“उसने कहा था” क्या प्रेम कहानी है ?
बहुत सारे विद्वानों ने “ उसने कहा था “ को प्रेमकथा माना है । लेकिन एक श्रेष्ठ कहानी होने तथा आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य की एक मात्र रोचक युद्ध कथा होने के बावजूद क्या “उसने कहा था” एक प्रेमकथा भी है
प्रभावशाली भाषा, रोचक कथानक, भावनापरक कथ्य एवं किस्सागोईपन से भरपूर गुलेरी जी की कालजयी कहानी “उसने कहा था”, प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौर में सन 1915 में लिखी गई थी जो कि उस समय की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका “सरस्वती” में प्रकाशित हुई थी । इस कहानी के प्रकाशन से लेकर अब तक लगभग 106 वर्ष की समयावधि बीत जाने के बाद भी ऐसी भावनापरक एवं रोचक युद्ध कथा नहीं लिखी गई । स्वयं गुलेरी जी, “उसने कहा था” की टक्कर की श्रेष्ठ दूसरी कोई कहानी उसके बाद या उसके पहले नहीं लिख सके थे । जबकि उनने कुल छह कहानियां लिखी थी जिनके नाम इस प्रकार है – “घंटाघर” (वैश्योपकारक वर्ष 1 संख्या 8, 1904 इश्वी), “धर्मपरायण रीछ” (समालोचक, जनवरी-मार्च 1906), “सुखमय जीवन” (भारत मित्र, सन1911), “बुद्धू का कांटा” (पाटली पुत्र,1914), “उसने कहा था” (सरस्वती, जून 1915) तथा “ हीरे का हार” (जनसत्ता 6 जुलाई, 1987) ।
बहुत सारे विद्वानों ने “ उसने कहा था “ को प्रेमकथा माना है । लेकिन एक श्रेष्ठ कहानी होने तथा आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य की एक मात्र रोचक युद्ध कथा होने के बावजूद क्या “उसने कहा था” एक प्रेमकथा भी है ? इसकी जांच परख के लिए पूरी कहानी का पुर्नपाठ तो करना ही होगा साथ ही कथानायक लहना सिंह द्वारा किशोरावस्था में घोड़े की टांगों तले आने से बचा कर दुकान के तख्ते पर खड़ी करने वाली 8 वर्षीय लडकी, जो कि बाद में फौज के सूबेदार से ब्याह कर सूबेदारनी बनती है, ने जवान हो कर फौज में जमादार बने लहना सिंह से, छुट्टी के बाद युद्ध के लिए लौटते वक्त आखिर ऐसा क्या कहा था कि उस कहे की आन निभाते हुए, उसके पति पुत्र की रक्षा करते हुए लहना सिंह ने अपनी जान गंवा दी को भी विश्लेषित करना होगा । साथ ही इस प्रश्न का भी उत्तर ढूंढना होगा कि क्या इस भांति सूबेदारनी के कहे की आन निभाना लहना सिंह एवं सूबेदारनी के बीच किसी प्रेम कहानी को
कहते हैं ?
“उसने कहा था” का पुनर्पाठ करते हुए तथा उसका विश्लेषण करते हुए उसे पांच भागों में विभक्त करके अध्ययन किया जा सकता है । पहले भाग में अमृतसर के चौक की एक दुकान में 8 वर्ष की लड़की और 12 वर्ष के लड़के की एक दुकान में सौदा लेने के दौरान मुलाकात होती है परिचय होता है फिर हर दूसरे-तीसरे दिन उनकी मुलाकात होती रहती है, दोनों ही सिख है । पहली मुलाकात में ही लड़का शरारत से पूछता है “तेरी कुड़माई (सगाई)” हो गई और लड़की शर्मा कर धत्त कह कर भाग जाती है । फिर हर मुलाकात में लड़का लड़की से यही प्रश्न पूछता है ज़बाब में हर बार लड़की “धत्त” कहती हैं । लेकिन एक दिन लड़की ज़बाब में “हां हो गई” कहती हैं तथा “कब” के ज़बाब में “कल देखते नहीं यह रेशम का कढा हुआ शालू (ओढ़नी)” कहती हैं । जिसे सुन कर लड़के ने घर लौटते हुए रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले (खोमचे वाले) की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया । सामने से नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई तब कहीं घर पंहुचा । क्या लडके की यह विचलित मनोदशा उस लड़की के प्रति उसके प्रेम की परिचायक
है ?
