दिल से हिंदी
लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वो क्या लिखेंगे?
आजकल (१४ – २८ सितंबर) सरकारी तौर पर हर सरकारी संस्थान में हिंदी विभाग हिंदी पखवाड़ा मनाता है। इसी क्रम में १४ सितंबर हिंदी दिवस के अवसर पर एक सरकारी कार्यक्रम में पश्चिम दिल्ली जाना हुआ और इस कार्यक्रम का संचालन करने वाली संस्था जिनमें ज्यादातर हिंदी भाषी लोग है और हिंदी भाषी क्षेत्र से आते है। कार्यक्रम में शामिल होकर अच्छा प्रतीत हुआ और लगा कि कुछ लोग है जो दिल से हिंदी दिवस या हिंदी के प्रति समर्पित है और हिंदी को आगे बढ़ते देखना चाहते है। मैं भी देखना चाहता हूँ, सिर्फ हिंदी को ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं को भी आगे बढ़ते और फलते-फूलते देखना चाहता हूँ। मैं पिछले कुछ सालों से इसी कोशिश में लगा रहता हूँ की चाहे कोई भी भाषा या बोली क्यों ना हो सभी को फैलने-फूलने का अधिकार है। यही वजह है कि मैंने खुद कैथी में लिखना शुरू किया और अंगिका में भी जो मेरी बचपन की बोली है और पुरे अंग क्षेत्र में बोली जाती है, उसमे भी कुछ कुछ लिखता रहता हूँ। कल जब कार्यक्रम स्थल पर जा रहा था तो एक बंधू मिले गाज़ीपुर के मुझसे पूछा की आप कहाँ से हो तो आदतन मैंने कटिहार, बिहार बोला तो उसने कहा की कटिहार में जो बोली, बोली जाती है उन्हें बड़ी अच्छी लगती है मैंने पूछा ऐसा क्यों तो उन्होंने कहा हमारे आस पास में कई लोग कटिहार के रहते है और मैं कई सालों से सुनता आ रहा हूँ, और इसमें काफी मुलायमपन महसूस होता है, जबकि वे अपनी भोजपुरी जो गाज़ीपुर और उसके आस पास बोली जाती है उनके अनुसार खड़ी बोली जाती है जो उन्हें सही नहीं लगता है उनका कहना था की उनके बरेली की भोजपुरी अच्छी लगती है। तो समझ आया की दुनिया कितनी छोटी है एक व्यक्ति गाज़ीपुर का रहता है गौतम बुद्ध नगर में और उसे कटिहार की बोली पसंद है तो हिंदी को बचाने की कवायद तभी सफल होगी जब हम मिटटी से जुडी कई बोलियों को बचा कर रख पाएंगे। क्योंकि हिंदी इतनी समृद्ध ऐसे ही नहीं हो गयी है जिसके अंदर ८ लाख से ज्यादा शब्द हो वो भाषा तो कमजोर हो नहीं सकती उसको बचाने की कवायद में आमूल चल परिवर्तन की आवश्यकता है।
मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में “लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वो क्या लिखेंगे?” शायद वही दर्द है मेरे अन्दर मेरे हिंदी भाषा के प्रति और मेरी अपनी बोली अंगिका के प्रति भी है, जो कभी कभी किसी लेख या कविता के माध्यम से निकल जाती है । कल कार्यक्रम में सबने लगभग यही बात कही की आप जहाँ भी हो जैसे भी अपना योगदान अवश्य देने की कोशिश करिए चाहे जितना समय मिलता हो उसी में और एक भाषाविद जो हिंदी में काफी अच्छा लिखते है उनसे भी यही सुनने को मिला हिंदी कभी हिंगलिश से समृद्ध नहीं होगी और ना ही अंग्रेजी को अपनाने से, अंग्रेजी की अपनी अहमियत है लेकिन अपनी स्वभाषा जिसे हिंदी के रूप में हम गलती से राष्ट्रभाषा कहते है वह राजभाषा है। हम हिंदी भाषियों की यही दिक्कत है की हमें लगता है की हम हिंदी भाषी है तो हमें हिंदी आती ही है और यही सबसे बड़ी भूल है। आजकल तो हिंदी को रोमन लिपि में लिखा जाता है और वे भी संभ्रांत कहलाने लगे है। क्योंकि वे रोमन में हिंदी लिखते है जबकि किसी भी स्मार्टफोन या लैपटॉप या कंप्यूटर में आसानी से हिंदी या कोई भी अन्य भारतीय