डॉ. भीमराव अम्बेडकर की ज्ञानधारा से सृजित एवं अन्य तत्कालीन भारत विभूतियों के ज्ञान निधि से स्नायित भारतीय संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल ही रही थी कि इसी बीच स्वतंत्रता का सूर्योदय १५ अगस्त १९४७ को होते ही भारतीयों ने स्वतंत्रता देवी का वरण किया, जबकि इसके सहोदर पाकिस्तान को १४ अगस्त १९४७ को स्वतन्त्रता की प्राप्ति हुई।ध्यातव्य हो कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान को पारित करने का प्रस्ताव रखा और यह प्रस्ताव २६ नवम्बर १९४९ को पारित हो गई। भारतीय संविधान के निर्माण में कुल २ वर्ष ११माह और १८ दिन लगे थे। इसके निर्माण में तत्समय ६३ लाख ९६ हजार ७२९ रूपये व्यय हुए थे।संविधान सभा संदर्भित कुछ विशेष तथ्यात्मक बातें एतद् रहीं।
     `संविधान सभा की स्थापना ०६ दिसम्बर १९४६ को हुई थी और यह २४ जनवरी १९५० को विसर्जित हुई। इसके अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और उपाध्यक्ष हरेन्द्र कुमार मुखर्जी तथा वी.टी. कृष्णमाचारी थे। प्ाहली बार संविधान सभा की मांग सन १८९५ ईस्वी में बाल गंगाधर तिलक ने उठाई थी,जबकि अंतिम (पांचवीं) बार पंडित जवाहरलाल नेहरू ने १९३८ इसकी मांग उठाई थी।भारत-पाक बंटवारे के बाद इसके कुल सदस्यों की संख्या(३८९) में से २९९ ही रह गए,जिनमें १५ महिलाएं,२६ अनुसूचित जाति एवं जन जाति के ३३ सदस्य थे।भारतीय संविधान के निर्माणार्थ कुल २२ समितियां गठित की गईं थीं, जिनमें प्रमुख समितियां और उनके अध्यक्ष रहे-मसौदा या पारूप समिति(डॉ. भीमराव अम्बेडकर), संघ शक्ति समिति और संघ संविधान समिति(पण्डित जवाहरलाल नेहरू), वार्ता समिति, प्रक्रिया समिति, वित्त एवं स्टाफ समिति, राष्ट्रीय ध्वज तदर्थ समिति (डॉ. राजेन्द्र प्रसाद), कार्य संचालन समिति (के.एम.मुन्शी), झंडा समिति (जे.बी.कृपलानी), प्रांतीय समिति, मूलाधिकार व अल्पसंख्यक समिति (सरदार बल्लभ भाई पटेल), कार्यकरण संबंधी समिति(जी.वी.मावलंकर) और आवास समिति (पट्टाभि सीतारमैय्या)। ‘स्वतंत्रता-क्रांति काल में विशिष्ट रहे १९२९ के लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया था और अगले वर्ष २६ जनवरी १९३० को स्वाधीनता दिवस भी मनाया गया। इसी ऐतिहासिक तारीख़ को महिमा मण्डित करने की मंशा से सृजित संविधान की कतिपय धाराएं ही २६ नवम्बर १९४९ को लागू की गईं तथा पूर्ण रूप से भारतीय संविधान आगामी २६ जनवरी १९५० को लागू किया गया, जिससे कि लाहौर घोषणा की पुष्टि हो सके। इसी के साथ औपनिवेशिक शासन प्रणाली का अंत हुआ और ब्रिटेन की भारत पर प्रभुसत्ता भी अन्त को प्राप्त हो गई। भारत को ब्रिटेन की संसद ने १९४७ के स्वतन्त्रता अधिनियम द्वारा डोमिनियन बनाया था। संविधान ने इस स्थिति को भी समाप्त करते हुए भारत को रिपब्लिक घोषित किया।संविधान के अनुसार प्रभुसत्ता सम्प्रति भारत की जनता में निहित है।’
