कोई बात नहीं

इन्सान तो गलतियों का पुतला ही है, गुण-दोष का समन्वित स्वरुप, जुदा–जुदा ख़्यालों का मालिक। यह भी हकीक़त है कि ऐसी कितनी ही भूलें गलतियाँ हमसे भी तो होंगी जो सामने वाले को भी आहत करती हों, ऐसे में उन्हें क्यों न परस्पर “कोई बात नहीं” कहकर टाल दिया जाए। दुनिया में कोई फरिश्ता नहीं है, इसे याद रखना ज़रूरी है। क्यों हर मनुष्य सामने वाले को अपने जैसा समझने की, मानने की या वैसा ही होने की भूल करता है। उसके विचारों में अपनी सोच ढूँढना सरासर गलत है।

Apr 16, 2024 - 17:56
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कोई बात नहीं
No problem

वैविध्य के क्षितिज से ही सौंदर्य के सूर्य का आविर्भाव होता है। यही विविधता संसार को इतना अद्भुत बनाये हुये है। समस्त प्राणी जगत् के साथ साथ मानव की संरचना एवं उसकी प्रकृति की अनेक रुपता के क्या कहनें। दुनिया में हर मनुष्य अपने आप में अलग है, अद्वितीय है। इसीलिये तुलसीदास को कहना पड़ा ---

“तुलसी इस संसार में, भाँति -भाँति के लोग
सबसे हिलमिल चालिए, नदी -नाव संयोग”

ज़रा सोचिये, सभी व्यक्ति एक जैसे होते तो क्या होता। कैसी एकरसता होती हमारे इर्द- गिर्द, क्या हम इसे सह पाते ? कदापि नहीं। विरोधाभास ही तो ख़ुबसूरती का केन्द्रीय बिन्दू है। हमें इस सबके लिये अपने नापसंद व्यक्ति को कोसने के बजाय उस अदृश्य चित्रकार के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। अपना एक शैर बरबस याद आ रहा हैः-

“हर इक शख़्स बेमिस्ल होता है “कमसिन”
कोई भी किसी और जैसा नहीं है ”

और हाँ, यही वैचित्र्य है जिसके परिणाम स्वरूप हमें कई व्यक्तियों के आचार, विचार, व्यवहार के कारण अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कितनी ही बार हानि भी उठानी पड़ती है और भी न जाने क्या-क्या सहना पड़ता है। ऐसा होने पर हम ख़ुद को कोसते भी हैं, तो स्वयं पर झुँझलाते भी हैं, दूसरों पर झल्लाते हैं तो कभी उन्हें पानी पी – पी कर गालियाँ भी देते हैं, झगड़ा-फसाद, दुश्मनी तक हो जाती है और सदा–सदा के लिये व्यवहार ही समाप्त हो जाता है। 

ऐसा करके हम अपनें प्रिय मित्रों, अच्छे पड़ौसियों, रिश्तेदारों, परिजनों आदि को खो देते हैं, छोटी–छोटी सी बातों पर हुई ज़रा–ज़रा सी कहा-सुनी के बाद अक्सर हम पछताते भी हैं, तो उनसे मुआफ़ी भी माँगते हैं। यदि हम थोड़ा भी गौर करें तो पायेंगे कि इन ज़रा–ज़रा सी बातों को तो नज़रअन्दाज़ भी किया जा सकता था, यह क्या कर बैठे हम...।  लेकिन ऐसा करना बड़े साहस का काम है, किसी के नापसंद लगने वाले व्यवहार को नज़रअन्दाज़ कर देना ही तो व्यक्ति के लिये एक कसौटी है। वह ऐसा करना भी चाहे तो उसका अहम् सामने आ खड़ा होता है। 

