मालिक मोहम्मद जायसी और पद्मावत – प्रेम का मर्म

जायसी एक भावुक, सहृदय और संवेदनशील भक्त कवि थे। उनके लिखे ग्रंथों में ‘पद्मावत’, ‘अखरावट’ और ‘आखिरी कलाम’ मुख्य हैं। ‘पद्मावत’ एक आध्यात्मिक प्रेमगाथा है। ‘पद्मावत’ की कथा के लिए जायसी ने प्रेममार्गी सूफी कवियों की भांति कोरी कल्पना से काम न लेकर रत्नसेन और पद्मावती(पद्मिनी) की प्रसिद्ध ऐतिहासिक कथा को अपने महाकाव्य का आधार बनाया।इस प्रेमगाथा में सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती एवं चित्तौड़ के राजा रत्नसेन के प्रणय का वर्णन है।

Jun 21, 2024 - 12:27
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मालिक मोहम्मद जायसी और पद्मावत – प्रेम का मर्म
The essence of love
मानवता के दग्ध मरूस्थल को अपनी शीतल काव्य-धार से अभिसिंचित करने वाले संतों और भक्त कवियों की वाणी से भारत के इतिहास में एक समॄद्ध परम्परा रही है। निर्गुण भक्ति की प्रेमाश्रयी शाखा के प्रसिद्ध सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी इसी परंपरा के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं।
जायसी का जन्म सन् 1492 के आसपास माना जाता है। वे ‘जायस’ शहर के रहने वाले थे, इसीलिए उनके नाम मलिक मुहम्मद के साथ ‘जायसी’ शब्द जुड़ गया। उनके पिता का नाम मुमरेज था। बाल्यावस्था में एक बार जायसी पर शीतला का असाधारण प्रकोप हुआ। बचने की कोई आशा नहीं रही। बालक की यह दशा देखकर मां बड़ी चिंतित हुयी। उसने प्रसिद्ध सूफी फकीर शाह मदार की मनौती मानी। माता की प्रार्थना सफल हुयी। बच्चा बच गया, किंतु उसकी एक आंख जाती रही।
विधाता को इतने से ही संतोष नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद उनके एक कान की श्रवणशक्ति भी नष्ट हो गयी। इसमें संदेह नहीं कि जायसी का व्यक्तित्व बाहरी रूप से सुंदर नहीं था, पर ईश्वर ने उन्हें जो भीतरी सौन्दर्य दिया था, वही काव्य के रूप में बाहर प्रकट हुआ। उनकी कुरुपता के संबंध में एक किंवदंती है कि एक बार वे शेरशाह के दरबार में गये। शेरशाह उनके भद्दे चेहरे को देखकर हंस पड़ा। जायसी ने अत्यंत शांत स्वर में बादशाह से पूछा, ‘मोहि का हंसेसि कि कोहरहिं?’ अर्थात तू मुझ पर हंस रहा है या उस कुम्हार पर, जिसने मुझे गढ़ा है? कहा जाता है कि विद्वान जायसी के इन वचनों को सुनकर बादशाह बहुत लज्जित हुआ और उसने क्षमा मांगी। जायसी के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। अनाथ बच्चा कुछ दिनों तक अपने नाना शेख अलहदाद के पास मानिकपुर रहा, किंतु शीघ्र ही निर्मम विधाता ने उसका यह सहारा भी छीन लिया। बालक एकदम निराश्रित हो गया। ऐसी अवस्था में जीवन के प्रति उसके मन में एक गहरी विरक्ति भर गयी। वह साधुओं के संग रहने लगा और आत्मा-परमात्मा के संबंध में गहरा चिंतन करने लगा। वयस्क होने पर जायसी का विवाह भी हुआ। वे पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वाह करते रहे, पर ईश्वरभक्ति में कोई कमी नहीं आयी। जायसी का यह नियम था कि जब वे खेत पर होते तो अपना खाना वहीं मंगवा लिया करते थे, पर अकेले खाना नहीं खाते थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक बार उन्होंने कोढी के साथ भी भोजन किया। उनकी भक्ति इतनी गहरी हो गयी थी कि जाति-वर्ण, ऊंच-नीच के सारे भेद मिट गये थे।