कहानी के दूसरे भाग में अंग्रेज एवं जर्मन के बीच युद्ध, अंग्रेजों की तरफ से युद्ध करते लहना सिंह, बोध सिंह एवं हजारा सिंह के बीच खन्दको में ठंड से तथा जर्मनों की गोलाबारी से परेशान हो कर बातचीत के अंश है तथा तीन दिन बाद रिलीफ आने के बाद सात दिन की छुट्टी की चर्चा है । एवं बोध सिंह की विशेष देखभाल करते लहना सिंह द्वारा उसे अपना ओवरकोट एवं जरसी पहना देने का दृश्य है । तीसरे भाग में जर्मन अफसर नकली अंग्रेज लैफ्टीनेंट बन कर आता है तथा दस जवान छोड़ कर शेष सभी जवानों को ग़लत आदेश दे कर दूसरी जगह भेज देता है । लहना सिंह बोध सिंह की देखरेख के लिए रुक जाता है । जर्मन अफसर द्वारा जब सिख लहना सिंह को सिगरेट आफर की जाती है तथा अन्य वार्ता से लहना सिंह को उसके नकली अंग्रेज लैफ्टीनेंट होने का पता चलता है तो वह वजीरा सिंह के मार्फत अन्यत्र जा रहे जवानो को खबर करता है तथा नकली अफसर को मार गिराने के दौरान
उसकी गोली लगने से स्वयं भी घायल हो जाता है। इस बीच सत्तर जर्मन सैनिक हमला कर देते हैं जिनसे लहना सिंह अपने जवानों के साथ युद्ध करता है । इसी बीच गोलीबारी की आवाज तथा वजीरा सिंह के मार्फत मिली खबर से अन्यत्र जा रहे जवान वापस लौटते हैं तथा दोनों तरफ से हमला कर सत्तर जर्मन सैनिकों को मार कर फतह हासिल करते हैं । दूसरे कैम्प से डाक्टर एवं एम्बूलेंस आती है लेकिन घायल होने के बावजूद एम्बूलेंस में स्वयं न जा कर लहना सिंह बोध सिंह एवं हजारा सिंह को सुरक्षित भेज देता है तथा कहता है – “सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखना तो मेरा मत्था टेकना लिख देना । और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होने कहा था वह मैंने कर दिया ।“
कहानी के पहले भाग का दूसरे एवं तीसरे भाग से कोई संबंध स्थापित नहीं होता लेकिन पाठकों के मन में यह जिज्ञासा जरुर जागृत होती है कि आखिर लहना सिंह सूबेदार हजारा सिंह एवं उसके पुत्र बोध सिंह की, अपनी जान की परवाह न करते हुए इतनी देख भाल क्यों करता है तथा उन्हें सुरक्षित फील्ड हास्पिटल जाने वाली गाड़ी मे भेज कर, स्वयं घायल होने के बावजूद भी युद्ध स्थल पर ही क्यो रुका रहा जाता है ? आखिर सूबेदारनी ने उससे क्या कहा था ? सूबेदारनी एवं लहना सिंह के मध्य क्या संबंध है ? आदि । इन सभी प्रश्नों का जवाब कहानी के चौथे भाग के फ्लैश बैक दृश्य में मिलता हैं । जिसमें बताया गया है कि “ पच्चीस वर्ष बीत गये अब लहना सिंह नं. 77 राइफल्स में जमादार हो गया है । उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान भी न रहा । न मालुम वह कभी मिली भी थी या नहीं ।“ और इसके साथ ही कहानी पहले भाग से जुड जाती है ।
सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमे के संबंध में लहना सिंह अपने गांव घर आया हुआ है । तभी रेजीमेंट के अफसर की चिटृठी द्वारा लाम पर जाने का हुकुम मिलता है साथ ही सूबेदार हजारा सिंह की चिट्ठी भी मिलती है कि हमारे घर होते आना साथ ही चलते हैं । सूबेदार के घर लहना सिंह के पहुंचने पर सूबेदार बतलाता है कि सूबेदारनी उसे जानती है मिलना चाहती है । लहना सिंह ताजुब में है कि सूबेदारनी उसे कैसे जानती है । दरवाजे पर वह सूबेदारनी को “मत्था टेकना” कहता है तथा ज़बाब में “आशीष” सुनता है । वहां उसे सूबेदारनी किशोर उम्र की मुलाकात की बात बताती है, उसे देखते ही पहचान लेने की बात कहती हैं तथा एक काम का दायित्व सौंपते हुए कहती हैं – “एक बेटा है । फौज में भर्ती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ । उसके पीछे चार और हुये पर एक भी नहीं जिया ।“ तथा रोते हुए कहती हैं – “ अब दोनों जाते है । मेरे भाग । तुम्हें याद है, एक दिन तांगे वाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था । तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे । आप घोडे की लातों में चले गये थे। और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था । ऐसे ही इन दोनों को बचाना । यह मेरी भिक्षा है तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं ।“ रोती हुई सूबेदारनी ओवरी (घर के अंदर की कोठरी) में चली गई । लहना भी आंसू पोछते हुये बाहर आया । यह सब ज्वर की बर्राहट में फ्लैश बैक में प्रस्तुत होता है । कहानी के पांचवें भाग में वह घर की स्मृतियों में डूब कर अपने भाई कीरत सिंह को याद करता है । अपने लगाये आम के पेड़ की बात करता है । वजीरा सिंह की आंखों से आंसू टपकते हैं तथा कुछ दिनों बाद अखबारों में घावों से भरे सिख राइफल्स जमादार लहना सिंह की मौत की खबर छपती है । यहीं पर मर्मस्पर्शी भावनाओं से ओत-प्रोत कहानी विराम लेती है ।
सूबेदारनी के कथन में प्रस्तुत लहना सिंह द्वारा तांगे वाले के घोड़े की लातों तले से उसे बचा कर दुकान के तख्ते पर सुरक्षित खड़े कर देने की बात कहानी के पहले भाग में दर्ज नहीं है । लेकिन कई बार मुलाकात का जिक्र है । संभवतः उन्हीं मुलाकातों में से किसी मुलाकात में वह घटना घटी होगी । “उसने कहा था” को प्रेम कहानी मानने वाले उस घटना एवं 8 वर्ष की बालिका से उसकी कुड़माई (सगाई) वाली बात सुन कर किशोर लहना सिंह की अनमनी विचलित मानसिक अस्वस्था को उस बालिका के प्रति उसके मन में “अंकुरित प्रेम” मानते हैं तथा उसी अंकुरित प्रेम के परिपक्वता में उस बालिका के बड़े हो कर सूबेदार से विवाह कर सूबेदारनी बन जाने के बावजूद उसके कहे को प्रेम संबंधों के फल स्वरुप निभाते हुए उसके पति और पुत्र की रक्षा करते हुए लहना सिंह अपना प्राण न्यौछावर कर देता है यह मानते है । लेकिन किशोरावस्था में 12 वर्ष के लहना सिंह एवं 8 वर्ष की बालिका के लहना सिंह की मुलाकातों को “प्रेम” कैसे मान लें । कहानी में कहानीकार स्पष्टत: कहता है कि “पच्चीस वर्ष बीत गये अब लहना सिंह, नं. 