    संविधान की प्रस्तावना के मुताबिक देश को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य कहा गया। इसमें `सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न' से तात्पर्य-`शासन की शक्ति भारतीयों में निहित है' से है, जबकि `लोकतंत्रात्मक' का अर्थ-राजसत्ता जनता में निहित है और `गणराज्य' को राज्य का प्रधान वंशानुगत न होकर निर्वाचित है, के रूप में परिभाषित किया गया। समाजवादी और धर्म निरपेक्ष राज्य आगे चलकर इस प्रस्तावना के अंगभूत बने। अनुच्छेद१ (१)के अनुसार भारत राज्यों का एक संघ कहा गया। संविधान सृजन की धारा की स्वतन्त्र प्रवाह निश्चित तौर पर लोक मूल्यों को हरा भरा करने पर टिकी रही। जन कल्याण निमित्त राज-समाज व्यवस्था की अधिकांश चर्चाएं संविधान में की गईं। जरूरत है इनके व्यावहारिक अमल की।संविधान के भाग ३ के अंतर्गतउपबंधित भारतीय नागरिकों के(मूल संविधान में ०७) ०६मौलिक अधिकार (समता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध रक्षा, धार्मिक स्वतंत्रता, शिक्षा एवं संस्कृति तथा सब पर भारी संवैधानिक उपचारों का मौलिक अधिकार) लोकतंत्र के प्राण स्वरूप तो हैं ही, आगे भाग-४  के अनुच्छेद ३६ से ५१ के बीच व्यवस्थित राज्य के नीति निदेशक तत्वों ने कल्याणकारी कार्यक्रमों की एक संहिता की निधि संविधान के अंतर्गत रखी।
    भारतीय न्यायपालिका की सर्वोच्चता से प्राप्त अधिकारों को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने की दिशा में जबरदस्त पहल की गई। अब प्रश्न उठता है कि भारतीय संविधान अनुसारी शासन व्यवस्था के अब तक ७४ बसन्त बीत चुके। इस अर्थ में कल्याणकारी आदर्श राष्ट्र-समाज संस्थापना दृष्टि पथ पर हमने कहाँ तक सफलता प्राप्त की। आर्थात् क्या पाया क्या खोया, इस पर हमें गाम्भीरता से सोचना होगा। राष्ट्रीयता की प्रबल भावधारा तथा नैतिकता, ईमानदारी,सत्यनिष्ठा व त्याग-बलिदान के अचूक अस्त्रों के प्रयोग से दिव्य भारतीय संस्कृति की पहचान के अपहर्ताओं के चंगुल से जिस भारत माता को छुड़ाकर उसके आदर्श वैश्विक सम्मान को राजित करने हेतु देश के वीर सपूतों ने एक से बढ़कर एक बलिदानी उदाहरण प्रस्तुत किये तथा स्वतंत्रता संदर्भित अनेक जय नादों से जो सभी दिशाएं गुंजायमान हुईं, आज उसी को विस्मृत करने का ख़ामियाज़ा भारतीय जन भुगत रहे हैं। 
स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाने का महान उपक्रम प्रदूषित और मानवता विपरीत विचार व कर्मों से कलंकित किया जा रहा है। गणतंत्र दिवस अवसर पर संकल्पित हो शिक्षकों, शिक्षार्थियों, अभिभावकों, शासकों-प्रशासकों को संवैधानिक मूल्यों से अटूट सरोकारिता बढ़ानी होगी, तभी यह राष्ट्रीय पर्व महिमा मण्डित हो, जीवन के प्रत्येक आयाम पर नित नव ज्ञान-विज्ञान की अनुपम ज्योति से प्रदीप्त कर जन मन को संबलित करता रहेगा। बहुत असीम है हमारे तिरंगे की शान और महिमा। अस्तु गणतन्त्रीय भारत के लोकतंत्रीय मूल्यों के प्रति परं सचेत रहने के सद् संकल्प को पूरी ईमानदारी से व्यवहार में उतारने से ही गणतंत्र दिवस को महिमायित किया जा सकता है।

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