श्रीराम चरित्र : आदर्श चरित्र

रामायण का आत्मा प्रभु रामचंद्र है लेकिन अन्य पात्र भी हमें बहुत कुछ देते है। वाल्या कोली जो चोर या लुटारु के नाम से जाना जाता था वह रत्नाकर नाम का बालक बचपन से ही गलत संगति के कारण वैसा बना था। लेकिन विधि का लिखा कुछ और था। उसके भाग्य में जो था, उसे वहां तक ले जाने के लिए महर्षि नारदजी स्वयं वहां पहूंच गए। नारदजी के संपर्क में वाल्या या रत्नाकर आया और उसे गुरु मिल गए। सही रास्ता दिखाने वाले गुरु मिलना यह भी एक तकदीर का भाग है।

Jun 23, 2024 - 11:29
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श्रीराम चरित्र : आदर्श चरित्र
Shriram

प्रभु श्रीराम चंद्र, श्रीराम, राम ऐसे कई नामों से अगणित भक्तों के ह्रदय में विराजमान रामजी के चरित्र के हर एक पात्र और घटना से पाठकों को कुछ ना कुछ सीख अवश्य मिलती है। रामजी का नाम सुनतेही शरीर में एक पवित्र और भक्तिभाव की ज्वाला प्रज्वलित होती हैं। मन पुलकित हो उठता है। रामचरित हमारे लिए एक अनुकरणीय ग्रंथ है।
कई शतकों से हम रामायण पढते है, सुनते है, परदे पर या रंगमंच पर देखते है लेकिन बार बार दिल रामकथा सुनने या देखने के लिए लालायित होता है। हर बार यह अनुभूति होती है की हम कुछ नया देख रहे है, या सुन रहे है। कई महानुभावों ने रामायण कहानियां लिखी है।
रामायण का आत्मा प्रभु रामचंद्र है लेकिन अन्य पात्र भी हमें बहुत कुछ देते है। वाल्या कोली जो चोर या लुटारु के नाम से जाना जाता था वह रत्नाकर नाम का बालक बचपन से ही गलत संगति के कारण वैसा बना था। लेकिन विधि का लिखा कुछ और था। उसके भाग्य में जो था, उसे वहां तक ले जाने के लिए महर्षि नारदजी स्वयं वहां पहूंच गए। नारदजी के संपर्क में वाल्या या रत्नाकर आया और उसे गुरु मिल गए। सही रास्ता दिखाने वाले गुरु मिलना यह भी एक तकदीर का भाग है। नारदजी मिलने तक रत्नाकर को यह मालूम नहीं था की वह जो कर रहा है वह एक पाप है। भलेही वह अपने कुटुंब के लिए कर रहा था लेकिन जब नारदजी के कहने पर उसने अपने घरवालों से अपने गुनाहों की सजा सहने की बात कही तो उसकी पत्नी ने साफ शब्दों में इन्कार कर दिया और वाल्या की आँखें खुली। नारदजी के कहने पर उसने 'राम' नाम का जाप शुरू किया लेकिन उसके मुंह से 'राम' के बजाए 'मरा' शब्द आने लगा। दो अक्षर कितने साधे थे लेकिन उसमें जो भाव भरा था, वह साधारण नहीं था। ऐसा कहते है कि, मुंह में ईश्वर का नाम आने के लिए भी पास मे कुछ पुण्य होना जरूरी हैं। रत्नाकर के तकदीर का अंबार पाप से भरा हुआ था, तो उसके जबान से भगवान का आयेगा कैसे? उसने नारदजी की ओर देखा तो वे बोले, "रत्नाकर, तुम 'मरा... मरा...' कहते जाओ। जब तुम्हारे पापों का अंत होगा तो अपने आप 'राम.. राम..' नाम आ जाएगा।" कहते हुए महर्षि नारदजी चले गए।