लेकिन इसका भी एक सरल हल है, “कोई बात नहीं”, “जाने भी दो”, “ऐसा हो जाता है” आदि सूत्रों को दैनिक जीवन के व्यवहार का हिस्सा बना लेना। कहने में ये मात्र तीन-चार शब्द हैं मगर इनमें असीम शक्ति निहित है। यह शक्ति व्यक्ति को प्रतिदिन अनेक परेशानियों से, तनाव से, द्वन्द्व से, क्रोध से, पीड़ा से छुटकारा दिला सकती है। 

प्रतिदिन घर-परिवार में, पड़ौस मित्र- मण्डली में, कार्यस्थल पर कई ऐसी बातों का होना स्वाभाविक है जो हमें ग़वारा नहीं होती, और उन्हें हम दिल से लगा लेते हैं। परिणाम, हमारी सकारात्मक ऊर्जा का हनन, तनाव में वक़्त की बरबादी, चिड़चिड़ापन, कार्य शैली प्रभावित आदि कई परेशानियाँ। समझदारी इसी में है कि “कोई बात नहीं”  सूक्त को अपनाकर दिमाग़ को हल्का रखें, अपनी ऊर्जा का सदुपयोग करें, व्यर्थ का बोझ मन पर नहीं रखें।

इस प्रसंग में “दिल पर मत ले यार” सूक्त इतना प्रचलित है।  तो क्यों न छोटी–छोटी बातों को दिल से दूर ही रखा जाये, क्योंकि इनसे नुकसान तो दिल पर लेने वाले का ही होना है। इन्सान तो गलतियों का पुतला ही है, गुण-दोष का समन्वित स्वरुप, जुदा–जुदा ख़्यालों का मालिक। यह भी हकीक़त है कि ऐसी कितनी ही भूलें गलतियाँ हमसे भी तो होंगी जो सामने वाले को भी आहत करती हों, ऐसे में उन्हें क्यों न परस्पर “कोई बात नहीं” कहकर टाल दिया जाए।  दुनिया में कोई फरिश्ता नहीं है,  इसे याद रखना ज़रूरी है। क्यों हर मनुष्य सामने वाले को अपने जैसा समझने की, मानने की या वैसा ही होने की भूल करता है। उसके विचारों में अपनी सोच ढूँढना सरासर गलत है। हर व्यक्ति को अपनी बात कहने की, अपने विचार रखने की पूरी आज़ादी है उसे अपनी तरह सोचने का हक है। अपने विचारों ख़्यालों से दूसरे को तोलना बेमानी है। हर आदमी का ख़याल, नज़रिया जुदा होता है। “पसंद अपनी-अपनी, ख़याल अपना-अपना” कहावत सबने सुन रखी है। 

यह भी सच्चाई है जो बात मुँह से निकल चुकी, वह कभी वापस नहीं लौटती, एक बार तीर लौट सकता है। (नई तकनीक ईजाद हो सकती है), लेकिन जो हो चुका है वह अन हुआ कदापि नहीं हो सकता। फिर इन बातों को, घटनाओं को हमेशा पल्लू से बाँधकर रखना कहाँ की समझदारी है। अच्छा यही है कि उन बातों का समय पर सलीके से उत्तर दे दिया जाये, उलझन सुलझा ली जाये। लेकिन ऐसा भी हर प्रसंग में सम्भव नहीं हो पाता क्योंकि कई प्रसंगों में हमारे सामने ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिनसे हम मर्यादावस कुछ कह या पूछ भी नहीं पाते, ज़हर का घूँट पीकर रहना पड़ता है। किन्तु ख़ुद पर जियादती क्यों की जाये उनकी गलतियों की सजा स्वयं को क्यों दें। “जाने भी दो, “ऐसा होता है सबके साथ” कहकर टाल देना ही बेहतर है। इन सूक्तियों को अपनाने से जीवन में आमूल परिवर्तन सम्भव है।  चैन और शांति – पूर्वक सामाजिक जीवन-यापन किया जा सकता है।  

डॉ. कृष्णा  कुमारी “कमसिन”

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