तुलसी और सूर और उनकी काव्य परंपरा

हिंदी साहित्य के शलाका पुरुष के रूप में हम तुलसीदास और सूरदास जी को याद करते हैं - इन दोनों की उपलब्धि केवल भक्ति रस और आध्यात्म तक सीमित नही है वरन् वे अपने दोहों में सांसारिक लोगों को जीवन का मार्ग भी दिखाते हैं। हिंदी साहित्य पंरपरा में कबीर से लेकर मीरा तक और प्रेमचंद से लेकर जयशंकर प्रसाद तक अनेक विभूतियां हैं, लेकिन रामचरितमानस लिखने वाले तुलसीदास सिर्फ एक ही हैं।

Jun 21, 2024 - 15:35
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तुलसी और सूर और उनकी काव्य परंपरा
Tulsi

तुलसीदास और सूरदास की लेखनी का कमाल दुनिया मानती है, अगर रत्नावली की फटकार न मिली होती तो तुलसी दास ताउम्र कभी कवित्त और साहित्य से रिश्ता न जोड़ते। तुलसीदास का जीवन सिर्फ एक कवि का जीवन नहीं है, उनका जीवन एक कवि से बढ़कर उस व्यक्ति की जीवन यात्रा का आख्यान है जिसमे डूबकर वे सारी दुनियादारी भूल गए।
तुलसीदास के जीवन की दास्तान एक ऐसी दास्तान है जो हमें इस अनूठे साहित्यकार को नई रोशनी मे देखने का शऊर देती है। 
रात के तम को चहचहाती किरणों से बुहारने सूरज आता है और दुनिया रेशमी रंग मे नहा उठती है, ठीक वैसे ही सूरदास ने अपनी अंधियारी दुनिया को कृष्ण की भक्ति मे ऐसा लीन कर दिया। कृष्ण के स्वरूप कृष्ण के आकार के न जाने कितने रंग सूरदास के दोहों में हमे मिलती है। 
सूरदास और तुलसीदास की सृजनात्मक प्रतिभा का कोई पारावार ही नही है। सूरदास और तुलसीदास के जीवन में बड़ा साम्य है, इन दोनों के जीवन मे कुछ भी निश्चित और सरल नहीं रहा।
हिंदी साहित्य के शलाका पुरुष के रूप में हम तुलसीदास और सूरदास जी को याद करते हैं - इन दोनों की उपलब्धि केवल भक्ति रस और आध्यात्म तक सीमित नही है वरन् वे अपने दोहों में सांसारिक लोगों को जीवन का मार्ग भी दिखाते हैं। हिंदी साहित्य पंरपरा में कबीर से लेकर मीरा तक और प्रेमचंद से लेकर जयशंकर प्रसाद तक अनेक विभूतियां हैं, लेकिन रामचरितमानस लिखने वाले तुलसीदास सिर्फ एक ही हैं। और सूर्य तक की आभा को चुनौती देने वाले परम तेजस्वी सूरदास भी केवल एक ही हैं। व्यक्तित्व और कृतित्व सूरदास और तुलसीदास का दूर-दूर तक साहित्यिक गलियारों में कोई सानी नही है, अनेक विद्वान मानते हैं सूरदास और तुलसीदास की काव्य परंपरा आज की पीढ़ी के लिए जीवन सूत्र है। 
सूरदास के जीवन में शारीरिक कमी थी उनकी आंखें, इसके बावजूद उन्होंने हर बाधा को पार किया। आज भी दुनिया उनके साहस, जुनून और उनकी जिजीविषा को सलाम करती है। 
भारतीय पंरपरा मे कर्म के सिद्धांत को बड़ी मान्यता दी गई है, रामचरितमानस मे वर्णित कर्म की विवेचना जग जाहिर है। 