गुरु नारदजी ने रत्नाकर को 'मरा' इस शब्द की दीक्षा दी थी। कुछ सालों बाद नारदजी उसी रास्ते से गुजर रहें थे तो उनके कानों पर 'राम... राम...' नाम की धून पडने लगी। नारदजी को आश्चर्य हुआ की, इतने घने जंगल में कौन राम नाम ले रहा है? वे जैसे जैसे उस आवाज की ओर जा रहे थे, तो आवाजें बढने लगी, ऐसा लग रहा था, मानो उस परिसर के पेड, पन्ने, फुल और साथही बडें बडें पत्थर भी आत्मियता से, भक्ति से राम नाम ले रहें थे। नारदजी के मन मे यह सवाल उठ रहा था कि, आखिर बात क्या है, यह जाप कौन कर रहा है? अचानक उन्हें याद आया, 'अरे, यह तो रत्नाकर है, जिसे बरसों पहले मैने राम नाम का जाप करने को कहा था...।' कहते हुए नारदजी ने देखा कि, एक बडे वारुल से यह आवाज आ रही है। उन्होंने तत्काल उस वारुल को खोदना शुरू किया। अंदर रत्नाकर समाधि अवस्था में बैठा था। उसे कोई जानकारी नही थी, वह सबकुछ भुल कर केवल राम नाम मे लीन था। ऐसे समाधिस्थ व्यक्ती को समाधि अवस्था से बाहर निकालने कि एक कला, एक मंत्र होता है। नारदजी रत्नाकर के सिर पर हाथ फेरने लगे और कुछ ही क्षणों मे रत्नाकर की समाधि भंग हुई। नारदजी ने देखा रत्नाकर के शरीर में मानों खुन की एक बुंद भी नही थी, शरीर अस्थिपंजर हुआ था। रत्नाकर ने देखा, सामने नारदजी खडे है, उसके खुशी का कोई ठिकाना नही था। हर्षोल्लास से भरे रत्नाकर को नारदजी ने उठाते हुए कहा,
"उठो, महर्षि वाल्मीकि, उठो। आपने सालोंसाल जो जाप किया है, उससे आपके सारे पाप नष्ट हो  गए है। महर्षि आप को एक महान काम करना है.... रामायण लिखनी है....।" रत्नाकर ने नारदजी के पांव पकड लिए और कहा,
"गुरुवर, आप की आज्ञा सर आंखों पर। आप जो कहे, जैसा कहे मै करने के लिए तैयार हूं।”
आगे चल कर महर्षि वाल्मीकि ने रामायण जैसा अद्भुत, पवित्र ग्रंथ लिखा। खास बात यह थी कि, महर्षि वाल्मीकि ने जो लिखा वैसे ही भविष्य में हुआ। यह राम नाम लेनी की महती थी, जो वाल्या एक चोर, डाकू का काम करता था वही वाल्या केवल अखंड राम नाम लेने के कारण महर्षि वाल्मीकि बन गया। पापमुक्ति के लिए के लिए दूसरी कौनसी कारगर दवाई नही है। संत पद तक पहुंचने के लिए अखंडता से राम नाम लेना पडता हैं। गुरु नारदजी ने अपना काम बखुबी निभाया, भटके को सही रास्ते पर लाना। गुरु कोई भी हो अपने शिष्यों को सही रास्ता बताता है। उसे पाप करने से रोकता है।
सीता को रावण ने अशोक वन मे रखा था, तो हनुमानजी ने सीतामाता का पता लगा लिया। उसके बाद रामजीने लंकापर आक्रमण किया। घनघोर युद्ध हुआ। रावण के एक- एक धुरंधर, पराक्रमी योद्धाओं को राम- लक्ष्मण और उनके साथियों ने परास्त किया तो आखिर स्वयं रावण को युद्धभूमि पर आना पडा। जब युद्ध चल रहा था तो रावण ने लक्ष्मण को एक शक्ति से बेहोश किया। यह देखकर श्रीराम स्वयं रावण को ललकारते हुए सामने आ खडे हुए। रामजीने रावण की सेना पर बाणों की बौछार कर दी। उन बाणों की मार से कोटि से ज्यादा दानव, हाथी, घोड़े रणभूमि पर गिर गए। एक समय ऐसा आया कि, रावण सबकुछ भुलाकर खुद राम का पराक्रम देखने लगा। कुछ पल बाद तो रावण को समरभूमि पर जहां वहां केवल राम दिखने लगे। वह जिधर देखता वहां खडे