77 राइफल्स में जमादार हो गया है । उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा । न मालुम वह कभी मिली थी या नहीं।“ जबकि किसी भी उम्र में प्रेम की स्मृतियां ताउम्र ह्रदय में सुरक्षित रहती है भुलाये से भी भूलती नहीं है । ऐसी स्थिति में किशोर लहना सिंह एवं उस बालिका के मध्य मुलाकात एवं उसकी कुड़माई (सगाई) हो जाने की बात सुन कर उसकी विचलित मन:स्थिति क्या महज किशोरावस्था का यौनाकर्षण एवं किशोर मनोविज्ञान की एक घटना मात्र नहीं मानी जानी चाहिए ? जो कि समय बीतते ही विस्मृत हो गई । किशोरावस्था के यौनाकर्षण की इस घटना से मिलती जुलती कई घटनाएं बहुतों के जीवन में संभवतः घटित हुई होंगी तथा समय के साथ रेत में लिखी इबारत की तरह मिट भी गई होंगी।
अब बात उठती है सूबेदारनी के कहे की आन निभाते हुए लहना सिंह के प्राण न्यौछावर कर देने की तो इसे “प्रेम” से जोड़ने वाले यह भूल जाते हैं कि लहना सिंह एक सिख नौजवान है तथा सिखों की आन बान शान की बात, अपने कहे या किसी अन्य के निवेदन करते हुये कहे की आन रखने में स्वयं की परवाह न करने की बातें सिखों के इतिहास में बहुतायत में दर्ज है । ऐसी स्थिति में क्या यह कहानी भी एक सिख नौजवान की दयार्द्र हो कर किसी के कहे की आन निभाने में अपने प्राण न्यौछावर कर देने की गौरवशाली कहानी नहीं है ? जिसे की प्रेम कहानी का रुप दे कर कहानी के इस पहलू को उपेक्षित कर दिया गया है । कहानी के उस हिस्से पर गौर करिये जब लहना सिंह सूबेदारनी से मिलने जाता है तो अभिवादन में “मत्था टेकना” कहता है तथा सूबेदारनी द्वारा कही गई “आशीष” सुनता है । क्या ये अभिवादन के संबोधन किसी भी उम्र में हृदय में “प्रेम” की भावना सुरक्षित रखने वाले प्रेमी प्रेमिका द्वारा परस्पर अभिवादन में कहे जा सकते हैं ? सूबेदार के पद की गरिमा के अनुरूप लहना सिंह अपने से कम उम्र की सूबेदारनी को सम्मानजनक अभिवादन “मत्था टेकना” कहता है तथा सूबेदारनी उसे आशिर्वाद देती है ।
जवान होने पर लहना सिंह को ना वह बालिका याद है और ना ही किशोर उम्र में उसे बचाने की घटना लेकिन सूबेदारनी को सब कुछ याद है । अपने प्राण की रक्षा करने वाले को ताउम्र याद रखना स्वाभाविक ही है । लेकिन जब उस घटना की याद दिला कर सूबेदारनी आंचल पसार कर अपने पति एवं पुत्र की युद्ध मे रक्षा करने की याचना करती है तो यह कहानी किशोरावस्था के “मैत्री संबंधों” की कहानी बन जाती है ना की “प्रेम कहानी” । यदि सूबेदारनी के मन में लहना सिंह के प्रति प्रेम की भावना होती तो उससे वह युद्ध में अपना ख्याल रखने की बात करती लेकिन सूबेदारनी तो प्रेम अपने पति एवं पुत्र से करती है तथा किशोर उम्र के “मैत्री संबंधों” के आधार पर वह लहना सिंह से अपने पति और पुत्र की रक्षा की याचना करती है । लहना सिंह किशोर उम्र के उस मैत्री संबंध जिसकी याद सूबेदारनी दिलाती है तथा एक महिला की याचना से द्रवित होकर, सिखों की किसी आत्मीय के कहे की आन रखने के गुणों के फलस्वरूप उसके पति पुत्र की युद्ध में रक्षा करता है ना कि किसी “प्रेम संबंधों” के आधार पर । सूबेदारनी का पति सूबेदार हजारा सिंह भी संभवतः सूबेदारनी एवं लहना सिंह के किशोरावस्था के मैत्री संबंधों को जानता था तभी वह युद्ध