हमारे संत फकीरों ने अपने -पने जीवन से प्रेरणा लेकर सत्य पर नये ढंग से रोशनी डाली है, वे स्पष्ट उदहारण देकर बताते हैं कि आपके भीतर कुछ ऐसा है जिसे आत्मा कहते हैं और सत्य आपको आत्मा तक पहुंचायेगा। 
तुलसीदास जी तो एक जगह लिखते भी हैं - 
"जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू 
सो तेहि मिलयी न कछु संदेहू”
तुलसीदास ने जीवन की उन घटनाओं पर अपनी दूर दृष्टि बड़ी बारीकी से डाली थी, खासकर उन घटनाओं पर जो अचानक घट जाती है और हम सब हतप्रभ रह जाते हैं। कभी अचानक हमसे जब हमारा कोई अति प्रिय बिछड़ जाता है तो कोई सांत्वना, कोई किनारा दूर-दूर तक नज़र नहीं आता, मगर तुलसीदास ने ऐसे ही किसी मौके के लिए लिखा था ताकि हर आदमी इसे भाग्य मे लिखा मान कर स्वीकार कर ले और अपने जीवन को और व्यथित न करे - उन्होंने कितना सच लिखा था। 
भाग्य के ऊपर भी वे लिखते हैं - हम सभी मनुष्य ईश्वर के भेजे हैं, हम क्या हैं, यह जानने के लिए अपने ही जीवन की गहराई में उतरना पड़ेगा, अपने भीतर की गहराई में जाने के लिए अपने अज्ञान को मिटाना होगा। 
यह ठीक है जो साधु संत लिख गये हैं, वो उनकी विचारधारा का ऐसा लेखा जोखा था जो जीवन के पथ मे जब हमें कांटे चुभे तो वे कांटे हमें कांटे न लगे बल्कि इन साधु संत के आदर्श के सहारे, हम अपने मन में तसल्ली और चेतना के उस स्तर को छू सके, जहां से हम अपने जीवन के आर-पार देखने की हिम्मत कर सके, साथ ही अपनी चेतना को जागृत कर सके और केवल भाग्य भरोसे न बैठे रहें, अपनी चेतना तक पहुंचना है तो जो प्रयोग संतों ने किया वो हमे भी करना होगा। 
भक्ति में प्रेम सर्वोपरि और एक तीव्र भावना है, सूरदास ने प्रेम और भक्ति को अलौकिक रूप में प्रस्तुत किया।
अलौकिक का मतलब होता है इस लोक से परे। गोपियों का श्रीकृष्ण से प्रेम अलौकिक है, पर क्या प्रेम सचमुच ऐसा ही होता है? गोपियां श्रीकृष्ण से जुड़ी हर चीज से प्रेम करती हैं, सूरदास के लिए प्रेम एक भावनात्मक तन्मयता से बनी एक राह है जो उन्हें श्री कृष्ण तक पहुंचाती है। 
सूरदास की गोपियां जैसा सोचती हैं वैसा ही महसूस करती हैं, विचारों से कही ज्यादा उनकी भावना जुड़ी है कृष्ण से।
सदियों से साधु और संत का जीवन एक पहेली सा रहा है। जाने कितने रहस्य समाय हैं जो आज भी अनसुलझे हैं, संत की दुनिया किन तत्वों से मिलकर बनी है, पूरी तरह जानना मुमकिन नही, मगर एक सच है कि साधु और संतों की दुनिया बिल्कुल अलग होती है, वैसे ही इनके मन भी अलग होते हैं, साधू और संतों ने मिलकर ज्ञान की कितनी परिभाषा खोजी, अनुभव के कितने निचोड़ साझा किये, तुलसीदास और सूरदास की काव्य परंपरा इसका उदाहरण हैं मगर सवाल वही कि कितने तर्क, कितने विश्वास कितनी व्याख्या, कितने सिद्धांत, और उनके उतने ही निष्कर्ष, मगर संतों की वाणी उतनी ही दुरूह समझने समझाने की जितनी भी कोशिश की गई यह संसार उतना ही उलझता चला गया। दर असल मन और बुद्धि के बीच मे जो छोटे-छोटे जाल बिखरे हैं, चेतना, विचार, अनुभूति और निर्णय क्षमता यहीं से जागृत होते हैं और यही चीज़ें एक आदमी को संत बनने की खूबी से जोड़े रखते हैं।
