तीज त्योहार और उत्सव में होली के विविध स्वरूप

फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन इसका शुभारंभ होता है। भोजपुरी में इसे ताल ठोंकना कहा जाता है। होली का प्रधान विषय श्रृंगार होता है। इनके होली गीतों में राधा- कृष्ण के परस्पर होली खेलने का चित्रण होता है। ढफ और ढोलक बजाकर ऊंचे स्वर में होली गाने का प्रचलन है। इसमें मात्राओं तथा अक्षरों की सीमा नहीं होती। इन गीतों की गति भाषा का बंध और स्वरों का संधान मधुर होता है।

Apr 17, 2024 - 15:18
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तीज त्योहार और उत्सव में होली के विविध स्वरूप
HOLI

फाल्गुन मास होली की पूर्णिमा को होलिका दहन किया जाता है। फाल्गुन मास में इस त्योहार को पूरे माह तक मनाया जाता है। होली मस्ती का त्योहार है। यह राष्ट्रीय पर्व है। इसलिए पूरे देश में हर्षोल्लास से मनाया जाता है।  गाँवों में तो पूरे माह प्रतिदिन रात्रि में भोजन से निवृत्त होकर ग्रामीण एकसाथ बैठकर फाग गाते हैं। अलग अलग क्षेत्रों में होली अलग अलग तरीकों से मनाई जाती है। मैं वर्णन कर रही हूँ उत्तर भारत के कुछ प्रमुख क्षेत्रों में होली के गीत और फाग का।

ब्रज मण्डल में होली:
ब्रज मण्डल में होली के त्योहार पर अनोखी छटा रहती है। वहाँ आज़ भी परिकल्पना की जाती है कि कृष्ण गोपियों के संग रंग, अबीर, गुलाल से होली खेलते हैं। राजपूती होली, मालवी होली, भदावरी होली, सभी होली अपने अपने ढंग की अलग-अलग होली हैं किन्तु इनका उद्देश्य एक है - प्रेमभाव के साथ रंग खेलें, जीवन में उत्साह, उमंग, उल्लास बनाये रखें।

जीजा-साली, ननदोई-भावज, देवर-भाभी, जीजा-सलहज में ठिठोली भरी होली होती है। नंदगांव के प्रमुख ग्वाले बन जाते हैं और बरसाने की स्त्रियां गोपियाँ। फिर वे पुरुषों को जी भर कर छकाती हैं। इसी परम्परा का निर्वाह सभी क्षेत्रों में रिश्तों संबंधों के माध्यम से होता है।
एक गीत जिसमें राधा जी के द्वारा कहा गया है कि
ऐसे स्याम खिलारी रंग में रंग डारी
काहे को पचरंग बनावै, काहे की पिचकारी,
रंग में -
केसर को पचरंग बनायौ
रूपे की पिचकारी रंग में रंग डारी।
होली के अवसर पर जो गीत गाये जाते हैं उनमें चाँचर, सुखैया की होली, पतोला की होली, ईसरी की फाग आदि प्रसिद्ध हैं। गीत गाते समय ढफ, झाँझर, ढोलक, मंजीरा, चंग जैसे वाद्यों का प्रयोग होता है। ढोलक की थाप और मृदंग की लय पर लोग नाच उठते हैं। ढफयायी होली गीतों का ही प्रकार है। गीतों में श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य रसों का भी प्रयोग होता है। कुछ गीत भक्ति रस प्रधान राधा- कृष्ण पर आधारित होते हैं, जैसे– 
नैंक ठाढ़े रहियो कान्हा रंग डारूंगी,
रंग डारूंगी - डारूंगी रंग डारूंगी।
बहुत दिनन में अवसर आयो,
सिगरी कसर निकारूंगी।
लाल गुलाल मलूं, मुख तेरे,
गालन गुलछा मारूंगी।
हो कान्हा नैंक ठाढ़े रहियो

चम्बल संभाग में में होली:
चम्बल संभाग से भदावर क्षेत्र में सुखैया की होली के गीतों में विविधता पाई जाती है। पारिवारिक तथा सामाजिक असंगतियों का चित्रण भी इनमें रहता है। सुखैया को राग राशियों का अच्छा ज्ञान था। एक श्रेष्ठ गायक थे। इसी कारण होली गीत शास्त्रीय धुनों पर आधारित हैं।
बरि ज इयो अँधिरिया रैन
हों तो जेठ उपरि गिरि परी।
गैल में खटिया बिछी,
बिहाँ नींद आँखि में भरी,
सुनि दोरनिया
मोपे मुख न दिखायो जाय।
सरम के मारे भीतर जाय परी – 
ध प मां, प म ग, म ग रे, ग रे सा ।
बुंदेलखंड में में होली:
लोकगायक ईसुरी की फाग गाई जाती है।
वे होली का त्योहार प्रेम, सद्भावना और एकता का संदेश देकर धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई सभी मिलजुल कर ख़ुशी मनाते हैं।
होली की यह कहावत बड़ी लोकप्रिय है - "होरी में ससुरा दिवर लागे" होली खेलने वाले सारी मर्यादाएं ताक पर रखकर खेलते हैं। इस दिन गाँवो में जगह-जगह नोटंकी और तरह तरह के स्वांग रचकर लोग घूमते हैं, रसिया गाते हैं।

