प्रिय ! वर मांगो
प्रिय ! वर मांगो
देखो दीप्ति
सुनो यह नाद
उठो वत्स !
उठो प्रहलाद !
सुन विलक्षण वाणी
बालक द्वार तक आया
देख प्रकाशित पाद वह घबराया,
एक सस्मित भर बोले भगवन्
तुम अरुण करुण संधीर हो,
बड़े ही साहसी वीर हो,
आलोकित लोचन में भरा आह्लाद,
कमल चरण में गिरा प्रहलाद,
प्रभु ने कहा: तुम मुझमें देखो !
भूमंडल, गगनपथ ,तारागण विशाल,
मैं ही जीवन का आयाम,समय त्रिकाल,
प्रेम मुझमें,क्रोध मुझमें,
उल्लास मुझमें,शोध मुझमें,
मुझमें हर्ष विषाद,
देखो वत्स प्रहलाद !
बहती पावन रसधार मुझमें,
रीति,ध्वनि,अलंकार मुझमें,
प्रत्येक अवतार,मेरे अनुसार,
जीते और जलते हैं,
क्षितिज सब मुझसे चलते हैं,
किंतु,परन्तु,यद्यपि,तथापि,
संवाद,अपवाद,प्रतिवाद मुझमें,
यति,गति, लय,अवसाद मुझमें,
देखो तुम ! यह बंदीगृह,
उसमें खड़ा प्रहलाद मुझमें,
नीर मुझमें,सब पीर मुझमें,
जलती ज्वाला,उठता प्रलय,
यह देखो ! सृष्टि का अंतिम समय,
मैं ही रूप प्रचंड हूं
पाषाण खंड खंड हूं,
मैं ही कृपा–दंड हूं,
दीप–ज्योति अखंड हूं,
निद्रा मुझमें,जागरण मुझमें,
मैं ही नर हूं,नारायण मुझमें,
शैली,प्रतीक,संवेदना,बिम्ब मुझमें,
गंगा, यमुना, सकल, सिंध मुझमें,
यह विरह – वेदना, शोक मुझमें,
अति अंधकार , आलोक मुझमें,
कहो क्या तुम्हें दूं ?
जीवन का आस्वाद
वर मांगो प्रहलाद !
हे क्याधुपुत्र !
क्या तुम्हें है याद ?
जब होलिका,
दहन के व्योज से आयी थी,
निज ज्वाला की वेग में,
वह तुम्हें न जला पायी थी,
यह स्वप्न नहीं , मैं स्वयं हूं
यदि अचेत हो तो जागो !
प्रिय ! वर मांगो...
प्रिय! वर मांगो..
—साहित्यबंधु
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