तुलसी और सूर और उनकी काव्य परंपरा -
तुलसीदास और सूरदास की लेखनी का कमाल दुनिया मानती है, अगर रत्नावली की फटकार न मिली होती तो तुलसी दास ताउम्र कभी कवित्त और साहित्य से रिश्ता न जोड़ते। तुलसीदास का जीवन सिर्फ एक कवि का जीवन नहीं है, उनका जीवन एक कवि से बढ़कर उस व्यक्ति की जीवन यात्रा का आख्यान है जिसमे डूबकर वे सारी दुनियादारी भूल गए।
तुलसीदास के जीवन की दास्तान एक ऐसी दास्तान है जो हमें इस अनूठे साहित्यकार को नई रोशनी मे देखने का शऊर देती है। 
रात के तम को चहचहाती किरणों से बुहारने सूरज आता है और दुनिया रेशमी रंग मे नहा उठती है, ठीक वैसे ही सूरदास ने अपनी अंधियारी दुनिया को कृष्ण की भक्ति मे ऐसा लीन कर दिया। कृष्ण के स्वरूप कृष्ण के आकार के न जाने कितने रंग सूरदास के दोहों में हमे मिलती है। 
सूरदास और तुलसीदास की सृजनात्मक प्रतिभा का कोई पारावार ही नही है। सूरदास और तुलसीदास के जीवन में बड़ा साम्य है,  इन दोनों के जीवन मे कुछ भी निश्चित और सरल नहीं रहा।
हिंदी साहित्य के शलाका पुरुष के रूप में हम तुलसीदास और सूरदास जी को याद करते हैं - इन दोनों की उपलब्धि केवल भक्ति रस और आध्यात्म तक सीमित नही है वरन् वे अपने दोहों में सांसारिक लोगों को जीवन का मार्ग भी दिखाते हैं। हिंदी साहित्य पंरपरा में कबीर से लेकर मीरा तक और प्रेमचंद से लेकर जयशंकर प्रसाद तक अनेक विभूतियां हैं, लेकिन रामचरितमानस लिखने वाले तुलसीदास सिर्फ एक ही हैं। और सूर्य तक की आभा को चुनौती देने वाले परम तेजस्वी सूरदास भी केवल एक ही हैं। व्यक्तित्व और कृतित्व सूरदास और तुलसीदास का दूर-दूर तक साहित्यिक गलियारों में कोई सानी नही है, अनेक विद्वान मानते हैं सूरदास और तुलसीदास की काव्य परंपरा आज की पीढ़ी के लिए जीवन सूत्र है। 
सूरदास के जीवन में शारीरिक कमी थी उनकी आंखें, इसके बावजूद उन्होंने हर बाधा को पार किया। आज भी दुनिया उनके साहस, जुनून और उनकी जिजीविषा को सलाम करती है। 
भारतीय पंरपरा मे कर्म के सिद्धांत को बड़ी मान्यता दी गई है, रामचरितमानस मे वर्णित कर्म की विवेचना जग जाहिर है। 
हमारे संत फकीरों ने अपने -पने जीवन से प्रेरणा लेकर सत्य पर नये ढंग से रोशनी डाली है, वे स्पष्ट उदहारण देकर बताते हैं कि आपके भीतर कुछ ऐसा है जिसे आत्मा कहते हैं और सत्य आपको आत्मा तक पहुंचायेगा। 
तुलसीदास जी तो एक जगह लिखते भी हैं - 
"जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू 
सो तेहि मिलयी न कछु संदेहू”