दानव, हाथी, घोडों की जगह प्रभु रामचंद्र दिखने लगे। निर्जीव वस्तु रथ, ध्वज, सारथि यह सब मे उसे राम ही दिखाई पडने लगे। आश्चर्य की बात यह थी की, उसे लगने लगा, उसके हृदय में भी राम ने निवास कर लिया है। ऐसा क्यों हुआ, क्योंकि वह पिछले कई महिनों या सालोंसे दुश्मन का नाम 'राम' लेते समय अनजाने मे शायद जाप कर रहा था। इस अद्भुत शक्ति से घबराकर रावण रथ से उतर कर भागने लगा। कुछ दूर जाकर उसने पीछे मुडकर देखा तो उसके पीछे भागते हुए जो दानव आ रहे थे, वे भी उसे रामस्वरूप दिखने लगे।
रावण ने राम को पराजित करनेके लिए कुंभकर्ण जो गहरी निद्रा में सोया हुआ था उसे जगाया। जब कुंभकर्ण रावण के पास आया और उसने पूछा, "आपने सीता को बंदी बनाकर रखा तो है, लेकिन जो मंशा से उसे यहां लाएं थे, वह पूरी हुई या नहीं?"
कुंभकर्ण के ऐसे सवाल पर रावण ने जो उत्तर दिया वह श्रीरामजी और सीतामाता का ईश्वर रुप प्रकट करता हैं और रामजी का महिलाओं के प्रति जो पवित्र रिश्तों का रवैया था वह भी सिद्ध होता हैं। रावण कहता है,
"कुंभकर्ण, सीता कोई सामान्य स्त्री नही है। वह बडी पतिव्रता है। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन मैं विफल रहा।”
"तो फिर कपटजाल से राम का रुप लेकर सीता को फंसाया क्यों नही?"
"नहीं, कुंभकर्ण, नही। जब भी मै राम का रुप धारण करुंगा तभी दिल से वासना, परस्त्री को भोगने की लालसा पल भर में नष्ट हो जाएगी। जैसे राम परस्त्री को माता मानता है, वैसी भावना मेरे मन मे भी जाग उठेगी। मै भी राम की तरह एकपत्नी, एकवचनी हो जाउंगा।”
निश्चित रूप से श्रीराम के अच्छे गुणों का डर रावण को सता रहा था।
आज सास-बहू, ननंद-भाभी की बातें छोड़ो लेकिन दो बहनें हो, मां- बेटियों में भी नहीं बनती। लेकिन कोसल्या, कैकयी और सुमित्रा तीनों सौतन थी पर उनमें बहनों जैसा प्यार था। तीनों का दुख एक था कि तीनों को संतान नहीं थी। तीनों मे द्वेष, झगड़ा नहीं होता था। तीनों में प्यार था। तीनों में जो अच्छे संबंध थे, यह अनुकरणीय उदाहरण है।
भाई- भाईयों मे जो प्यार होता है, कर्त्तव्य होता है उसका अनोखा प्रमाण हमें रामजी और उनके भाईयों मे दिखता है। जब बात राम को वन में जाने की आती है तो लक्ष्मण बडे भाई की सेवा अपना कर्तव्य मानकर वन में जाने की जिद करता है, यह कहकर की, अरण्य मे आपकी सेवा करनेवाला कोई नहीं होगा। मैं साथ मे रहूंगा तो आपकी सारी बातों का ध्यान रखुंगा। आपकी सेवा करनेसे मुझे परमानंद मिलेगा। इतनाही नही, लक्ष्मण अपनी पत्नी को समझाते हुए उसे छोड़कर वन मे चला जाता हैं। यहां लक्ष्मण का बडे भाई रामजी के लिए अपना प्यार, कर्तव्य, सेवाभाव दिखाई देता हैं जो आज बहुत कम परिवारों में मिलता हैं।