भाषा लिखी जा सकती है। समस्या हमारे अपने अन्दर घर कर गयी है जो काफी जटिल है, जटिल इसीलिए है क्योंकि हम अपने बच्चों को हिंदी में शिक्षा देने के बजाय उसे अंग्रेजी में दिलाने लगे है तथा उनका लगाव भी अपनी बोली के प्रति नहीं जगा पाते है तो हिंदी तो बहुत दूर की बात है। और जो हिंदी के पैरोकार है वे भी खुद अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम विद्यालय में पढ़ाने लगे है सवाल है की वे कब अपने बच्चो के अंदर हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा के प्रति लगाव पैदा करेंगे।
आपकी अपनी भाषा या बोली क्षेत्रीय है लेकिन हम उसमें बोलने से हिचकिचाते है जैसा मैंने ऊपर लिखा की एक गाजीपुर का व्यक्ति जब मुझसे मिला तो मैंने उसे बताया की अंगिका जो हमारी बोली है वह आज से नहीं सदियों से अंग की मिटटी में पली बढ़ी लेकिन हमारे अपने क्षेत्र से निकलते ही हमारी बोली समाप्त होती चली गयी और हमारी अगली पीढी को तो उसके बारे में जानकारी ही नहीं है। तो हम कैसे कहेंगे की हमारी अगली पीढी हमारे साहित्य या भाषा या बोली को बचाने में हमारी सहायक होगी। हमें अपनी बोली के प्रति जो लज्जा आती है पहले वह मिटाना ही सबसे पहली सीढ़ी होगी, किसी भी बोली और भाषा के प्रति उसमे सहायक बनने का वरना बस ऐसे ही हिंदी दिवस या ऐसे किसी मौके पर किसी की कोई भी दो लाइन प्रतिलिपि कर अपना नाम डाल इतिश्री कर लेंगे इससे किसी भी भाषा और बोली को हम समृद्ध नहीं करेंगे वरन उसे क्षय के रास्ते पर लेकर जायेंगे।
कुछ लोग कहते है मेरी कविताओं में अशुद्धियाँ होती है जिसे मैं स्वीकारता हूँ और उसका तत्काल निष्पादन करने की कोशिश करता हूँ जबतक अशुद्धियाँ नहीं होंगी तो मैं या कोई भी सीखेंगे कैसे? क्या जो हिंदी में या अंग्रेजी में या संस्कृत या प्राकृत में या कैथी में उच्च शिक्षित है वे गलती नहीं करते है अवश्य करते होंगे और करते भी है और ऐसा मैंने बड़े-बड़े विद्वानों को मंचों से स्वीकारते सूना है गलती होने स्वाभाविक है लेकिन क्या आप उस गलती से सीख पाते है यह बड़ी बात होती है। बदलाव मनुष्य के प्रकृति का नियम है इसीलिए हम मनुष्य है और हमें इसके साथ जीने आना चाहिए। क्या वे इस बात को स्वीकारते है की उनसे भी कई त्रुटियाँ होती है शायद नहीं क्योंकि उनका उच्च शिक्षित होना उन्हें ऐसा करने से रोकता है। हिंदी या किसी भी स्थानीय बोली की समृद्धि हम जैसे नौसीखिए से ही होनी है किसी प्रकांड शिक्षित व्यक्ति से भाषा या साहित्य में समृद्धि संभव है उसे जन-जन तक ले जाना मुश्किल है क्योंकि उनकी बातें या उनकी कवितायें समझने के लिए भी उनके इस्तेमाल किये शब्दों का ज्ञान होना माँगता है। हम जैसे नौसीखिए लोगों की कविताये बिना पैसे खर्च किये लोग पढ़ते है आपकी कविताएं और लेख पढ़ने और सुनने के लिए पैसे खर्च करने पड़ते है जो सामान्य जन के बस की बात नहीं है। मुझे पता है जैसे लिखता हूँ सही-गलत लोग पकड़ते है की मैं कहना क्या चाहता हूँ मेरी बातों को समझने के लिए शब्दकोष की जरुरत नहीं पड़ती है। आखिर में मैं डॉ बिरेन्द्र कुमार ‘चन्द्रसखी’ जी को उद्धृत करना चाहूँगा। उनके शब्दों में “इस देश की मिटटी से अवश्य जुड़िये हिंदी अपने आप आ जायेगी। चन्दन की बिंदी लगाइए या ना लगाइए लेकिन इस देश की मिटटी की बिंदी अवश्य लगाइए”।
©️✍️शशि धर कुमार
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