तुलसीदास ने जीवन की उन घटनाओं पर अपनी दूर दृष्टि बड़ी बारीकी से डाली थी, खासकर उन घटनाओं पर जो अचानक घट जाती है और हम सब हतप्रभ रह जाते हैं। कभी अचानक हमसे जब हमारा कोई अति प्रिय बिछड़ जाता है तो कोई सांत्वना, कोई किनारा दूर-दूर तक नज़र नहीं आता, मगर तुलसीदास ने ऐसे ही किसी मौके के लिए लिखा था ताकि हर आदमी इसे भाग्य मे लिखा मान कर स्वीकार कर ले और अपने जीवन को और व्यथित न करे - उन्होंने कितना सच लिखा था। 
भाग्य के ऊपर भी वे लिखते हैं -
हम सभी मनुष्य ईश्वर के भेजे हैं, हम क्या हैं, यह जानने के लिए अपने ही जीवन की गहराई में उतरना पड़ेगा, अपने भीतर की गहराई में जाने के लिए अपने अज्ञान को मिटाना होगा। 
यह ठीक है जो साधु संत लिख गये हैं, वो उनकी विचारधारा का ऐसा लेखा जोखा था जो जीवन के पथ मे जब हमें कांटे चुभे तो वे कांटे हमें कांटे न लगे बल्कि इन साधु संत के आदर्श के सहारे, हम अपने मन में तसल्ली और चेतना के उस स्तर को छू सके, जहां से हम अपने जीवन के आर-पार देखने की हिम्मत कर सके, साथ ही अपनी चेतना को जागृत कर सके और केवल भाग्य भरोसे न बैठे रहें, अपनी चेतना तक पहुंचना है तो जो प्रयोग संतों ने किया वो हमे भी करना होगा। 
भक्ति में प्रेम सर्वोपरि और एक तीव्र भावना है, सूरदास ने प्रेम और भक्ति को अलौकिक रूप में प्रस्तुत किया।
अलौकिक का मतलब होता है इस लोक से परे। गोपियों का श्रीकृष्ण से प्रेम अलौकिक है, पर क्या प्रेम सचमुच ऐसा ही होता है? गोपियां श्रीकृष्ण से जुड़ी हर चीज से प्रेम करती हैं, सूरदास के लिए प्रेम एक भावनात्मक तन्मयता से बनी एक राह है जो उन्हें श्री कृष्ण तक पहुंचाती है। 
सूरदास की गोपियां जैसा सोचती हैं वैसा ही महसूस करती हैं, विचारों से कही ज्यादा उनकी भावना जुड़ी है कृष्ण से।
तुलसी और सूर और उनकी काव्य परंपरा -
तुलसीदास और सूरदास की लेखनी का कमाल दुनिया मानती है, अगर रत्नावली की फटकार न मिली होती तो तुलसी दास ताउम्र कभी कवित्त और साहित्य से रिश्ता न जोड़ते। तुलसीदास का जीवन सिर्फ एक कवि का जीवन नहीं है, उनका जीवन एक कवि से बढ़कर उस व्यक्ति की जीवन यात्रा का आख्यान है जिसमे डूबकर वे सारी दुनियादारी भूल गए।
तुलसीदास के जीवन की दास्तान एक ऐसी दास्तान है जो हमें इस अनूठे साहित्यकार को नई रोशनी मे देखने का शऊर देती है। 
रात के तम को चहचहाती किरणों से बुहारने सूरज आता है और दुनिया रेशमी रंग मे नहा उठती है, ठीक वैसे ही सूरदास ने अपनी अंधियारी दुनिया को कृष्ण की भक्ति मे ऐसा लीन कर दिया। कृष्ण के स्वरूप कृष्ण के आकार के न जाने कितने रंग सूरदास के दोहों में हमे मिलती है। 
सूरदास और तुलसीदास की सृजनात्मक प्रतिभा का कोई पारावार ही नही है। सूरदास और तुलसीदास के जीवन में बड़ा साम्य है, इन दोनों के जीवन मे कुछ भी निश्चित और सरल नहीं रहा।