जब बात लक्ष्मण की आती हैं तो हमें उनकी पत्नी उर्मिला की स्थिति जाननी चाहिए। उर्मिला भी राजा जनक की कन्या, राजपुत्री थी। अयोध्या नरेश की बहु थी। जब लक्ष्मण अपने भाई के साथ  वन में जाने का निर्णय उर्मिला को केवल बताता है और उसे मानो आज्ञा देते हुए कहता है कि, आपको यहां अयोध्या रहकर हमारी तीनों माँ, पिताजी और भाईयों की देखभाल या सेवा करनी है।साथ में यह भी कहता है कि, अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए आँखों में आँसू नहीं आने चाहिए। क्योंकि आँसू कर्तव्य से दूर करते है।
ऐसी बातें सुनकर उर्मिला की स्थिति कैसी हुई होगी? एक नई ब्याहता के लिए पति का वियोग केवल कुछ दिन का नही था बल्कि चौदह साल का था लेकिन दुख के पर्वत सहते हुए उर्मिला ने अपने कर्तव्यों का पालन दृढतापूर्वक किया जो अलौकिक है, आदर्श है।
भरत! कैकयी पुत्र! जब भरत को सिंहासन पर बिठाने के लिए माता कैकयी ने श्रीराम को वनवास भेजा यह भरत जानता है तो वह बहुत क्रोधित होता है। कैकयी को खरीखोटी सुनाता है, उसपर गुस्सा करता है। इसके पीछे मंथरा का हाथ है यह समझते ही उसे मारने दौडता है। साथही फौरन अरण्य में जाकर रामजी से प्रार्थना करता है कि उसे राज सिंहासन नही चाहिए। रामजी, वापस चले और राजगद्दी संभालें। लेकिन जब रामजी दृढतापूर्वक अयोध्या आने से इन्कार करते हैं तो रामजी की पादुका लेकर लौटकर अयोध्या आनेवाला भरत सिंहासन पर वह पादुका रखते हुए अयोध्या का राज्य चलाता है। बिना माँगे जिसे अयोध्या जैसे राज्य का सिंहासन मिलता है वह राजकुमार भरत उसे नकारता है। यह केवल भाई का प्यार नहीं है, यह बडे भाई के होते हुए छोटा सिंहासन पर नही बैठ सकता यह राजशिष्टाचार भी है। जिसे निभाने की भरत भरकस कोशिश करता है।
शत्रुघ्न! रामजी का छोटा भाई। वह तो कही ज्यादा सामने नहीं आता। वह भी राजकुमार था। उसकी भी कोई आशा-अपेक्षाएं होगी लेकिन जैसे बडे पेड के नीचे उगनेवाले छोटे पौधे की ओर कोई ध्यान नही देता वैसे कुछ शत्रुघ्न के साथ होता है। फिर भी वह खामोश रहता है, जो भी काम या जिम्मेदारी मिले उसे अपना कर्तव्य समझकर अच्छी तरह निभाता है।
नसीब, तकदीर कैसी होती है, यह बात रामायण कथा में बार बार सामने आती हैं। संतान प्राप्ति के लिए राजा दशरथ ने यज्ञ किया। जिसके प्रसाद से तीनों रानियों को संतान हुई लेकिन एक काली चील ने कैकयी के हाथों से प्रसाद छीन कर हजारों सालों से घोर तपस्या करने वाली अंजनी माता के हाथों में डाल दिया और चिरंजीवी हनुमान जी का जन्म हुआ। वह चील भी एक शापित नर्तकी थी। अंजनी के हाथों में प्रसाद डालते ही वह शाप मुक्त हो गई। यज्ञ किया था दशरथ जी ने लेकिन तीनों रानियों के साथ चील और अंजनी का उद्धार हो गया।‌ कभी कभी ऐसा भी होता है जब कोई अच्छा काम करता है तो उसका फल उसके साथ अन्य को भी मिलता है।
मनुष्य के हाथ में कुछ नहीं है। हम सब नियति के अधीन होते हैं। कोई कितनी भी बड़ी बड़ी बाते करें लेकिन वही होता है जो मंजुरे खुदा होता है। यह बात तब समझ में आती है, जब ऋषि विश्वामित्र स्वयं एक बड़े, महापराक्रमी योद्धा होकर भी यज्ञ में बाधा पहुंचाने वाले दानवों को मारने के लिए श्रीराम जैसे बालक का चयन करते हैं।