जायसी एक भावुक, सहृदय और संवेदनशील भक्त कवि थे। उनके लिखे ग्रंथों में ‘पद्मावत’, ‘अखरावट’ और ‘आखिरी कलाम’ मुख्य हैं। ‘पद्मावत’ एक आध्यात्मिक प्रेमगाथा है। ‘पद्मावत’ की कथा के लिए जायसी ने प्रेममार्गी सूफी कवियों की भांति कोरी कल्पना से काम न लेकर रत्नसेन और पद्मावती(पद्मिनी) की प्रसिद्ध ऐतिहासिक कथा को अपने महाकाव्य का आधार बनाया। इस प्रेमगाथा में सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती एवं चित्तौड़ के राजा रत्नसेन के प्रणय का वर्णन है। नागमती के विरह-वर्णन में तो जैसे जायसी ने अपनी संपूर्ण पीड़ा स्याही में घोलकर रख दी है। कथा का द्वितीय भाग ऐतिहासिक है, जिसमें चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण एवं पद्मावती के जौहर का वर्णन है।
‘पद्मावत’ की रचना सोद्देश्य हुयी थी। पद्मावती और रत्नसेन का रूपक रचकर जायसी ने विश्वव्यापी पार्थिव और अपार्थिव सौन्दर्य को संयुक्त किया है, लौकिक प्रेम को अलौकिक प्रेम में समर्पित किया है। वह कथावस्तु जायसी के नहीं या भारत के ही नहीं, वरन् समस्त विश्व के हृदय-स्थान की है। वस्तुत: ‘पद्मावत’ हिन्दू और मुसलमानों के दिलों को जोड़ने वाला वृहद् इकरारनामा है। जायसी ने ‘पद्मावत’ के माध्यम से हिन्दू और मुसलमानों की पृथक संस्कृतियों, धर्मो, मान्यताओं एवं परंपराओं के बीच समन्वय तथा प्रेम का निर्झर प्रवाहित किया। वैष्णवों के ईश्वरोन्मुख प्रेम एवं सूफियों के रहस्यवाद को जायसी ने मिला दिया है।
‘पद्मावत’ जायसी की काव्य-कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। हिन्दी के महाकाव्यों में तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ के बाद ‘पद्मावत’ की समकक्षता में कोई भी ग्रंथ नहीं ठहरता। साहित्यिक रहस्यवाद एवं दार्शनिक सौन्दर्य से परिपुष्ट जायसी की यह कृति उनकी कीर्ति को अमर रखेगी, इसमें संदेह नही है। जायसी ने इस महाकाव्य की रचना दोहा-चौपाइयों में की है। जायसी संस्कृत, अरबी एवं फारसी के ज्ञाता थे, फिर भी उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना ठेठ अवधी भाषा में की। इसी भाषा एवं शैली का प्रयोग बाद में गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने ग्रंथरत्न ‘रामचरित मानस’ में किया।
मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म ९०० हिजरी ( सन् १४९२ के लगभग ) हुआ माना जाता है। जैसा कि उन्होंने खुद ही कहा है :-
या अवतार मोर नव सदी।
तीस बरस उपर कवि बदी।।
