निर्गुण भक्ति के कवि - कबीर

काव्य धारा की एक शाखा को संत काव्य धारा कहा जाता है। कबीर दास भक्ति काल की 'संत काव्य धारा ' धारा के कवि थे। इसे ज्ञानाश्रयी काव्य धारा भी कहा जाता है। वह व्यक्ति जिसने संत रूपी परम तत्त्व को प्राप्त कर लिया हो, वही संत है। कबीर ने जनजीवन से जुड़े इसी आवश्यक सत्य की अभिव्यक्ति की है।

Jun 21, 2024 - 15:47
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निर्गुण भक्ति के कवि - कबीर
Nirguna Bhakti – Kabir

हिंदी साहित्य में संत कवि ने जिस विचार धारा को अपनी वाणी की रचना में प्रवृत किया ,उसका मूल सिद्ध तथा नाथ साहित्य में है। इन संत कवियों ने अपनी आध्यात्मिक साधना तथा भक्ति अभ्युत्थान में वाणी का प्रयोग किया है जिन्हें दोहे या गीत के माध्यम से आज भी गाया जाता है। निर्गुण भक्ति धारा में कबीर का स्थान सर्वोपरि है। रैदास, नामदेव, बाबा फ़रीद, धन्ना पीपा सेन भी कबीर के समकक्ष हैं। रज, सत और तम को भक्ति काल के संतों ने किन रूपों में पाया, और किस प्रकार अभिव्यक्त किया,यही उनमे विभेद पैदा करता है। इस धारा का सबसे बड़ा ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब है जिसमें ६ सिख गुरुओं तथा १८ हिंदू संतों की वाणी का संग्रह है। जो ईश्वर के मूल या साकार रूप में विश्वास करता है उसे सगुण रूप कहते हैं और जो अमूर्त या निराकार रूप को मानता हो वह निर्गुण रूप है। 
काव्य धारा की एक शाखा को संत काव्य धारा कहा जाता है। कबीर दास भक्ति काल की 'संत काव्य धारा ' धारा के कवि थे। इसे ज्ञानाश्रयी काव्य धारा भी कहा जाता है। वह व्यक्ति जिसने संत रूपी परम तत्त्व को प्राप्त कर लिया हो, वही संत है। कबीर ने जनजीवन से जुड़े इसी आवश्यक सत्य की अभिव्यक्ति की है।निजी अनुभूतियों पर उनका विश्वास था। उन्होंने आडंबर और जाति - पाँति का विरोध किया है। निर्गुण भक्ति काव्य की दो शाखाएँ हैं, ज्ञानमार्गी जिसके प्रतिनिधि कबीर हैं और प्रेम मार्गी जिसके प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं । कबीर ने ईश्वर को सर्वव्यापी और सर्व शक्तिमान मान कर बताया है कि वह अजन्मा और निर्विकार है। वह विश्व के कण - कण में है और उसे हमें बाहर नहीं अपने भीतर ढूँढना चाहिए। 
कबीर हम सब में थोड़ा-थोड़ा समाया हुआ एक विशेष भाव है। वे मनुष्यता का बोध करते रहने की कड़ी है। कबीर का जन्म लहतारा क्षेत्र में माना गया है जहाँ इनकी जननी ने इन्हें लहरतारा तालाब के किनारे छोड़ा था। वहीं से नीरू व नीम इन्हें अपने टीले पर ले आए थे जो पहले नीरू टीला कहलाता था और अब कबीर मठ कहलाता है l तत्कालीन समय में मान्यता थी कि काशी में प्राण त्यागने से स्वर्ग मिलता है और मगहर में प्राण जाए तो व्यक्ति नर्क में जाता है। इस धारणा को अपवाद सिद्ध करने के लिए ही कबीरदास जीवन के अंतिम समय में मगहर चले गए और वहीं उन्होंने अपने प्राण त्यागे। 
'' क्या काशी, क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मारा।
  जो कासी तन तजै कबीर, रामे कौन निहारा।।