राक्षस मारिच, अहिल्या, गुहक, शुर्पणखा, जटायु, शबरी, वाली, सुग्रीव, मंदोदरी, बिभीषन, चंद्रसेना, जैसे पात्र हमें रामकथा में मिलते है, उसमे कोई शापमुक्ति के लिए राम की राह देखता है। कोई रावण को दुष्कर्म करने से परावृत्त करने की कोशिश करता हैं लेकिन रावण सब बातें अनसुनी करता हैं।
गर्व, गुंडागर्दी, अकड़न जैसी बातोंसे किसी का कोई फायदा नहीं होता बल्कि भारी नुकसान होता है। रावण बड़ा शिवभक्त था, महापराक्रमी वीर था। शायद यह बातें उसे भ्रमित करती थी,  क्योंकि जब सीता स्वयंवर हो रहा था तब राजा जनक ने रावण को आमंत्रित नही किया था। फिर भी रावण सीता जैसी सौंदर्यवान महिला अपने शयनकक्ष में होनी चाहिये इस लालसा से स्वयंवर में पहुंच गया लेकिन जो वह चाहता वह उसके नसीब में नहीं था। इसलिए बलशाली होकर भी वह वो धनुष नही उठा पाया और उसे अपमानित होना पडा। शक्ति से अधिक, या लालसा के अंकित होकर  कोई कार्य करने की कोशिश करते समय अपमान झेलना पडता है यह एक बडी सीख हम रावण की इस घटना से ले सकते है जो बहुत फायदेमंद है।
रामजी के चरित्र से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता हैं। विकल्प, संशय बसा बसाया घर उजाड़ने के लिए कारणीभूत होते है। कई संसार उद्ध्वस्त होते है। भाई-भाई, माँ- बेटा, पति-पत्नी ऐसे रिश्तों में दरारें पड़ती हैं। मंथरा जैसी एक दासी ने कैकयी के मन मे जो संशय बोया था, उस वजह से दशरथजी का पूरा परिवार बिखर गया। साथही कुछ बातें हमारे करनी के विपरीत होती हैं, तब तत्कालीन परिस्थितियां कारगर साबित होती हैं।
रामगोष्टी में बहुत सारे संदेश समाये हुए है। सीता देवी राजा जनक की बेटी, राजकुमारी! श्रीराम की पत्नी, अयोध्या की रानी होते हुए भी जब पति वनवास जाने को तैयार हो रहे थे और सीतामाता को अयोध्या रह कर माताओं का खयाल रखने को कह रहे थे, तो सीताजी ने विनम्रता से उसे नकारते हुए पति के साथ अरण्य में जाने की जिद की। वह कहने लगी,
"पति की सेवा यही पत्नी का धर्म होता है। जहां पति जाएगा, पत्नी को भी वहीं जाना चाहिए। पति महलों में रहे झोपड़ी मे रहे या घने जंगल में रहे, वहां पत्नी को साथ जाकर पति की सेवा करनी चाहिए, इसी मे उसे बडा आनंद और समाधान मिलता है।”
सीता की बातें सुनकर रामजी को सीता समेत लक्ष्मण को साथ लेकर वनवास मे जाना पडा। जब रावण सीता का अपहरण करता है तो सीता उसे वश नही होती। जब रामजी रावण का वध करते हैं और हनुमानजी सीता को लेकर रामजी के पास आते हैं तो प्रभु श्रीराम उन्हें अग्नि परीक्षा देने को कहते है। पति आज्ञा प्रमाण मानते हुए सीता वह अग्नि परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजरती हैं।
ऐसे कई प्रसंग है, जो केवल देखने या सुनने के साथ अनुकरणीय है। आज समाज में जो दुष्कर्म, स्वैराचार बढ रहा है उसे रोकना है तो रामकथा आदर्श है। अनेक संकटों से मुक्त होने का एकही मार्ग है... राम नाम!  ।। जय श्रीराम।।
              

नागेश सू. शेवाळकर

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