हिंदी साहित्य के शलाका पुरुष के रूप में हम तुलसीदास और सूरदास जी को याद करते हैं - इन दोनों की उपलब्धि केवल भक्ति रस और आध्यात्म तक सीमित नही है वरन् वे अपने दोहों में सांसारिक लोगों को जीवन का मार्ग भी दिखाते हैं। हिंदी साहित्य पंरपरा में कबीर से लेकर मीरा तक और प्रेमचंद से लेकर जयशंकर प्रसाद तक अनेक विभूतियां हैं, लेकिन रामचरितमानस लिखने वाले तुलसीदास सिर्फ एक ही हैं। और सूर्य तक की आभा को चुनौती देने वाले परम तेजस्वी सूरदास भी केवल एक ही हैं। व्यक्तित्व और कृतित्व सूरदास और तुलसीदास का दूर-दूर तक साहित्यिक गलियारों में कोई सानी नही है, अनेक विद्वान मानते हैं सूरदास और तुलसीदास की काव्य परंपरा आज की पीढ़ी के लिए जीवन सूत्र है। 
सूरदास के जीवन में शारीरिक कमी थी उनकी आंखें, इसके बावजूद उन्होंने हर बाधा को पार किया। आज भी दुनिया उनके साहस, जुनून और उनकी जिजीविषा को सलाम करती है। 
भारतीय पंरपरा मे कर्म के सिद्धांत को बड़ी मान्यता दी गई है,  रामचरितमानस मे वर्णित कर्म की विवेचना जग जाहिर है। 
हमारे संत फकीरों ने अपने -पने जीवन से प्रेरणा लेकर सत्य पर नये ढंग से रोशनी डाली है, वे स्पष्ट उदहारण देकर बताते हैं कि आपके भीतर कुछ ऐसा है जिसे आत्मा कहते हैं और सत्य आपको आत्मा तक पहुंचायेगा। 
तुलसीदास जी तो एक जगह लिखते भी हैं - 
"जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू 
सो तेहि मिलयी न कछु संदेहू”
तुलसीदास ने जीवन की उन घटनाओं पर अपनी दूर दृष्टि बड़ी बारीकी से डाली थी, खासकर उन घटनाओं पर जो अचानक घट जाती है और हम सब हतप्रभ रह जाते हैं। कभी अचानक हमसे जब हमारा कोई अति प्रिय बिछड़ जाता है तो कोई सांत्वना, कोई किनारा दूर-दूर तक नज़र नहीं आता, मगर तुलसीदास ने ऐसे ही किसी मौके के लिए लिखा था ताकि हर आदमी इसे भाग्य मे लिखा मान कर स्वीकार कर ले और अपने जीवन को और व्यथित न करे - उन्होंने कितना सच लिखा था - 
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। 
को करि तर्क साखा।। 
अस कहि लगै जपन हरिनामा।।
भाग्य के ऊपर भी वे लिखते हैं - 
"कर्म गति टारे नहीं टारी
मुनि वशिषठ से पंडित ज्ञानी शोध के लगन धरी
सिया हरण मरण दशरथ को वन में विपति परी।।”
हम सभी मनुष्य ईश्वर के भेजे हैं, हम क्या हैं, यह जानने के लिए अपने ही जीवन की गहराई में उतरना पड़ेगा, अपने भीतर की गहराई में जाने के लिए अपने अज्ञान को मिटाना होगा। 
यह ठीक है जो साधु संत लिख गये हैं, वो उनकी विचारधारा का ऐसा लेखा जोखा था जो जीवन के पथ मे जब हमें कांटे चुभे तो वे कांटे हमें कांटे न लगे बल्कि इन साधु संत के आदर्श के सहारे, हम अपने मन में तसल्ली और चेतना के उस स्तर को छू सके, जहां से हम अपने जीवन के आर-पार देखने की हिम्मत कर सके, साथ ही अपनी चेतना को जागृत कर सके और केवल भाग्य भरोसे न बैठे रहें, अपनी चेतना तक पहुंचना है तो जो प्रयोग संतों ने किया वो हमे भी करना होगा। 