कवि की दूसरी पंक्ति का अर्थ यह है कि वे जन्म से तीस वर्ष पीछे अच्छी कविता कहने लगे। जायसी अपने प्रमुख एवं प्रसिद्ध ग्रंथ पद्मावत के निर्माण- काल के संबंध में कहा है :-
सन नव सै सत्ताइस अहा।
कथा आरंभ बैन कवि कहा।।
इसका अर्थ यह है कि "पदमावत' की कथा के प्रारंभिक वचन कवि ने सन ९२७ हिजरी ( सन् १५२० ई. के लगभग) में कहा था। ग्रंथ प्रारंभ में कवि ने "शाहे वक्त'' शेरशाह की प्रशंसा की है, जिसके शासनकाल का आरंभ ९४७ हिजरी अर्थात सन् १५४० ई. से हुआ था। उपर्युक्त बात से यही पता चलता है कि कवि ने कुछ थोड़े से पद्य १५४० ई. में बनाए थे, परंतु इस ग्रंथ को शेरशाह के १९ या २० वर्ष पीछे समय में पूरा किया होगा। 
     जायसी जिस संस्कृति को पद्मावत में रचते है उसके मूल में प्रेम है। और प्रेम एक शाश्वत विषय है और अत्यंत व्यापक भी। पूरी दुनिया इस विषय पर लिखते पढ़ते चलते चली आयी है। मतलब ‘प्रेम’ सार्थक विषय भी है। किसी वस्तु की सार्थकता का मोल उसके मार्ग में आने वाली कठिनाई अच्छे तरीके से व्यक्त करती है। प्रेम-पथ की कठिनता पर जब रीतिकालीन कवि ‘बोधा’ कहते है –                     
यह प्रेम को पंथ कराल महा
तरवारि की धार पै धावनो है
इतने सार्थक और शाश्वत विषय पर लिखने, पढ़ने और इस मार्ग पर चलने को ‘बोधा’ तलवार की धार पर चलने के समान बताते हैं। सवाल यह है कि प्रेम का मार्ग सम्पूर्ण मनुष्यता के लिए जरुरी होने के बावजूद भी इतना दुर्गम क्यों है? प्रेम तो हमेशा ही जोड़ने का कार्य करता है, तो क्या पूरी दुनिया में तोड़ने वालों की संख्या अधिक हो गई है, जो इस राह में तलवार बिछाये बैठे हैं? इस तरह के सवाल बार-बार हमारे मन में आते हैं और इसके जवाब के लिए बार-बार हम जायसी, सूर, तुलसी, कबीर और मीरा को पढ़ने, समझने की जरूरत महसूस करते हैं।
         प्रेम बंधन नहीं है, स्वतंत्रता और बराबरी का भाव तो उसके मूल में है। ‘कृष्ण’ हैं बहुत बड़े देव लेकिन ‘रसखान’ की अहीर की छोकरिया तो उनको छछिया भर छाछ पर नाच नचाती है। तो वहीं ‘मीरा’ कृष्ण को अपना पति मान बैठती हैं। इस प्रकार की अभिव्यंजना प्रेम मार्ग में ही सम्भव है और यही प्रेम भारतीय संस्कृति की आत्मा है।
        प्रेममार्गी काव्यधारा की सर्वोच्च रचना ‘पद्मावत’ हिंदी साहित्य में ऐसा हस्ताक्षर है, जो प्रेम और मनुषत्व को सर्वोपरि सिद्ध करता है। रचनाकार के भीतर अगर प्रेम है, मनुष्यता है, तभी वह ऐसे पहलुओं को सलीके से रच सकता है। जायसी ईश्वर की ओर उन्मुक्त हैं, लेकिन वहाँ तक पहुँचने का उनका मार्ग मानव-प्रेम से होकर गुजरता है। जायसी की नायिका ‘पद्मावती’ स्त्री है, लेकिन जायसी उसका जन्मोत्सव इतने धूम-धाम से मानते हैं कि ‘राजा रत्नसेन’ का जन्मोत्सव फीका पड़ जाता है। जायसी इस प्रेम-आख्यान को कल्पना के सहारे ही पूर्ण पराकाष्ठा पर पहुंचाते हैं। ठीक है दूध, दही का समुद्र उनकी कल्पना थी, सिंहलद्वीप का सम्पूर्ण वातावरण, पद्मावती का महल जिसकी एक-एक ईंट बहुमूल्य हीरे-मोती की है, उसकी