भोजपुरी क्षेत्र में होली:
इसे फागुआ कहा जाता है। फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन इसका शुभारंभ होता है। भोजपुरी में इसे ताल ठोंकना कहा जाता है। होली का प्रधान विषय श्रृंगार होता है। इनके होली गीतों में राधा- कृष्ण के परस्पर होली खेलने का चित्रण होता है। ढफ और ढोलक बजाकर ऊंचे स्वर में होली गाने का प्रचलन है। इसमें मात्राओं तथा अक्षरों की सीमा नहीं होती। इन गीतों की गति भाषा का बंध और स्वरों का संधान मधुर होता है। इन लोकगीतों में "कबीर" एक प्रतीक बन गया है।
भोजपुरी में गीत गाये जाते हैं
गोरी कहँमा गोद उलू गोदना
बहिंयाँ गोदुउली छतियाँ गोदुउली।
और
जनकपुर रंग महल होरी
खेलधि दशरथ लाल
लय पिचकारी राम लखन देउ
भरि मुख मारत गुलाल।

मालवा में होली:
मालवा में होली बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है। वहाँ होली में लालित्य रस तथा उछाह का अभूतपूर्व सम्मिश्रण रहता है। पुरुष तथा स्त्रियाँ अलग-अलग समूहों में होली खेलते हैं। उनके गीत भिन्न-भिन्न श्रेणी के होते हुए भी भाव की दृष्टि से एक जैसे होते हैं। मालवी गीत राधा कृष्ण, शिव पार्वती, प्रणय संबंधी, चन्द्र सखी और फुटकर गीत होते हैं, जैसे -  
काजलियो साड़ी रे ने छोटी जल भरवाने चाली रे।
आगे मिल गया छैल भंवर नई दाँतन भोले रे, लाजाँ मर गई रे।
और गीत जो राधा कृष्ण के माध्यम से है।
जैसे -
गेल म्हारी छोड़ो
डगर म्हारी छोड़ो
श्याम भींज जावांगा नैनन में
नैनन में जो थारे मन में होली खेलने की
श्याम मने ले चलो कुंजन में।

होलिका दहन के दूसरे दिन परिवार लोगों तथा रिश्तेदारों के घर रंग डालने जाते हुए गीत भी गाते चलते हैं। गीतों का मूल स्वर ननद का बरजना रहता है।
ननद बाई म्हाने बरजे मति
म्हे तो बंसी वाले से खेलूंगी फाग।

झाला के गीतों में प्रियतम के मनोभावों को व्यक्त किया जाता है। नर्मदा का रंग भरपूर लिया जाता है। केसर का रंग घोला जाता है। कंचन की पिचकारी और गुलसारी से भींजना रहता है।
गीत 
नरबदा के रंग भरी पिचकारी,
बंसी वाला से खे लाँगा फाग।

राजस्थान में होली:
राजस्थान में होली के त्योहार पर लड़कियाँ और स्त्रियाँ गहनों तथा वस्त्रों से सजकर गाती और नाचतीं हैं। इस समय एक विशेष प्रकार का नृत्य होता है जिसे' लूर 'या "लूहर' कहते हैं। राजस्थान की भूमि को रंगीली भूमि कहा जाता है। यहाँ हर समय पर्व होता है।हर शाम संगीत। मस्ती भरे गीत रंग बिखेरते हैं।
ऐसो रंग मलो रे सजना
छूटे न लाख उपाय।

यहाँ होली के दस दिन पहले से गेर नृत्य प्रारम्भ हो जाता है। होली के दूसरे दिन 'धूलेड़ी' से अनेक स्थानों पर इसका आयोजन होता है। ढोलक की थाप पर होने वाला नृत्य बड़ा ही चमत्कारी होता है। यह थाप 'डाका' कहलाती है। एक एक व्यक्ति लगातार आठ-आठ घण्टे तक नाचता है।

इस प्रकार रंग, उमंग, उत्साह से भरकर प्रेम-भाव से मिलजुल होली मनाते हैं। होली में नाच, गाने, पिचकारी और रंगों का अभूतपूर्व सम्मिश्रण रहता है।
गीत यूं गाये जाते हैं -
रंगीली चंग बाजणूं
म्हारे बीरे जी मढ़ायो चंग बाजणूं
म्हारे रेगर मैंढ़के लायो जे
रंगीली रंग बाजणूं।

परन्तु होली में बैरभावना नहीं रखना चाहिये। होली के बहाने दुश्मनी भी लोग निकालते हैं।  पर ये त्योहार तो मेल मिलाप सिखाता है। दुश्मन भी गले मिलकर होली खेलें, यह सिखाता है।

सुनीति बैस

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