भक्ति में प्रेम सर्वोपरि और एक तीव्र भावना है, सूरदास ने प्रेम और भक्ति को अलौकिक रूप में प्रस्तुत किया।
अलौकिक का मतलब होता है इस लोक से परे। गोपियों का श्रीकृष्ण से प्रेम अलौकिक है, पर क्या प्रेम सचमुच ऐसा ही होता है? गोपियां श्रीकृष्ण से जुड़ी हर चीज से प्रेम करती हैं, सूरदास के लिए प्रेम एक भावनात्मक तन्मयता से बनी एक राह है जो उन्हें श्री कृष्ण तक पहुंचाती है। 
सूरदास की गोपियां जैसा सोचती हैं वैसा ही महसूस करती हैं, विचारों से कही ज्यादा उनकी भावना जुड़ी है कृष्ण से।
तुलसीदास एक विराट व्यक्तित्व का नाम है, तो सूरदास आज भी जनमानस के ह्रदय मे चमकते सूरज की तरह विद्धमान है। तुलसीदास ने अपने दोहों में जीवन के हर पक्ष को यूँ उजागर किया कि उनके दोहे हर वर्ग और जन-जन के जीवन मे घटी कोई घटना सरीखे लगते हैं। तभी तो उनके दोहों की आज भी प्रासंगिकता बनी हुई है। हनुमान चालीसा में उनके लिखे कुछ दोहों से इस पक्ष को हम पूर्ण रूप से समझ सकते हैं -
"प्रभु मुद्रिका मेल मुख माहीं
जलधि लाघिं गये अचरज नाही
दुर्गम काज जगत के जेते 
सुगम अनुग्रह तुम्हारे तेते
राम दुआरे तुम रखवारे
होत न आज्ञा बिन पैसारे
सब सुख लहै तुम्हारी सरना
तुम रक्षक काहू को डरना”
उन्होने अपने जीवन की दुखद घटना को किसी के साथ नही बांटा, बल्कि रत्नावली के रूखे व्यवहार ने उनके ज्ञान चक्षु को खोल दिया- भक्ति के मार्ग पर चलते हुए, जीवन कर्म को कैसे साधा यह तुलसीदास द्वारा लिखित रामचरितमानस को पढ़कर हम बखूबी समझ सकते हैं।
जीवन को चलाने के और मनुष्य के मूल स्वभाव के बहुत से उदहारण हमें गोस्वामी जी द्वारा लिखित हनुमान चालीसा और रामचरित मानस के दोहों में देखने को मिलती है। ऐसे जीवन प्रबंधन के बहुत सारे सूत्र रामचरितमानस के हर दोहों में कमोबेश देखने को मिलते हैं। साधू संत गोस्वामी जी के प्रिय पात्र हैं। साधू संत के चरित्रों के उल्लेख में जो सबसे अहम पहलू है, वो यह है कि साधू की परिपूर्णता केवल साधू होने में नहीं है - तुलसीदास जी के साधू बस साधू नहीं है वे संत भी है और सच्चा साधू तो वही है जिसने संत होने की गति को साध लिया। संत होने का मतलब यह नही कि आप बस संत होकर रह गए और दीन दुनिया से आपको कोई मतलब न रह गया हो। संत वह जो मन से भी संत हो। संत का चरित्र साधू के चरित्र से बिल्कुल अलहदा होता है। साधू तो अपने वेष से पहचाना जाता है मगर संत का कोई वेष नही होता। संत होना बहुत गहराई की बात है, साधू होना बहुत सरल है मगर संत होना बहुत जटिल।
तुलसीदास जी की काव्य परंपरा प्रबंधन के गुर सिखाती है, यह एक ऐसी तलाश है जिससे हमें पता चलता है कि हम कहां से आये हैं और कहाँ जा रहे हैं।