चुनाई कपूर आदि से हुई है, ‘पद्मावती’ जिसे जायसी इतना रूपवती बनाते हैं कि कोई पुरुष उसे देखते ही मूर्छित हो जाता है - सब कल्पना है, लेकिन मन में सवाल उठता है कि आखिर जायसी ऐसा करते क्यों है? कल्पना की ऐसी पराकाष्ठा कि वास्तविकता से दूर-दूर तक उसका कोई रिश्ता ही नज़र नहीं आता, लेकिन हम ठीक से देखें तो पता चलता है कि इन सब के मूल में प्रेम को सर्वोच्च सिद्ध करने की कोशिश मात्र है। उतना सुन्दर महल, दुनिया में सर्वोच्च स्थल वह सिंहलद्वीप, वहाँ का मनमोहक वातावरण, सब कुछ का त्यागने के पीछे ‘पद्मावती’ के पास आधार ही क्या है? तो हम जवाब पाते हैं , ‘रत्नसेन का प्रेम’। राजा रत्नसेन का नहीं, जोगी रत्नसेन का। 
यह जो प्रेम का पराभव है, यही ‘प्रेम’ आधार बनता हैं जायसी को रत्नसेन का पक्ष लेने में। इस प्रेम की अभिव्यंजना जायसी के नज़र में इतना सर्वोपरि है कि जायसी जिस ‘पद्मावती’ को सम्पूर्ण जगत में अनन्य सिद्ध करते हैं, उसे पाने का आधार ‘प्रेम’ मात्र रखते हैं। अलाउद्दीन दिल्ली का सुल्तान है, लेकिन सब कुछ के बावजूद ‘पद्मावती’ को प्राप्त नहीं कर पाता। क्योंकि उसका आधार ही गलत था। जिस चीज को पाने का आधार प्रेम है, उसे ‘बल’ से कोई कैसे पा सकता है? ‘बल’ से अलाउद्दीन को वही मिलता है, जो सम्पूर्ण संसार को आज तक मिलता आया है – चितौड़गढ़ की ईट-पत्थर की दीवारें –
जौहर भइ सब इस्तिरी, पुरुष भए संग्राम।
बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम।।
जायसी कहते हैं कि सब ख़त्म हो गया और चितौड़गढ़ इस्लाममय हो गया। लेकिन पाठक के मन में अकुलाहट अब शुरु होती है, कि अलाउद्दीन पूरे चितौड़गढ़ को प्राप्त करने के बाद भी उदास क्यों हैं? क्यों वह जौहर हुई रानियों के राख़ उठाकर कहता हैं यह पृथ्वी झूठी है।
छार उठाइ लीन्हि एक मूठी। 
दीन्हि उड़ाइ पिरिथिमी झूठी।।
सब कुछ जो जायसी गढ़ते हैं, सब इसी लोक में बचा रह जाता है। पूरे महाकाव्य से तीन पात्र (पद्मावती, नागमती, और रत्नसेन) ही तो विदा लेते हैं, फिर क्यों इस महाकाव्य को पढने के उपरांत मन व्याकुल होने लगता है तो लगता है कि पूरे आख्यान का आधार प्रेम है। उसी प्रेम के सूत्र में बंधे थे नागमती, पद्मावती और रत्नसेन । जिनके न रहने से पूरा का पूरा आख्यान सूना पड़ जाता है और अलाउद्दीन सब कुछ पाकर भी ठगा सा रह जाता है। यही प्रेम की वास्तविक अभिव्यंजना है। यही मनुष्य से मनुष्य का वास्तविक रिश्ता है। इस रिश्ते का मूल आधार प्रेम है और इस प्रेम से बड़ा न कोई धर्म है और न कोई ईश्वर। बल्कि सब तक पहुँचने का प्रेम ही एक मात्र मार्ग है। 
‘पद्मावत’ में जिस प्रेम तत्त्व की अभिव्यञ्जना हुई है, वह नायक-नायिका के मध्य पल्लवित होने वाला लौकिक प्रेम नहीं है, वरन् आत्मा और परमात्मा के मध्य विकसित होने वाला आध्यात्मिक प्रेम है। यही जायसी की महानता को उजागर करता है।
रचना दीक्षित 

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