लोगों का मानना है कि मृत्यु के पश्चात जब उनके शव से चादर हटायी गयी तो शव नहीं कुछ फूल मिले जिनमे से कुछ पुष्पों का हिंदुओं ने प्रतीक स्वरूप दाह संस्कार कर दिया और कुछ पुष्पों को मुसलमानों ने दफ़ना दिया। लोक में लोग उन्हें निर्गुण इसलिए नहीं कहते हैं कि उन्होंने देव की विदेह व्याख्या की है बल्कि इसलिए कहते हैं कि। सात समंद को मसि करने के बाद भी, समस्त वनराजि को लेखनी और सारी धरती को कागद करने के बाद भी हरि गुण का लिखा जाना उनसे सम्भव नहीं होगा। कबीर का निर्गुण ब्रह्म एक नए धर्म का आविष्कार है,न हिंदू,न मुस्लिम,न राम,न रहीम।हिंसा के आलोचकों ने कबीर को रहस्यवादी और मायावादी साबित करने की कोशिश की हैजबकि कबीर का काव्य ज्ञान की वह आँधी है जिसने रहस्य, माया, आडंबर और  भ्रांतियों की धज्जियाँ उड़ा दी। वर्ण, जाति और मध्ययुगीन सामंती ढाँचा समझने के लिए कबीर के दोहे उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने ब्रह्म, योग, माया और मोह को समझने के लिए उपयोगी हैं। प्रभाव, विकास और विरोध ये तीन शब्द कबीर काव्य के व्याख्याताओं ने कभी एक साथ तो कभी अलग-अलग करके काव्य मर्म समझाने के लिए किया है वर्ण और जाति में बँधा उस समय का समाज ज्ञान की जो व्याख्या करता है उसमें शूद्र की पीड़ा का वर्णन कबीर के काव्य का मर्म है।  ब्राह्मण-पुरोहित और नीची जातियों के बीच का अंतर्विरोध कबीर के विचार को प्रभावित करते हैं। 
एक बूँद, एकै मल मूतर एक याम और गुदा 
एक जोति ने सब उत्पन्ना को बाहमन को सूदा  
कबीर को पता था जो ज्ञान वेद से आएगा वह वर्ण व्यवस्था का पोषक होगा, भ्रामक होगा इसलिए वे एक समानांतर नयी धर्म का चलन लाना चाहते थे जो प्रेम, मानवता,समानता और जीवन पर आधारित हो। इस ज्ञान में छोटे - बड़े का भेद, कर्मकांड, अष्टयाम पूजा आदि नहीं थे। इसीलिए उन्होंने लिखा था,
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भाया न कोय 
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय 
इस ज्ञान में किसी भी नियम की सख़्ती नहीं, पाप बोध, अपराध बोझ से दूर इस नए सूत्र में कबीर ने सच और सहज को आधार बनाया। सच एक तपस्या है और सहज ही साधना। '' सहजहि विषय तजि ।''  यह सूत्र मन और आत्मा, प्रेम और सच्चाई का नया धर्म पंथ है जो वर्णवादी कठिन धर्म साधना से अलग है। सहज साधना जो जीवन के भीतर संभव है वही मुक्ति का रास्ता है। 
सहजै रहे समाय सहज में,ना कहूँ आय न जावे।
धरे न ध्यान करै नहि जप - तप राम रहीम न गावे।।
कबीर मनुष्यता के मूल प्रश्नों पर गहराई से विचार करते हैं। उनकी कविता प्रश्न भी पूछती है, भक्ति का विश्लेषण भी करती है और प्रेम की व्याख्या भी।प्रश्न पूछने की आकूलता के कारण वे राम से भी पूछ लेते हैं, ''हे राम,मुझे तार कर कहाँ ले जाओगे?' ''सब कोई चलने को कहते हैं लेकिन यह बैकुंठ कहाँ है?'' कबीर केवल प्र्श्न ही नहीं पूछते हैं, स्वयं अपने अनुभव पर उसका उत्तर भी दे देते हैं। कहते हैं, असली बैकुंठ तो सज्जनों की संगति में है। वे जीवन की सहजता और उसके आनंद को ही सारे प्रश्नों का हल मानते हैं। यह सहजता और आनंद घर त्याग कर सन्यास धारण करने में नहीं बल्कि रोज़मर्रा के जीवन के साक्षात्कार से निष्पन्न है। जुलाहे के परिवार में पालन-पोषण, तत्कालीन समाज व्यवस्था से उत्पन्न रोष और उनके निवारण के लिए उनका सत् प्रयास उन्हें एक क्रांतिकारी बना देते हैं और ज्ञान के नए आयाम में जिस रहस्यवाद का परिचय प्राप्त होता है,वह परिचय एक नए सम्प्रदाय यानी कबीरपंथ की बुनियाद रखता है। ज्ञान और अनुभव की जुगलबंदी में ही रहस्यानुभूति है। ज्ञान मस्तिष्क का विषय है  प्रेम हृदय का। 