स्थल से गाड़ी में बैठते हुये लहना सिंह से साथ चलने का आग्रह करते हुए कहता है “अपनी सूबेदारनी से तूं ही कह देना ! उसने क्या कहा था ?” इस कथन में “अपनी सूबेदारनी” संबोधन एक पति अपनी पत्नी के पुरुष मित्र के लिए तो कर सकता है लेकिन प्रेमी के लिए नहीं । यदि “उसने कहा था” कहानी को “स्त्री पुरुष के किसी भी उम्र के मैत्री संबंधों” की कहानी के रुप में विश्लेषित किया जाता तो संभवतः “स्त्री पुरुष मैत्री संबंधों” की यह पहली हिन्दी कहानी होती ।
सूबेदारनी का किशोर वय में तांगेवाले के घोड़े से उसे बचाने की घटना का स्मरण दिलाते हुए पति पुत्र की युद्ध में रक्षा हेतु लहना सिंह से यह कथन करना कि “तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे । आप घोड़े की लातो में चले गये थे और मुझे उठा कर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था । ऐसे ही इन दोनों को बचाना । यह मेरी भिक्षा है तुम्हारे आगें मैं आंचल पसारती हूं ।“ क्या आम पाठकों को इस कथन से ऐसा प्रतीत नहीं होगा कि सूबेदारनी लहना सिंह को जिस भांति अपनी जान जोखिम में डाल कर मुझे बचाया था वैसे ही युद्ध में अपने प्राण जोखिम में डाल कर भी अपने पति पुत्र की रक्षा करने हेतु अपनी याचना से प्रेरित करती है ? और बेचारा सीधा साधा भावुक आन का पक्का सिख युवक लहना सिंह उस के कहे की आन निभाते हुए, उसके पति पुत्र की रक्षा
करते हुए अपनी जान दे देता है । जबकि उस कथन से क्या सूबेदारनी की, अपने प्रति किसी भी उम्र में कोमल भावना रखने वाले पुरुष को अपने हित में उपयोग करने की स्वार्थपरता उभर कर सामने नहीं आती ? हो सकता है कि सूबेदारनी के कथन के प्रति इस दृष्टिकोण से विद्वदजन सहमत न हों पर उसके स कथन में क्या लहना सिंह के प्रति किसी भी तरह की थोड़ी सी भी युद्ध में फिक्र या उसके प्रति थोड़ा सा भी प्रेम झलकताहै ? हां एक स्वार्थ भरा विश्वास जरुर दिखलाई पड़ता है कि जिस भांति लहना सिंह ने किशोरावस्था में खुद को जोखिम में डाल कर उसके प्राणों की रक्षा की थी, उसी भांति उसके कहने पर युद्ध में अपने प्राणों को जोखिम में डाल कर भी वह उसके पति पुत्र की रक्षा करेगा । क्या यह स्वार्थ भरा विश्वास ही प्रेम है ?
कालजयी कहानी “ उसने कहा था “ को प्रेम कहानी साबित करने वाले विद्वद जन से निवेदन है कि उस कहानी को प्रेम कहानी ठहराने के पहले एक बार इस आलेख में प्रस्तुत उपरोक्त तथ्यों की कसौटी पर भी कस कर कहानी को जाये । क्या वे ऐसा कर सकेंगे ?
राजेन्द्र सिंह गहलौत
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