तुलसीदास जी के दोहों मे संसार के कण-कण में छिपी तपिश उजागर व्याप्त है। उनकी स्नेहिल लेखनी ने उन दोहों को अमर कर दिया। 
मध्यकालीन के भक्ति कालीन कवियों में सूरदास ने जो बिन आंखों से देख कर लिख दिया उसे पढ़ते हुए मन‌ यही कहता है कि अपनी काव्य परंपरा के बहाने वे हमारे ह्रदय पर जादू सा करते चलते हैं।
सूरदास ने अपने दोहों मे कृष्ण भगवान का विशिष्ट रूप प्रस्तुत किया है। 
भक्ति कालीन के कवियों ने अपनी काव्य परंपरा को इतना समृद्ध किया कि उसमे सूरदास का नाम हम प्रमुखता से ले सकते हैं। उनके दोहों में भारतीय संस्कृति समाई हुई है। सूरदास उदात्त आत्मा वाले कवि हैं, मनुष्य होकर भी वे श्रीकृष्ण के सौंदर्य को झुठलाते नहीं, फिर भी आंखें तो आंखें हैं, माया-मोह में सनी और डूबी हुई, जो अपना एक अलग ही संसार रच डालती है। 
तभी वे लिखते हैं - 
"मैया मोरी मैं नही माखन खायो या फिर 
निर्गुण कौन देस को वासी" 
उनके दोहों में भक्ति रस के साथ मधुबन की उदास गोपिकाएं भी हैं और अपने दाऊ के लिए बड़ी ही मधुर शिकायत भी।
सदियों से साधु और संत का जीवन एक पहेली सा रहा है। जाने कितने रहस्य समाय हैं जो आज भी अनसुलझे हैं, संत की दुनिया किन तत्वों से मिलकर बनी है, पूरी तरह जानना मुमकिन नही, मगर एक सच है कि साधु और संतों की दुनिया बिल्कुल अलग होती है, वैसे ही इनके मन भी अलग होते हैं, साधू और संतों ने मिलकर ज्ञान की कितनी परिभाषा खोजी, अनुभव के कितने निचोड़ साझा किये, तुलसीदास और सूरदास की काव्य परंपरा इसका उदाहरण हैं मगर सवाल वही कि कितने तर्क, कितने विश्वास कितनी व्याख्या, कितने सिद्धांत, और उनके उतने ही निष्कर्ष, मगर संतों की वाणी उतनी ही दुरूह समझने समझाने की जितनी भी कोशिश की गई यह संसार उतना ही उलझता चला गया। दर असल मन और बुद्धि के बीच मे जो छोटे-छोटे जाल बिखरे हैं, चेतना, विचार, अनुभूति और निर्णय क्षमता यहीं से जागृत होते हैं और यही चीज़ें एक आदमी को संत बनने की खूबी से जोड़े रखते हैं। अनुपम उपमाओं के धनी इस कवि की माने तो संसार का सबसे बड़ा जीवित सत्य और कुछ नहीं बस भक्ति है। भक्ति सिर्फ सौंदर्य लेकर सूरदास के दोहों मे नहीं उतरता वह अभिप्राय और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के साथ 'आइकन' बनकर उभरता है। सूरदास की रचनाओं में रहस्यवाद और प्रकृति के विशिष्ट संबंधों की कविता रचते हैं, जिस धागे से सूरदास ने अपने दोहे में काव्य को बांधा है, उस धागे से आज तक हम सभी बंधे हैं ।
सूरदास ने ऐसी ही किसी अवस्था में लिखा होगा - "ज्यों गूंगो मीठे फल कौ रस... और हम सबके मन ने भी सूरदास के हर दोहे को अपने अंतस में बसा लिया।

सृष्टि उपाध्याय

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