आँधी पिछैं जो जल बूटा,प्रेम हरी जन भींना।
कहाई कबीर भान के प्रगटें उदित भाया तम षींना ।।
सार है कि ज्ञान मात्र साधन है, साध्य प्रेम है। यह प्रेम सूर्य की तरह है जिसके उगते ही अंधकार क्षीण पड़ जाता है।  
 कबीर हरि रस यों पिया, बाक़ी रही न थाकि 
पाक कलस कुम्हार का, बहुरि न चढहिं चाकि।।
 कबीर की साधना पद्धति ज्ञान, प्रेम और योग को साथ लेकर चलती है। कबीर भ्रमणशील थे। विभिन्न साधना सम्प्रदायों के सम्पर्क में आए, ख़ुद साधना की और फिर अपने अनुभवों के आधार पर अपना मत रखा। '' तू कहता पुस्तक की लेखि, मैं कहता आँखिन देखी।'' यही उनकी निजता है। उन्होंने भक्ति का वह मार्ग चुना जिसे किसी भी स्थान या समाज में स्वीकृत किया जा सकता था। उनकी भक्ति का स्वरूप वैष्णव भक्ति का था जिसे निर्गुण - निराकार से सम्बंधित करके विशेष से निर्विशेष बना दिया तथा उसे सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त करके प्रत्येक उपासक के लिए सुलभ बना दिया। 
'' मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकान्त निवास में।
ना मैं मंदिर नाम में,मस्जिद ना काबे कैलास में। 
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में।''
उन्होंने रामानन्द से राम नाम की दीक्षा तो ली किंतु राम को साकार रूप में नहीं, उन्हें ब्रह्म का पर्याय बनाकर अपने राम की नयी व्याख्या की। उनका योग भी हठ योगियों के समान कठिन आसन - प्राणायाम से जुड़ा नहीं था बल्कि सहज योग का था उनका कहना था, शब्द को जानो और फिर मन के पार चले जाओ।कर्मकांड के बजाय करम करो और पहले ओंकार को साध लो, वासनाएँ स्वतः समाप्त हो जाएँगी। प्रभु से प्रेम हो जाने पर मुख से निकला हर शब्द समिरन बन जाता है। सभी कार्य पूजा बन जाते हैं। तब गृहस्थ और सन्यास में कोई अंतर नहीं रह जाता है। ऐसे साधक का हिलना - डुलना ही परिक्रमा है, सोना - बैठना ही दंडवत है, बोलना ही नाम जप है,  और कर्म पूजा है । इस स्थिति में सभी वासनाएँ समाप्त हो जाती हैं और चित्त परम तत्त्व से अभिन्न रूप से जड़ जाता है। यही कारण है कि उन्होंने जगह - जगह पर पंडित व मुल्लाओं को चुनौती दी है। आचार्य द्विवेदी ने सच ही कहा है,"कबीर दास की सच्ची महिमा तो कोई गहर्रे में गोता लगाने वाला ही समझ सकता है। '' वे जीवन की गुत्थियों को सुलझाने वाले अनेक सूत्र देते हैं। समाज सुधारने के उपाय बतलाते हैं। फिर भी उन्हें समाज सुधारक नहीं कहा जा सकता है। वस्तुत: वे व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे जो सारे समाज का पथ प्रदर्शक था। कबीर साहित्य हमारी धरोहर है जिसमें जन कल्याण के मार्ग और आत्म उन्नति के सूत्र समाहित हैं। मानव धर्म के प्रचारक कबीर ने यूँ ही नहीं कहा था,

'' कबीरा खड़ा बाज़ार में, माँगे सबकी ख़ैर।             
 ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।''

डॉ. कविता विकास

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